आजकल
शब्दों की हिम्मत भी
हवा देखकर बढ़ सी गयी है ...
न जाने क्यूँ वे
अपना आक्रोश मुझपर ही
अजीब तरह से व्यक्त कर रहे हैं
मैं निकल जाने को भी कहूँ तो
कुछ बुदबुदाते हुए उबल रहे हैं ....
तब तो शब्दों की छाती पर
मैंने भी तान दिया है पिस्तौल
अब तो उन्हें राजद्रोह स्वीकारना होगा
साथ में गिरफ्तारी भी देनी होगी
अपना बॉडी- वारंट देखे बिना ....
अब वे करते रहे अपना वकील
लिखवाते रहे अपने लिए हिदायतें
छाँटते रहे सही-गलत बातों को
अपना छाती दुखा-दुखा कर
करते रहे अपना जिरह
व अपनी पैरवी के लिए
करते रहे सारे प्रबंध-कुप्रबंध
और अपने धारदार बहसों से
काटते रहे गले के फंदों को ....
पर मैं तो एकदम से इन शब्दों की
बौराई हुयी सरकार सी हो गयी हूँ
अति आक्रोश में हूँ
इसलिए कुछ गिरगिटी शब्दों को छोड़कर
बाकी उन सभी रुष्ट शब्दों को
एक-एक करके
नजरबन्द कर देना चाहती हूँ
अपने कलम में ही .