तिथियों को कई रूप में ढल जाते देखा
क्षण को अगले क्षण में धँस जाते देखा
दुःख को घर में ही एक घर बनाते देखा
सुख को बस क्षितिज सा लहराते देखा
जाग्रत स्मृतिओं में सब सो गये
स्वर्ण दिन आये क्या , लो गये
हरे-हरे पत्ते झटके में यूँ झड़ जाते हैं
खिले सुन्दर फुल भी यहाँ मुरझाते हैं
तरु-कंकाल तो मिटने से भय खाते हैं
बिन हवा के ही घोंसले उजड़ जाते हैं
अनऋतु में भी रुत सारे बदल गये
स्वर्ण दिन आये क्या , लो गये
झूठ को बैसाखियों से दौड़ लगाते देखा
सच के खँडहर को यूँ ही भरभराते देखा
पंछीमन को तो जाल में फँस जाते देखा
और जाल लिए दूर कहीं उड़ जाते देखा
जो नहीं हैं हाय ! हम वही हो गये
स्वर्ण दिन आये क्या , लो गये
काल के अजनबी भँवर जब पड़ जाते हैं
कई-कई शिखर अनजीते ही रह जाते हैं
पाँव तले हर पड़ाव भी खिसक जाते हैं
और हार को हार बना गले लटकाते हैं
पानी देखते ही वाह! प्यास हो गये
स्वर्ण दिन आये क्या , लो गये .