आजकल आप बहुत लिख रहे हैं भाई!
क्या आप क़लमकार हैं या क़लमकसाई!
लिखने से पहले जरा सोच भी लिजिए
निकले लफ़्ज़ों में जरा लोच भी दिजिए
यूँ बंदूक से निकली गोली की तरह फायर हैं
और कहते हैं कि आप नामचीन शायर हैं
क्या आप बस नाम के लिए ही लिखते हैं?
पर वैसे नाम वाले भी आप कहाँ दिखते हैं?
आपके अल्फ़ाजों की अदा तो निराली है
क्या आपने लिखने वाली भांग खा ली है?
आप ऐसे शोहरती नशे में हैं तो रहिए न
आपके जी में जो भी आए आप कहिए न
पर आपसे सब इत्तेफ़ाक़ ही रखे ज़रूरी है?
वाह! वाह! कर देना तो सबकी मज़बूरी है
जितनी जल्दी समझ जाएँगे तो अच्छा होगा
हमारी तरह ये कहने वाला कौन सच्चा होगा?
इल्तिजा इतनी ही है कि जरा-सा थम जाइए
ज़मानें भर का न सही पर अपना तो गम़ खाइए
किसी भी मुद्दे पर बस ऐसे शुरू ही हो जाते हैं
रहम कीजिए क़लम पर क्यों इतना तड़पाते हैं?
इतनी ही तड़प है तो कुछ जमीन पर कर दिखाइए
नहीं तो कंबल ओढ़कर खुद में ही सही बड़बड़ाइए
बदगुमानी से गुमराह करना भी तो इक गुनाह ही है
गोया सोचते भी नहीं कि उनमें ही कचरा बेपनाह है
क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं
हाँ! ये क़लमकसाई ही तो इसका असली निशाना है
अपना मज़ाक़ बनाने के लिए भी हुजूर हिम्मत चाहिए
अरे! चुप न रहिए मुस्कुरा के ओठों को तो फैलाइए
क्यूंकि उम्रे-दराज यूँ ही मिल गया है कुछ दिन हमें तो
कुछ क़लम घसीटी में काटे हैं कुछ क़लम तोड़ी में काटेंगे।
अक्सर कुछ भी "लिखो फोबिया" के चक्कर में क़लम घसीटी का आलम ही जुदा हो जाता है। तब तो तड़प-तड़प कर क़लम के दिल से ऐसी ही इल्तिजा वाली आह निकलती है। पर हम तो ठहरे आला दर्जे का क़लमकसाई। अब क्या फर्क पड़ता है कि क़लम हमें घसीटती है या हम क़लम को। इसी घसीटाघसीटी में जुमला-बाज़ी तो हो गई। अब हमपर जिन्हें खुलकर फ़िकऱा-बाज़ी करनी है तो वे शौक़ से कर सकते हैं। तब तक हम इस्तक़बाल के लिए लफ़्ज़ तलाशते हैं। ताकि कुछ और जुमला-बाज़ी हो।
"सुम्मा आमीन"