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Sunday, February 27, 2022

का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !...........

                       सबसे पहले ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को भारी हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। फिर वह उन के श्री चरणों में लोट-पोट कर अपने इस धृष्टता भरे लेख के लिए क्षमा याचना करता है। वह अपनी कलम की गवाही में कुबूल करता है कि ये क्षमा याचिका भी उस की मन मारी हुई मजबूरी है। साथ ही हाथ जोड़कर दरख़्वास्त करता है कि इसे किसी खास मकसद के लिए कृपया पैंतराबाजी हरगिज न समझा जाए। हाँ! अगर इस लेखक के हिमाकत भरी मूर्खता पर व्यंग्य-क्रोध मिश्रित हँसी आती है तो कृपया इसे लेखक की लाचारी की खिल्ली उड़ाते हुए न रोका जाए। क्योंकि वह खुद इसतरह से अपनी जगहँसाई करवा रहा है। वह इकरार करता है कि ये सब कहते हुए उसे जरूरत से ज्यादा शर्म आ रही है और डर भी लग रहा है। पर यदि वह न कहे तो, जो इक्का-दुक्का इच्छाधारी पाठक इसे गलती से पढ़ लेते हैं, वे भी कहीं इस अक्ल के आन्हर से खुलेआम नाराज होकर बिदक न जाएँ। आजकल भला डर की महिमा से कौन अंजान है? हर तरफ सिर्फ डर का ही तो राज है। वैसे ये लेखक डर का गुणगान कर विषयांतर नहीं होना चाहता है। बाकी तो पाठक खुद ही अपने चारों तरफ देख ही रहें हैं। तो मुद्दे की बात ये है कि जहाँ कोई पाठक किसी भी लेखक को अब पढ़ने के लिए राजी नहीं है तो शायद कहा जा सकता है कि पाठकों का "डर बिनु लेखन न होई"। 

                                            जाहिर है कि लेखन भी सिर्फ उन विलुप्त प्रजाति के अदृश्य पाठकों की पसंद-नापसंद का मोहताज हो गया है जो अब सच में आन्हर हो गये हैं। वे भला आन्हर क्यों न हों? आखिर कब तक उन भोले-भाले पाठकों की आँखों में इसतरह के कचरा-लेखन को झोंक-झोंक कर, अपने शौक और सनक से आन्हर हुए, तथाकथित लेखक गण ऐसे वैचारिक शोषण कर सकते हैं? आखिर कब तक सीधे-सादे पाठक, जानबूझकर उनपर थोपे हुए मानसिक विलासितापूर्ण लेखन की गुलामी करते रहेंगे? इसलिए अब वें अपने पढ़ने की तलब को ही अपना त्रिनेत्र खोल कर आग लगा रहें हैं। वें अपना विद्रोही बिगुल भी जोर-जोर से फूँक कर अपने आन्हर और बहिर होने का डंका भी पीट रहें हैं। तब तो वें लेखकों के लाख लुभावने वादे या गरियाने- गिरगिराने के बावजूद भी उन्हें पढ़ने नहीं आ रहें हैं। न चाहते हुए भी अब लेखक गण अपना लेखन-खाल उतार कर संन्यास लेने को मजबूर हैं। आखिर पापी प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है। फिर अपने रुदन-सम्मेलन में सामूहिक रूप से विलाप भी कर रहें हैं कि- "का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर।"

                       मजबूरन कुकुरमुत्ते-से उग आए लेखक ही एक-दूसरे को मन-ही-मन कोसते हुए त्वरणीय पाठक का स्वांग रच रहे हैं(अपने लेखन पर कुछ ज्यादा ही गुरूर करते हुए)। पर मजाल है कि बतौर पाठक वें किसी की आलोचना कर दें। वैसे भी आलोचना तो अब लेखन-पाठन के उसूलों के खिलाफ ही हो गया है। अब वे पूरे होशो-हवास में दोधारी तलवार पर चलते हुए, बस तारीफों के गाइडलाइंस का पालन भर कर रहें हैं। यदि कभी अपने गुमान के बहकावे में आकर, वें फिसल गये तो तय है कि सीधे लेखक-पाठक बिरादरी से बाहर ही गिरेंगे। फिर तो उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। बस इसी डर से इस माफीनामा का ऐसा मस्का माननीय पाठकों को मारा जा रहा है। वर्ना कोई नामचीन लेखक होता तो अपना मूर्खई लेखन-लट्ठ सीधे-सीधे उनके सिर पर ही दे मारता। चाहे उनको ब्रेन स्ट्रोक क्यों न हो जाता। चाहे वें कोमा में ही क्यों न चले जाते। खैर..... 

                                      तो उसके इस बेबाकी को बस पूज्यनीय पाठक गण दिल पर न लें। उन्हें दिमाग पर भी लेने की कतई जरूरत है ही नहीं (वैसे नामचीनों को भी कौन पाठक दिलो-दिमाग पर लेता है, बस वे ही नामचीन होने का वहम दिलो-दिमाग पर लिए फिरते हैं )। ये कुबूलनामा इस दीन-हीन, खिसियानी बिल्ली की तरह, खार खाए हुए लेखक का वो दर्द है, जिसे लिए वह पाठकों का बात-लात खा-पीकर भी हासिए से बाहर होना नहीं चाहता है। वह अपने जुनून में लेखकों की पिछली कतार का पूँछ पकड़े हुए है। वह बड़ी मुश्किल से अपने नाम की घिसी-पिटी तख्ती को दिखाने के वास्ते ऐसा जद्दोजहद कर रहा है। इसलिए उसके इस कुबूलनामा को हाजिर-नाजिर मानते हुए उसे खैरात में ही सही फेंकी हुई माफी जरूर मिलनी चाहिए। साथ ही उसे अपनी बात थोड़ी-बहुत बेइमानी वाली ईमानदारी से कहने की, पूरी आजादी भी मिलनी चाहिए। बशर्ते उसकी ये नादान गुस्ताखी उसी के सिर का इनाम न हो जाए। 

                             फिर से ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को अपना फटेहाल हाल कह कर अब हल्के हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। हार्दिक आभार।

Monday, February 21, 2022

ऐ आदमी ! ........

ऐ आदमी !

नग्न हो कर

मुझ आदमी तक आओ !

जैसे मैं आती हूँ तुम तक

जबरन चिपकाए गए 

आदमीपन को खुरच कर

तो ही देख पाती हूँ

खुद को साफ-साफ

तुमको आर-पार देखते हुए....

जो पहन लोगे तुम

झीना-सा भी कुछ

तो नहीं देख पाओगे

मुझे भी, खुद को भी

आदमी हो कर

आदमी की तरह !

पर आदमीपन दिखाने के लिए भी

आदमी नहीं रहोगे और

बात-बात पर

निकालोगे अपना

खून लगा हुआ जीभ !

फँसी हड्डियों में

कटकटाता हुआ दाँत !

लोथड़े से सना नाखून !

छटपटाता हुआ पंजा !

सबकुछ नोच खाने के लिए.....

ऐ आदमी ! 

आदमी होने के लिए

ऐसे आदमीपन को

झटके से खसोट दो !

और वही हो जाओ 

जो तुम हो....

तोड़ दो रूढ़ियों को !

बदल दो परंपराओं को !

खोल दो बेड़ियों को !

छोड़ दो पूर्वाग्रहों को !

उतार दो आडंबरों को !

मुँह पर थप्पड़ मारो !

होश में आओ !

और फेंक दो 

अपनी सारी केंचुलियाँ

जो तुम्हारी नग्नता को

बलात् ढकने पर आमादा है....

जला दो उन पुरावशेषों को

जो तुम्हें पहनाती है

सभ्यता का पत्थरचटा लबादा !

भुला दो जो तुम्हें अबतक

बार-बार बताया गया है

जिसे गलती से भी भूलने पर

तुम्हारी भयावह भूल बता

तुम्हें हर बार पशु-सा

डराया गया है, सताया गया है....

फिर तुमपर थोपी हुई 

आदमीयत से भी

लात मारकर गिराया गया है !

ऐ आदमी !

आदमी होने के लिए

पूछो, चिल्ला कर पूछो !

उन सबसे पूछो

क्यों तुमको ढाँचे में ढाल

उनके पैमाने से तुम्हें

आदमी बनाया गया है?

आदमी, एक ऐसा आदमी !

जो देख नहीं सकता !

जो बोल नहीं सकता !

जो सुन नहीं सकता !

अपनी ही नग्नता को

अपने सामने भी 

खोल नहीं सकता !

कभी खोल जो दे तो

उन हैवानात के

जालिम आदमीयत से ही

जीते जी मारा जाता है !

शायद इसीलिए तो सबके लिए

सभ्य आदमी बन पाता है.....

लेकिन अपनी नग्नता को

नकारता हुआ, ढकता हुआ

शर्माया-सा सभ्य आदमी भी

अपने जिंदा-मुर्दा होने के

बीच के फर्क को भुलाकर

और क्या कर पाता है?

बस बेबस, बेचारा होकर

उन आदमखोर मछलियों के

स्वाद के हिसाब से

उनके ही कटिया में 

बुरी तरह से फँसा हुआ

लजीज चारा ही हो जाता है।


Monday, February 14, 2022

शून्य लिख दो ....….

ढाई आखर के

प्रेम की चिट्ठी में

शून्य लिख दो

जो विरह होगा

प्रतीक्षा करो

कभी तो 

वो मिलन 

पढ़ा जाएगा

और तुम्हारा

प्रेम स्वयं ही

तुम तक

चला आएगा.

     ***

तुमने

तनिक जो

भरे नयनों से

देख क्या लिया

अज्ञात ॠचाएँ

ऊर्ध्व वेग से

हृदय- व्योम में

गूँजने लगी है

अब ये भी बता देते

कि क्षर-अक्षर सबमें

क्या प्रेमवेद

और प्रेमोपनिषद् 

प्रकट हो रहा है ?

     ***

प्रेम प्रलय में

जब कुछ भी

नहीं बचेगा

सबकुछ

खो जाएगा

पीड़ा के प्रवाह में

तब भी एक 

उत्तप्त हृदय

बचा रहेगा

डोंगी बन कर

वह प्रेम का ही होगा.

Thursday, February 10, 2022

यक्ष प्रश्नोत्तर ! ......

यक्ष प्रश्न -

मैं क्या होना चाहूँगी अगले जन्म में ?

यक्ष प्रश्नोत्तर - मैं होना चाहूँगी.......

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में

जो मैं हूँ वही होना चाहूँगी - अमृता तन्मय !

अमृता तन्मय बस एक नाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक संबोधन भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिचय भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिणाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक पूर्णविराम भर ही नहीं है

ये वो है जो अमृता तन्मय की हर जानी-पहचानी

कोष्ठिका की इंगित से इतर है, अणुतर है, अनंतर है

ये आत्मोपस्थिति तो उसकी आत्मोत्सृष्टि के समानांतर है

अमृता तन्मय वो अस्तित्व है जो सन्दर्भ को सत्य से जोड़ती है

अमृता तन्मय वो चेतना है जो हर काल को झझकोरती है

अमृता तन्मय वो सौन्दर्य है जो शिवत्व की ओर मोड़ती है

अमृता तन्मय सृष्टि की अनहद ओंकार है

अमृता तन्मय स्वस्फुरण का मृदुल हुंकार है

मुझे हर जन्म में अमृता तन्मय ही अंगीकार है

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में ।

                                            

                                           अचानक से कोई अन्य अथवा अनन्य इस तरह का रोमांचक यक्ष प्रश्न कर बैठता है तो तत्क्षण स्वयं से समालाप होने लगता है। हमारा उत्सुक स्वभाव ही ऐसा है कि हम कई यक्ष प्रश्नों का काल्पनिक अथवा वास्तविक उत्तर एक-दूसरे से पाना चाहते हैं। उन उत्तरों में हम अन्य के अपेक्षा स्वयं को ही अधिक खोजते हैं। इस तरह की खोज हमें आत्म अन्वेषण से आत्म संतुष्टि तक ले जाती है। इसलिए यथोचित उत्तर चाहता हुआ हमारा मन भी कहीं भीतर गहरे में जाकर अपनी पड़ताल करने लगता है कि वह अपने इस होने से संतुष्ट/प्रसन्न है अथवा नहीं। जाना हुआ उत्तर या दिया गया उत्तर संतोषजनक हो अथवा नहीं हो परन्तु मौलिक/ नयेपन का अवश्य आभास देता है। जो सच में चिरन्तन के तनाव से परे हटाकर हमें नवजन्म के लिए रोमांचित करता है।

Thursday, February 3, 2022

कल्पवासी बसंत........

हमारी निजन निजता से नि:सृत

प्रीछित प्रीत की गाथाएँ हैं विस्तृत

उसे अब अनकहा ही मत रहने दो

यदि तुम कहो तो वो हो जाए अमृत


कह दो कि इन्द्रियों पर वश नहीं चलता

कह दो कि संयम ऐसे अधीर हो उठता

है बारहों मास तन-मन का रुत बसंती

मदमाया प्राण रह-रह कर है मचलता


कह दो हर क्षण बिना रंग का खेले होली 

क्ह दो बिना भांग के ही बहकती है बोली 

जो कहा न जाए वो सब भी कहलवाना

कहो कि कैसी होती है प्रीत की ठिठोली 


कह दो कि मुझको आलिंगन में भर कर

कह दो कि मुझको चुंबनों से जकड़ कर

औचक ही चेतना भी क्यों चौंक जाती है ?

क्यों सुप्त चंचलता आ जाती है उभर कर ?


कैसे कल्प प्रयाग में हुआ है अनोखा संगम ?

कहो कैसे स्खलन हो गया कालजयी स्तंभन ?

कह भी दो कि प्रेम-यज्ञ में ही आहुत होकर

कैसे प्रेमिक कल्पवास को किया हृदयंगम ?


कह दो कि कौन करे अब किसी और की पूजा

कहो कैसे मुझमें डूबे कि अब रहा न कोई दूजा

वरदाई अभिगमन के भेद भरे सब राज खोलो

कह दो कि हमने जो जिया कितना है अदूजा


अब तो इन अधरों पर धर ही दो अधरों को

कहीं सब कह कर के कँपा न दे धराधरों को

क्या प्रीत की गरिमा इतनी होती है श्लाघी ?

या चुहल में यूँ ही चसकाती है सुधाधरों को ?


क्या हम पर प्रेम-भंग का असर हुआ है ?

या अभिसारी बसंत ही अभिसर हुआ है ?

या इस माघ-फागुनी प्रेमिक कल्पवास में

उधरा-उधरा कर परिमल ही प्रसर हुआ है ?


कह दो वो अनकहा ही कण-कण खिला है

कहो खुला देहबंध तो प्रेम-समाधि मिला है

जो तुम न कह पाओ तो श्वास-श्वास कहेगा

कि कल्पवासी बसंत कैसे बूँद-बूँद पिघला है .