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Sunday, November 13, 2022

मेरे शिव ! तेरी जटा में अब कैसे समाऊँ ? ......

हाँ ! तेरे चरणों पर, बस लोट- लोट जाऊँ

हाँ ! माथा पटक- पटक कर, तुम्हें मनाऊँ

बता तो हृदय चीर- चीर, क्या सब बताऊँ ?

मेरी हरहर- सी वेदना के प्रचंड प्रवाह को

मेरे शिव ! तेरी जटा में अब कैसे समाऊँ ?


भगीरथ- सी पीर है, अब तो दपेट दो तुम

विह्वल व्यथा अधीर है, अब चपेट दो तुम

ये व्याधि ही परिधीर है, अब झपेट लो तुम 

बस तेरी जटा में ही, बँध कर रहना है मुझे 

अपने उस एक लट को भी, लपेट लो तुम 


हाँ ! नहीं- नहीं, अब और बहा नहीं जाता है

हाँ ! विपदा में, अब और रहा नहीं जाता है

इस असह्य विरह को भी, सहा नहीं जाता है

तू बता, कि कैसे और क्या- क्या करूँ- कहूँ ?

वेग वेदना का, अब और महा नहीं जाता है 


कहो तो ! अश्रुओं से चरणों को पखारती रहूँ

क्षतविक्षत- सी लहूलुहान हो कर पुकारती रहूँ

कभी तो सुनोगे मेरी, मानकर मैं गुहारती रहूँ

मेरी वेदना बाँध लो अब अपनी जटा में मेरे शिव !

या दुख-दुखकर ही तुम्हें टेरनि से पुचकारती रहूँ ?


Sunday, November 6, 2022

मुग्ध उन्नत चेतना भी ..........

नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है

शत- शत लहरियों के संग कोई खो रहा है

गगन में जैसे निर्बंध बहती वायु डोलती है

मुग्ध उन्नत चेतना भी न जाने क्या बोलती है ?


प्राणों से प्रतिध्वनि सुन कोई ध्वनि खोजता है

प्रणयी पुदगल को कोई निर्वेद-सा सरोजता है 

जैसे उमगित अंग तट के पार कुछ उमड़ती है 

वैसे ही परितृप्त हृदय में भी तृष्णा घुमड़ती है


जैसे रतकूजित कलियाँ चटक कर महमहाती है

जैसे सृष्टि गर्भकेसरिया- सी और फैल जाती है

कण- कण अनगिन स्फुरणाओं से डगमगाता है

एक व्याप्ति- सी छाती है, वय सिमट जाता है 


उस तल पर कुछ और से भी और घट जाता है

तब तो वह अनकहा भी चुप कहाँ रह पाता है ?

सूक्ष्म अनुभूतियाँ किंचित ही स्वर पा जाती हैं 

और विकलता उस अभिव्यक्ति से छा जाती है ।


Wednesday, October 26, 2022

श्वासों की शुभ दीपावली ! ........

मैंने अपने 

अर्चित आवाहन से

उत्सर्जित विकिरण से 

रोमांचित अंत:करण में 

पूर्वसंचित पावन से 

अंचित जतन से 

तेरे लिए जलाया है

प्राणद दिया !


तब तो तुम मेरे

प्रतिम सुप्रभा से

अप्रतिम चंद्रभा से 

रक्तिम आभा में 

अकृत्रिम प्रतिभा से

अंतिम प्रतिप्रभा से 

प्रकाशित हो रहे हो मुझमें 

अणद पिया !


अब तो तुम मेरे 

सीम-असीम से परे 

संयोग-वियोग से परे

उद्दोत हो, सत्वजोत हो

और मैं तो सदा से ही 

अमस तमस हूँ

जो बस तेरे लिए ही है

क्षण, अक्षण, अनुक्षण 

उद्विग्न, उद्वेल्लित, उतावली !


हाँ ! मैं तो हूँ 

चिरकमनीय, रमनीय, अनुगमनीय

सघन काली थ्यावस अमावस

और तुम हो मेरे

सनातन त्यौहार

ओ ! मेरे अन्धकार के प्रकाश

तुम ही तो हो मेरे 

आत्यंतिक, ऐकांतिक, शाश्वतिक 

श्वासों की शुभ दीपावली ।

                                  

                                    सृष्टि को जीवंत और चलायमान रखने वाली समस्त शक्तियों, पराशक्तियों की अनन्य उपासना ही तो उत्सव है। जो अनन्त सत्य, अनन्त चित्, अनन्त आनन्द से सतत् जराजीर्ण होते हुए तन-मन को उमंग और उत्साह से उन्नत करता है। साथ ही घनीभूत जीजिविषा समयानुवर्ती जड़ीभूत उदासीनता को अपनी उष्णता से उद्गगत करती हुई नव पल्लवन करती है। जब ओंकार की भाँति हृदय में पियानाद हर क्षण गुँजायमान हो जाता है तो आत्मा का उत्सव होता है। जिसमें हर दिन होली और हर रात दीपावली होती है। इस आत्म-उत्सव के पिया रँग में रँगी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।


Sunday, May 15, 2022

मुझे किसने है पुकारा?........

अरे! ये किसकी गूँज है, मुझे किसने है पुकारा?

कि चेतना कुनकाने लगी है
स्मृतियाँ अकचकाने लगी है
विस्मृतियाँ चुरचुराने लगी है
नींद तो बड़ी गहरी है किन्तु
चिर स्वप्नों को ठुनकाने लगी है
कौन हाँक लगा मुझे है दुलारा?
ओह! ये किसकी हेरी है, मुझे किसने है पुकारा?

ये स्नेह स्वर कितना अनुरागी है
कि भीतर पूर नत् श्रद्धा जागी है
भ्रमासक्ति थी कि मन वित्तरागी है
औचक उचक हृदय थिरक उठा 
आह्लादित रोम-रोम अहोभागी है
कैसा अछूता छुअन ने है पुचकारा?
आह! ये किसकी टेर है, मुझे किसने है पुकारा?

कि फूट पड़े हैं सब बेसुध गान
कण-कण में भर अलौकिक तान
जो है अद्भुत, मनोहर, अभिराम
उस अनकही कृतज्ञता को कह
किलक कर झूम रहा है प्राण
किसके प्रेम ने मुझे है मुलकारा?
अहा! ये किसकी हँकार है, मुझे किसने है पुकारा?

अरे! ये किसकी गूँज है, मुझे किसने है पुकारा?

                     *** मेरे समस्त प्रेमियों की बारंबार
                       प्रेमिल पुकार के लिए हार्दिक आभार ***

Thursday, February 10, 2022

यक्ष प्रश्नोत्तर ! ......

यक्ष प्रश्न -

मैं क्या होना चाहूँगी अगले जन्म में ?

यक्ष प्रश्नोत्तर - मैं होना चाहूँगी.......

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में

जो मैं हूँ वही होना चाहूँगी - अमृता तन्मय !

अमृता तन्मय बस एक नाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक संबोधन भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिचय भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिणाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक पूर्णविराम भर ही नहीं है

ये वो है जो अमृता तन्मय की हर जानी-पहचानी

कोष्ठिका की इंगित से इतर है, अणुतर है, अनंतर है

ये आत्मोपस्थिति तो उसकी आत्मोत्सृष्टि के समानांतर है

अमृता तन्मय वो अस्तित्व है जो सन्दर्भ को सत्य से जोड़ती है

अमृता तन्मय वो चेतना है जो हर काल को झझकोरती है

अमृता तन्मय वो सौन्दर्य है जो शिवत्व की ओर मोड़ती है

अमृता तन्मय सृष्टि की अनहद ओंकार है

अमृता तन्मय स्वस्फुरण का मृदुल हुंकार है

मुझे हर जन्म में अमृता तन्मय ही अंगीकार है

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में ।

                                            

                                           अचानक से कोई अन्य अथवा अनन्य इस तरह का रोमांचक यक्ष प्रश्न कर बैठता है तो तत्क्षण स्वयं से समालाप होने लगता है। हमारा उत्सुक स्वभाव ही ऐसा है कि हम कई यक्ष प्रश्नों का काल्पनिक अथवा वास्तविक उत्तर एक-दूसरे से पाना चाहते हैं। उन उत्तरों में हम अन्य के अपेक्षा स्वयं को ही अधिक खोजते हैं। इस तरह की खोज हमें आत्म अन्वेषण से आत्म संतुष्टि तक ले जाती है। इसलिए यथोचित उत्तर चाहता हुआ हमारा मन भी कहीं भीतर गहरे में जाकर अपनी पड़ताल करने लगता है कि वह अपने इस होने से संतुष्ट/प्रसन्न है अथवा नहीं। जाना हुआ उत्तर या दिया गया उत्तर संतोषजनक हो अथवा नहीं हो परन्तु मौलिक/ नयेपन का अवश्य आभास देता है। जो सच में चिरन्तन के तनाव से परे हटाकर हमें नवजन्म के लिए रोमांचित करता है।

Thursday, January 27, 2022

शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम ! ........

शब्दों को मेरा प्रणाम !

उनके अर्थों को मेरा प्रणाम !


उनके भावों को मेरा प्रणाम !

उनके प्रभावों को मेरा प्रणाम !


उनके कथ्य को मेरा प्रणाम !

उनके शिल्प को मेरा प्रणाम !


उनके लक्षणों को मेरा प्रणाम !

उनके लक्ष्य को मेरा प्रणाम !


उनकी ध्वनि को मेरा प्रणाम !

उनके मौन को मेरा प्रणाम !


उनके गुणों को मेरा प्रणाम !

उनके रसों को मेरा प्रणाम !


उनके अलंकार को मेरा प्रणाम !

उनकी शोभा को मेरा प्रणाम !


उनकी रीति को मेरा प्रणाम !

उनकी वृत्ति को मेरा प्रणाम !


उनकी उपमा को मेरा प्रणाम !

उनके रूपक को मेरा प्रणाम !


उनके विधान को मेरा प्रणाम !

उनके संधान को मेरा प्रणाम !


शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !

उनको बारंबार मेरा प्रणाम !

                                      "ॐ शब्दाय नम:" शब्द ब्रह्म उस परम दशा का इंगित है जो निर्वचना है। हृदय काव्यसिक्त होकर ही उस ब्रह्म नाद में तन्मय होता है। तब "शब्द वाचक: प्रणव:" अर्थात शब्द उस परमेश्वर का वाचक होता है। उसी अहोभाव में हृदय प्रार्थना रत है और हर श्वास से ध्वनित हो रहा है- शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !


Sunday, January 16, 2022

स्नेह-शिशु ..........

                                       अविज्ञात, अविदित प्रसन्नता से प्रसवित स्नेह-शिशु हृदय के प्रांगण में किलकारी मारकर पुलकोत्कंपित हो रहा है। कभी वह निज आवृत्ति में घुटने टेक कर कुहनियों के बल, तो कभी अन्य भावावृत्तियों को पकड़-पकड़ कर चलना सीख रहा है। विभिन्न भावों से अठखेलियाँ करते हुए, गिरते-पड़ते, सम्भलते-उठते, स्वयं ही लगी चोटों-खरोंचों को बहलाते-सहलाते हुए, वह बलक कर बलवन्त हो रहा है। कभी वह हथेलियों पर ठोड़ी रख कर, किसी उपकल्पित उपद्रव के लिए, शांत-गंभीर होकर निरंकुश उदंडता का योजना बना रहा है। तो कभी अप्रत्याशित रूप से उदासी को, मृदु किन्तु कम्पित हाथों से गुदगुदा कर चौंका रहा है। कभी वह अपने छोटे-छोटे, मनमोही घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट से, पीड़ित हृदय के बोझिल वातावरण को, मधुर मनोलीला से मुग्ध कर रहा है । तो कभी इधर-उधर भाग-भाग कर, समस्त नैराश्य-जगत् को ही, अपने नटराज होने की नटखट नीति बता रहा है। 

                     स्नेह-शिशु कभी निश्छल कौतुकों से ठिठक कर, इस भर्राये कंठ में जमे सारे अवसाद को पिघलाने के लिए, प्रायोजित उपक्रम कर रहा है। तो कभी वह ओठों के स्वरहीन गति को, निर्बंध गीतों में तोतलाना सिखा रहा है। वह येन-केन-प्रकारेण हृदय को, अपने अनुरागी स्नेह-बूँदों की आर्द्रता देकर, नव रोमांच से अभिसिंचित करना चाह रहा है। उसके नन्हें-नन्हें हाथों का घेराव, उसका यह कोमल आग्रह बड़ी प्रगाढ़ता से, मनोद्वेगों को समेट रहा है। फिर आगे बढ़ कर उसे आगत-विगत के समस्त व्यथित-विचारों से, विलग कर अपने निकट खींच रहा है। संभवतः उसका यह भरपूर लेकिन गहरा स्पर्श, उस अर्थ तक पहुँचने का यत्न है, जो स्वयं ही अवगत होता है। जिसे नैराश्य-जगत् का झेंप और उकताहट, मुँह फेर कर अवहेलना कर रहा है। पर स्नेह-शिशु की प्रत्येक भग्नक्रमित भंगिमाएँ उसे भी सायास मुस्कान से भर रहा है। तब तो उदासी भी अपलक-सी, अवाक् होकर उसका मुँह ताक रही है। जिससे उसपर पड़ी हुई व्यथा की, चिन्ता की काली छाया, विस्मृति के अतल गर्त में उतरने लगी है। 

                             स्नेह-शिशु अयाचित-सा एक निर्दोष अँगराई लेते हुए, विस्तीर्ण आकाश को, बाँहों से फैला रहा है। वह मनोविनोदी होकर, छुपा-छुपाई खेलना चाह रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी दु:ख के पीछे, कभी संताप के पीछे छुप रहा है। तो कभी चुपके-से वह व्यथा का, तो कभी हताशा का आड़ ले रहा है। उसे पता है कि वह कितना भी छुपे, पर अब कहीं भी छुप नहीं सकता। फिर भी वह घोर निराशा के पीछे, स्वयं को छुपाने का अनथक प्रयास कर रहा है। पर उसका यह असफल प्रयास, हृदय को अंगन्यास-सा आमोदित कर रहा है। जिसे देखकर वह भी अपने स्वर्ण-दंत-पंक्तियों को निपोड़ते हुए, प्रमोद से खिलखिला रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी इधर से तो कभी उधर से, अपने सुन्दर-सलोने मुखड़े को आड़ा-तिरछा करके, उदासी को चिढ़ा रहा है। तो कभी प्रेम-हठ से उसका हाथ पकड़े, चारों ओर चकरघिन्नी की तरह घुमा रहा है। उदासी अपने घुमते सिर को पकड़कर, उसे कोमल किन्तु कृत्रिम क्रोध से देख रही है।

                    स्नेह-शिशु को यूँ ही उचटती दृष्टि से देखते हुए भी चाहना के विपरीत, बस एक अवश भाव से मन बँधा जा रहा है। वह भाव जो प्रसन्नता के भी पार जाना चाहता है। वह भाव जो उसके प्रेम में पड़कर उसी के गालों को, पलकों को, माथे को बंधरहित होकर चूमना चाह रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे वह भी प्रतिचुम्बन में उदासी के आँखों को, कपोलों को,  ग्रीवा को, कर्णमूल को, ओठों को एक अलक्षित चुम्बन से चूम रहा हो। जिससे अबतक हृदय में जमा हुआ सारा अवसाद द्रवित होकर द्रुत वेग से बहना चाह रहा है। फिर तो उसकी उँगलियाँ भी उदासी के माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श में खेलने लगी हैं। ऐसा अविश्वसनीय इन्द्रजाल! ऐसा संपृक्त सम्मोहन! ऐसा आलंबित आलोड़न! जिससे हृदय एक मीठी अवशता से अवलिप्त होकर सारे नकारात्मक भावों को यथोचित सत्कार के साथ विदा करना चाह रहा है। 

                                                 स्नेह-शिशु के लिए एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य-भरा स्पर्श से उफनता हुआ हृदय स्वयं को रोक नहीं पा रहा है। उसकी सम, कोमल थपकियों से, कभी बड़ी-बड़ी सिसकियों से अवरूद्ध हुआ स्वर, पुनः एकस्वर में लयबद्ध हो रहा है। फिर कानों में जीजिविषा की एक अदम्य फुसफुसाहट भी तो हो रही है। फिर से इन आँखों को भी सत्य-सौंदर्य की दामिनी-सी ही सही कुछ झलकियाँ दिख रही है। उदास विचार मन से असम्बद्ध-सा उसाँस लेकर क्षीणतर होने लगा है। अरे! ये क्या ? स्नेह-शिशु के पैरों का थाप चारों ओर तीव्र-से-तीव्रतर होता जा रहा है। मानो स्नेह-शिशु का इसतरह से ध्यानाकर्षण, सहसा स्मृति के बाढ़ को ही इस क्षण के बाँध से रोक दिया हो।

                                     स्नेह-शिशु के इस जीवन से भरपूर, ऐसा प्रगाढ़ चुम्बन और आलिंगन में हृदय हो तो किसी भी अवांछित उद्वेग को, मन मारकर, दबे पाँव ही सही अपने मूल में लौटना ही पड़ेगा। तब चिरकालिक शीत-प्रकोपित अलसाये उमंगों को भी मुक्त भाव से मन में फूटना ही पड़ेगा। मृत-गत विचारों के बाहु-लता की जकड़ को ढीली करके, आकाश के विस्तार में फिर से हृदय को ऊँची छलांग लगाना ही होगा। कोई भी टूटा स्वर ही क्यों न हो सही पर,जीवन-गीत को नित नए सुर से गाना ही होगा। साथ ही जीवन के सरल सूत्रों के सत्य से, आंतरिक सहजता को आदी होना ही होगा। जब क्षण-क्षण परिवर्तित होते भाव-जगत् में भी भावों का आना-जाना होता ही रहता है तो ये उदासी किसलिए ? स्नेह-शिशु भी तो यही कह रहा है कि जब कोई भी भाव स्थाई नहीं है तो उसे पकड़ कर रखना व्यर्थ है और आगे की ओर केवल सस्नेह बढ़ते रहने में ही जीवन का जीवितव्य अर्थ है। 

Tuesday, September 14, 2021

लेखनी चलती रहनी चाहिए .......

                 हिन्द दिवस पर हार्दिक प्रसन्नता के साथ ये स्वीकार करते हुए आत्मगौरव की अनुभूति हो रही है कि जब-जब स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहा तब-तब अपनी भाषा के चाक पर गीली मिट्टी की भांति पड़ गई । जैसा स्वयं को गढ़ना चाहा वैसे ही गढ़ गई । हाँ !  मेरी भाषा ने ही मुझे हर एक भाव में व्यक्त कर मुझे आत्मभार से मुक्त किया है । हर बार निर्भार करते हुए हिन्दी ने मुझे ऐसा अद्भुत, अनोखा और अद्वितीय रूप में सँवारा है कि बस कृतज्ञता से नतमस्तक ही हुआ जा सकता है । आज अपनी भाषा के बल पर ही अपनी स्वतंत्रता की ऐसी उद्घोषणा कर सकती हूँ । जिसकी अनुगूँज में हमारी हिन्दी हमेशा गूँजती रहेगी । जिसका खाना-पीना, ओढ़ना-बिछौना हिन्दी ही हो तो उसे बस हिन्दी में जीना भाता है । फिर कुछ और सूझता भी नहीं है । वैसे हिन्दी की दशा-दिशा पर चिंतन-मनन करने वाले हर काल में करते रहेंगे पर जिन्होंने हिन्दी को अपना सर्वस्व दे दिया उनको हिन्दी ने भी चक्रवृद्धि ब्याज समेत बहुत कुछ दिया है । इसलिए हमारी मातृभाषा हिन्दी को बारंबार आभार व्यक्त करते हुए .........

अनुज्ञात क्षणों में स्वयं लेखनी ने कहा है कि -
लेखनी चलती रहनी चाहिए 
चाहे ऊँगलियां किसी की भी हो 
अथवा कैसी भी हो
  
चाहे व्यष्टिगत हो 
अथवा समष्टिगत हो 
चाहे एकल हो 
अथवा सम्यक् हो 
 
चाहे अर्थगत हो 
अथवा अर्थकर हो 
चाहे विषयरत हो 
अथवा विषयविरत हो 
 
चाहे स्वांत: सुखाय हो
अथवा पर हिताय हो
चाहे क्षणजीवी हो
अथवा दीर्घजीवी हो
 
चाहे मौलिक हो
अथवा प्रतिकृति हो
चाहे स्वस्फूर्त हो
अथवा पर प्रेरित हो
 
चाहे मंदगति हो
अथवा द्रुतगति हो
चरैवेति चरैवेति
लेखनी चलती रहनी चाहिए
 
इन ऊँगलियों से न सही
पर उन ऊँगलियों से ही सही
लेखनी चलती रहनी चाहिए 
सतत् लेखनी चलती रहनी चाहिए .

*** हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ***
 

Sunday, September 5, 2021

जब माँ किलक कर कहती है ...........

जब माँ 

अपनी बेटी से

किलक कर

कहती है कि

अरे !

तू तो 

मेरी ही माँ

हो गई है

तब गदराये गाल

और झुर्रियों की

अलोकिक दपदपाहट

ऊर्जस्वित होकर

सृष्टि और सृजन को

हतप्रभ करते हुए

परम सौभाग्य से

भर देती है.


                                   साधारणतया जो गर्भ धारण कर बच्चे को जन्म देती है वो माँ कहलाती है । माँ अर्थात सृष्टि सर्जना जिसकी सर्वश्रेष्ठता अद्भुत और अतुलनीय होती है । इसलिए मातृत्व शक्ति प्रकृति के नियमों से भी परे होती है जो असंभव को संभव कर सकती है । एक माँ ही है जो आजीवन स्वयं को बच्चों के अस्तित्व में समाहित कर देती है । जो बिना कहे बच्चों को सुनती है, समझती है और पूर्णता भी प्रदान करती है । पर क्या बच्चें अपनी माँ के लिए ऐसा कर पाते हैं ?  क्या बच्चें कभी समझ पाते हैं कि उनकी माँ भी किसी की बच्ची है ? भले ही माँ की माँ शरीरी हो या न हो । पर क्या बच्चें कभी जान पाते हैं कि उनके तरह ही माँ को भी अपनी माँ की उतनी ही आवश्यकता होती होगी ? 

                                   सत्य तो यह है कि माँ का अतिशय महिमा मंडन कर केवल धात्री एवं दात्री के रूप में स्थापित कर दिया गया है । जिसे सुन-सुनकर बच्चों के अवचेतन मन में भी यही बात गहराई से बैठ जाती है । जिससे वे माँ को पूजित पाषाण तो समझने लगते हैं पर वो प्रेम नहीं कर पाते हैं जिसकी आवश्यकता माँ को भी होती है । जबकि वही बच्चें अपने बच्चों को वैसे ही प्रेम करते हैं जैसे उनके माता-पिता उन्हें करते हैं । पुनः उनके बच्चें भी उनको उसी रूप में प्रेम करते हैं तब बात समझ में आती है कि कमी कहाँ है ।

                                 अपने माता-पिता को अपने बच्चों की तरह न सही पर दत्तक की तरह ही प्रेम कर के देखें तो पता चलेगा कि प्रेम का एक रूप यह भी है । जैसे अपने बच्चों को प्रेम करते हुए बिना कुछ कहे ही सुनते-समझते हैं वैसे ही अपने माता-पिता को भी सुनने-समझने का प्रयास कर के तो देखें तो सच में पता चलेगा कि प्रेम का वर्तुल कैसे पूर्ण होता है । सत्यत: प्रेम की आवश्यकता सबों को होती है और अंततः हमारा होना प्रेम होना ही तो है ।


मैंने माँ को 

बच्ची की तरह

कई बार किलकते देखा है

हर छोटी-बड़ी बातों में

खुश हो-होकर

बार-बार चिलकते देखा है

हाँ ! ये परम सौभाग्य

मेरे भाग्य का ही तो 

अकथनीय लेखा है

जो मैंने माँ को भी

सहज-सरल बाल-भाव में

मुझे अनायास ही

माँ कहते हुए देखा है .         

                      *** परम पूज्य एवं परम श्रद्धेय ***

      *** समस्त प्रथम अकाल गुरु (माता-पिता) को समर्पित ***

                   *** हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आभार ***           

Saturday, August 21, 2021

गृह लक्ष्मियाँ ..........

सँझाबाती के लिए
गोधुलि बेला में
जब गृह लक्ष्मियाँ
दीप बारतीं हैं
कर्पूर जलातीं हैं
अगरू महकातीं हैं
अपने इष्ट को
मनवांछित
भोग लगातीं हैं
और आचमन करवातीं हैं
तब टुन-टुन घंटियाँ बजा कर
इष्ट के साथ सबके लिए
सुख-समृद्धि को बुलातीं हैं

ये गृह लक्ष्मियाँ
प्रेम की प्रतिमूर्तियाँ
छुन-छुन घुंघरियाँ बजाते हुए
खन-खन चूड़ियाँ खनका कर
सिर पर आँचल ऐसे सँभालतीं हैं
जैसे केवल वही सृष्टि की निर्वाहिका हों
और अहोभाव से झुक-झुक कर
प्रेम प्रज्वलित करके
घर के कोने-कोने को छूतीं हुई
अपने अलौकिक उजाले से 
आँगन से देहरी तक को
आलोकित कर देतीं हैं
जिसे देखकर सँझा भी
अपने इस पवित्रतम
व सुन्दर स्वागत पर
वारी-वारी जाती है

तब गृह लक्ष्मियाँ
हमारी सुधर्मियाँ
तुलसी चौरा का 
भावातीत भाव से
परिक्रमा करते हुए
दसों दिशाओं में ऐसे घुम जातीं हैं
जैसे जगत उनके ही घेरे में हो
और सबके कल्याण के लिए
मन-ही-मन मंतर बुदबुदा कर
ओंठों को अनायास ही 
मध्यम-मध्यम फड़का कर
कण-कण को अभिमंत्रित करते हुए 
बारंबार शीश नवातीं हैं
फिर दोनों करों को जोड़ कर
सबके जाने-अनजाने भूलों के लिए
सहजता से कान पकड़-पकड़ कर
सामूहिक क्षमा प्रार्थना करते हुए
संपूर्ण अस्तित्व से समर्पित हो जातीं हैं
 
हमारी गृह लक्ष्मियाँ
दया की दिव्यधर्मियाँ
करूणा की ऊर्मियाँ
सदैव सुकर्मियाँ
सिद्धलक्ष्मियाँ
नित सँझा को
पहले आँचल भर-भरकर
फिर उसे श्रद्धा से उलीच-उलीच कर
मानो धरा को ही चिर आयु का
आशीष देती रहतीं हैं .

Friday, July 23, 2021

गुरुक्रम हो तुम .......

पहले प्यास हुए
अब तृप्ति की आवृत्ति हो तुम
मेरी प्रकृति की पुनरावृत्ति हो तुम

पहले उद्वेग हुए
अब आसक्ति के आवेग हो तुम
मेरी अभिसक्ति के प्रत्यावेग हो तुम

पहले आकर्ष हुए
अब भक्ति के अनुकर्ष हो तुम
मेरी आकृति के उत्कर्ष हो तुम

पहले श्रमसाध्य हुए
अब आप्ति के साध्य हो तुम
मेरी प्रवृत्ति के अराध्य हो तुम

पहले साकार हुए
अब अनुरक्ति के आकार हो तुम
मेरी अतिश्योक्ति के अत्याकार हो तुम

पहले अलंकार हुए
अब अभिव्यक्ति के शब्दालंकार हो तुम
मेरी गर्वोक्ति के अर्थालंकार हो तुम

पहले भ्रम हुए
अब जुक्ति के उद्भ्रम हो तुम
मेरी मुक्ति के गुरुक्रम हो तुम .

*** गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ ***
*** हार्दिक आभार समस्त गुणी जनों को ***

Sunday, July 11, 2021

प्रसन्न हूँ तो.........

प्रसन्न हूँ तो पानी हूँ

अप्रसन्न हूँ तो पहाड़ हूँ


पकड़ लो तो किनारा हूँ

छोड़ दो तो मँझधार हूँ


संग बहो तो धारा हूँ

रूक गये तो कछार हूँ


सम्मुख हो तो दर्पण हूँ

विमुख हो तो अँधार हूँ


चुप रहो तो मौन हूँ

बोलो तो विचार हूँ


फूल हो तो कोमल हूँ

शूल हो तो प्रहार हूँ


छाया हो तो व्यवधान हूँ

मौलिक हो तो आधार हूँ


संशय हो तो दुविधा हूँ

श्रद्धा हो तो उद्धार हूँ


झूठ हो तो विभ्रम हूँ

सच हो तो ओंकार हूँ .


 " दारिद्र्यदु: खभयहारिणि का त्वदन्या 

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता । "

*** गुप्त नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

Sunday, January 24, 2021

पर काल से परे हो ......

जो तुम्हें रचे

कहो तो भी बचे

जो बचे उसे रचो

रचो तो मत बचो

स्वयं संकल्प हो

विपुल विकल्प हो

अनंत उद्गार हो

अनुभूति की टंकार हो

सबकी कसौटी पर खरी हो

सापेक्ष सत्य पर अड़ी हो

शब्द छोटे हो 

अर्थ बड़े हो

काल की बात हो

पर काल से परे हो .


Monday, October 19, 2020

शब्दों के घास , फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ .....

कुछ लिखने का मन होता है तो
कुछ भी लिख देती हूँ
हाँ ! मैं शब्दों के घास, फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ
यदि चातक आकर खुशी-खुशी चर ले तो
खूब लहालोट होकर लहलहाती हूँ
न चरे तो भी अपने आप में ही हलराती हूँ
अपना बीज है, अपना खाद है
न राजस्व चुकाना है, न ही कर देना है
बदले में बस भूरि-भूरि प्रशंसा लेना है
ख्याति, कीर्ति का क्या कहना
सिरजते ही चारों ओर से बरस पड़ती है
जिसे देख कर यह परती भी सोना उगलती है
न संचारण , संप्रेषण की कोई चिन्ता
न ही प्रकाशक, संपादक की तनिक भी फिकर
हाँ ! कुछ कम नहीं है हमारी लेखनी महारानी जी की अकड़
विनम्रता कहती है-अर्थ अर्जित करना है जिन्हें
वे अत्याधुनिक मिश्रित खेती को अपनाये
पर हमें तो हृदय से बस विशुद्ध खेती ही भाये .

Monday, October 12, 2020

मेरी कविताएँ अपरंपार ......

तुम कहते हो कि

मेरी कविताएंँ

तुम्हारे लिए

प्यार भरा बुलावा है

शब्दों के व्यूह में फँसकर

तुम स्वयं को

पूरी तरह भूल जाते हो

कुछ ऐसा ही

सम्मोहक भुलावा है


मेरे शब्दों से बंध कर

तुम खींचे चले आते हो

और तपती दुपहरिया में

तनिक छाया पाते हो

पर कैसे ले जाएंँगी

तुम्हीं को तुमसे पार

मेरी कविताएंँ

अपरंपार


औपचारिक परिचय भर से ही

शब्द अर्थ नहीं हो जाते

और आरोपित अर्थों से

शब्द अनर्थ होकर

व्यर्थ हो जाते


शब्दों से शब्दों तक

जितनी पहुंँच है तुम्हारी

केवल वहीं तक 

तुम पहुंँच पाओगे

शब्दों के खोल से

जो भी अर्थ निकले

अपने अर्थ को ही पाओगे


मेरे शब्दों के सहारे

घड़ी भर के लिए ही सही

तुम अपने ही अर्थ को पाओ तो

कुछ-ना-कुछ 

घटते-घटते घट जाएगी

मेरी कविताएँ

तुम्हारी ही प्रतिसंवेदना है

तुम्हारे अर्थों से भी

इस छोर से उस छोर तक

बँटते-बँटते बँट जाएगी .

Wednesday, April 4, 2018

जो थोड़ा- सा .........

जो थोड़ा- सा
संसार का एक छोटा- सा कोना
मैंने घेर रखा है
वहाँ मेरे बीजों से
नित नये सपने प्रसूत होते हैं
मेरी कलियों में
नव साहस अंकुरित होता है
तब तो मेरा फूल
पल प्रति पल खिलता रहता है .......

जो थोड़ी- सी
मेरी सुगंध है , वो उड़ती रहती है
जो थोड़ा- सा
मेरा रंग है , वो बिखरता रहता है
जो थोड़ा- सा
मेरा रूप है , वो निखरता रहता है
तो और बीजों को भी
थोड़ी- सी स्मृति आती है
और उनकी कलियाँ
उत्सुक हो साहस जुटाती हैं
और फूल भी पंखुड़ियों को
थोड़ा और , थोड़ा और फैलाते हैं
जो थोड़ा- सा
मेरा संसार है , उसमें
कितने ही फूल खिल जाते हैं .......


बाँध हृदय का तोड़ कर
बह चलती है एक प्रेमधारा
और जल भरे सब मेघ काले
मुझ पर झुक- झुक कर
पाते हैं सहर्ष सहारा
थोड़े चाँद- तारे भी
खिल- खिल जाते हैं
थोड़ा धरा- अंबर भी
भींग- भींग जाते हैं
जो थोड़ा- सा
मेरा संसार है , उसमें
सुख की वर्षा होती है .......

जो थोड़ा- सा
संसार का एक छोटा- सा कोना
मैंने घेर रखा है
वहाँ मैं ही अंतः रस हूँ
और मैं ही हूँ अंतः सलिला
मैं जो स्वयं को सुख से मिली
तो सब सुख सध कर स्वयं ही मिला
तब तो
मेरे फूल के संक्रमण से
और फूल भी
स्वतः सहज ही है खिला .

Tuesday, August 15, 2017

शाश्वत झूठ ........

हर पल
मैं अपने गर्भ में ही
अपने अजन्मे कृष्ण की
करती रहती हूँ
भ्रूण - हत्या
तब तो
सदियों - सदियों से
सजा हुआ है
मेरा कुरुक्षेत्र
हजारों - हजारों युद्ध - पंक्तियाँ
आपस में बँधी खड़ी हैं
लाखों - लाख संघर्ष
चलता ही जा रहा है
और मेरा
हिंसक अर्जुन
बिना हिचक के ही
करता जा रहा है
हत्या पर हत्या
क्योंकि
वह चाहता है
शवों के ऊपर रखे
सारे राज सिंहासनों पर
अपने गांडिव को सजाना
और महाभारत को ही
महागीता बनाना
इसलिए
वह कभी
थकता नहीं है
रुकता नहीं है
हारता नहीं है
पर उसकी जीत के लिए
मेरे अजन्मे कृष्ण को
हर पल मरना पड़ता है
मेरे ही गर्भ में .......
मैं अपने इस
शाश्वत झूठ को
बड़ी सच्चाई से सबको
बताती रहती हूँ
कि मेरा कृष्ण
कभी जनमता ही नहीं है
और मैं
झूठी प्रसव - पीड़ा लिए
प्रतिपल यूँ ही
छटपटाती रहती हूँ
कि मेरा कृष्ण
कभी जनमता ही नहीं है .

Thursday, August 3, 2017

सच्चाई .........

मेरी अंतरात्मा की आवाज में
बहुत - बहुत रूप हैं , बड़े - बड़े भेद हैं
और जो - जो कान उसे सुन पाते हैं
बेशक , उनमें भी बहुत बड़े - बड़े छेद हैं

मेरी अंतरात्मा की आवाज में
बड़ी - बड़ी समानताएं हैं , बड़ी - बड़ी विपरितताएं हैं
और इनके बीच मजे ले - लेकर झूलती हुई
सुनने वालों की अपनी - अपनी चिंताएँ हैं

मेरी अंतरात्मा की आवाज में
बड़े - बड़े संवाद हैं , बड़े - बड़े विवाद हैं
जिसमें कुछ कहकर तो कुछ चुप - सी
वही ओल - झोल वाली फरियाद है

मेरी अंतरात्मा की आवाज से
खुल - खुल कर पलटी मारती हुई
एक - सी ही जानी - पहचानी परिभाषा है
उसकी हाज़िर - जवाबी का क्या कहना ?
वह पल में तोला तो पल में ही माशा है

मेरी अंतरात्मा की आवाज में
सामयिक सिधाई है , दार्शनिक ढिठाई है
उसकी ओखली में , जो - जो बीत जाता है
उसी की रह - रह कर ,  कुटाई पर कुटाई है

मेरी अंतरात्मा की आवाज में
एक - सा ही छलावा है , एक - सा ही (अ) पछतावा है
उसकी गलती मानने के हजार बहानों में भी
एक - सा ही ढल - मल दावा है

मेरी अंतरात्मा की आवाज
अपने - आप में ही इतनी है लवलीन
तब तो अन्य आत्माओं की आवाज को
लपलपा कर लेती है छीन

अतः हे मेरी अंतरात्मा की आवाज !
जबतक तुम संपूर्ण ललित - कलाओं से लबालब न हुई तो
तुम्हारी कोई भी ललकित आवाज , आवाज नहीं होगी
और तुम में लसलसाती हुई सच्चाई नहीं हुई तो
तुमसे गिरती हुई कोई ग़रज़ी गाज , गाज नहीं होगी .

Friday, July 21, 2017

प्रासंगिकता ......

सूक्ष्म से
सूक्ष्मतर कसौटी पर
जीवन दृष्टि को
ऐसे कसना
जैसे
अपने विष से
अपने को डसना ....
गहराई की
गहराई में भी
ऐसे उतरना
जैसे
अपनी केंचुली को
अपनापा से कुतरना .....
महत्वप्रियता
सफलता
लोकप्रियता
अमरता आदि को
रेंग कर
ऐसे
आगे बढ़ जाना
जैसे
जीवन - मूल्यों की
महत्ता को
प्रेरणा स्वरूप पाना .....
जैसी होती है
कवित्त - शक्ति
वैसी ही
होती है
अंतःशून्यता की
भाषिक अभिव्यक्ति .....
जब
प्रश्न उठता है
कि प्रासंगिक कौन ?
तब
कवि तो
होता है मौन
पर कविता तो
हो जाती है
सार्वजनिक
सार्वकालिक
सार्वभौम .

Sunday, January 22, 2017

रस तो ...........

जानती हूँ , इस प्राप्त वृहद युग में
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?

विराट वसंत है , विस्तीर्ण आकाश है
चारों ओर मलयज- सा मधुमास है
पर सीपी से स्वाति ही जैसे रूठ गई है
औ' आर्त विलाप से ही वीणा टूट गई है

सुमन- वृष्टि है , विस्मित- सी सृष्टि है
पर भविष्योन्मुख ही सधी ये दृष्टि है
आँखें मूंदे- मूंदे हर क्षण बीत जाता है
औ' स्वप्न जीवन से जैसे जीत जाता है

विद्रुप हँसी हँस लहलहाती है ये लघुता
कभी तो किसी कृपाण से कटे ये कृपणता
विकृत विधान है , असहाय स्वीकार है
छोटा- सा जीवन जैसे बहुत बड़ा भार है

बस व्यथा है , वेदना है , दुःख है , पीड़ा है
भ्रम है , भूल है , पछतावा है , पुनरावृत्ति है
स्खलन है , कुढ़न है , अटकाव है , दुराव है
अतिक्रामक निर्लज्जता से निरुपाय कृति है

मानती हूँ , इस प्राप्त वृहद युग में
कैसे बहुत छोटा- सा जीवन जीती हूँ
रस तो अक्ष है, अद्भुत है , अनंत है
पर अंजुरी भर भी कहाँ पीती हूँ ?