नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है
शत- शत लहरियों के संग कोई खो रहा है
गगन में जैसे निर्बंध बहती वायु डोलती है
मुग्ध उन्नत चेतना भी न जाने क्या बोलती है ?
प्राणों से प्रतिध्वनि सुन कोई ध्वनि खोजता है
प्रणयी पुदगल को कोई निर्वेद-सा सरोजता है
जैसे उमगित अंग तट के पार कुछ उमड़ती है
वैसे ही परितृप्त हृदय में भी तृष्णा घुमड़ती है
जैसे रतकूजित कलियाँ चटक कर महमहाती है
जैसे सृष्टि गर्भकेसरिया- सी और फैल जाती है
कण- कण अनगिन स्फुरणाओं से डगमगाता है
एक व्याप्ति- सी छाती है, वय सिमट जाता है
उस तल पर कुछ और से भी और घट जाता है
तब तो वह अनकहा भी चुप कहाँ रह पाता है ?
सूक्ष्म अनुभूतियाँ किंचित ही स्वर पा जाती हैं
और विकलता उस अभिव्यक्ति से छा जाती है ।
एक व्याप्ति सी छाती है, वय मिट जाता है,,,,,,,,,,,,वाह!!
ReplyDeleteअभव्यक्ति से विकलता का छाना
ReplyDeleteतीर जैसे हृदयपटल पर चुभ जाना
अनकहा नहीं रहता फिर कुछ भी
सब जैसे सबके सम्मुख आ जाना ।
चेतना भी कब अपनेआप डोली है
प्रयास से जैसे हवा का झोंका आया है
अनुभवों की थाती को अनुराग से बस
मन के घेरों को ज़रा सा हटाया है ।
बस यूँ ही पढ़ते पढ़ते कुछ भी लिखा गया । जितनी बार पढ़ी ये रचना एक नया अर्थ दे रही है । गहन अभव्यक्ति ।
लाजवाब
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०७-११-२०२२ ) को 'नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है'(चर्चा अंक-४६०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteपरितृप्त हृदय में भी तृष्णा घुमड़ती है !! वाह ! और यही तृष्णा तो विकलता को जन्म देती है, जैसे नदी मिली सागर से फिर वाष्प बनी और फिर बरसी बादल बनकर नदिया में, चली सागर से मिलने, यही क्रम न जाने कब से चल रहा है
ReplyDeleteअनुपम सृजन अभिनंदन आदरणीया ।
ReplyDeleteवाह आनंद आ गया...प्राणों से प्रतिध्वनि सुन कोई ध्वनि खोजता है
ReplyDeleteप्रणयी पुदगल को कोई निर्वेद-सा सरोजता है
जैसे उमगित अंग तट के पार कुछ उमड़ती है
वैसे ही परितृप्त हृदय में भी तृष्णा घुमड़ती है...अमृता जी, बहुत ही शानदार ...
बेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteगहन भावों की अप्रतिम अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteदेव दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ अमृता जी ! सादर सस्नेह वन्दे !
Deleteलाजवाब
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