सब ऋतुओं से गुजर कर
तुम ऐसे मेरे करीब आना
कि अपने मन के पके सारे
धूप-छाँव को मुझे दे जाना
कुछ भार तुम्हारा जाए उतर
कुछ तो हलका तुम हो जाओ
और मेरे उर के मधुबन में
अमृत घन बनकर खो जाओ
इस चितवन पथ से आकर
पीछे का कोई राह न रखना
रचे स्वप्न का सुख यहीं है
आगे की कोई चाह न रखना
अक्षम प्रेम का तो आभास यही
आओ!अति यत्न से संचित करे
जीवन- स्वर के पाँव को हम
नुपुर बन कर ऐसे गुंजित करे
पदचाप पुलककर नृत्य बन जाए
रुनक- झुनक कर रोम- रोम में
देखो! है कैसे नटराज उजागर
अपने इस धरा से उस व्योम में
हरएक अविराम गति उमंग की
उससे छिटक-छिटक कर आती है
तरंग- तरंग में तिर- तिर कर
बस उसी रंग में रंग जाती है
कौन यहाँ मिलनातुर नहीं है ?
सुनो! पूछता है यही प्रतिक्षण
फिर मैं उत्कंठिता,तुझे क्यों न बुलाऊं ?
उत्प्रेरित जो है ये उर्मिल आलिंगन .