अर्थ है
तब तो अनर्थ है
जिसपर
व्याख्याओं की परतें हैं
और उन परतों की
कितनी ही व्याख्याएं हैं ...
कहीं शून्य डिग्री पर
उबलता-खौलता पानी है
तो कहीं बर्फ की जिद है
सौ डिग्री पर ही जमें रहने की ...
उँगलियों की सहनशीलता
गेस-पेपर को फाड़ कर
चिट-पुर्जियां बना रही है
तो कहीं बचा-खुचा सच
समझौतावादियों से
सांठ-गांठ में है
जहां वाद-प्रतिवाद
सुरक्षाकर्मी बने हैं ...
और तो और
सभी रडार से ही फ्यूज को
निकाल दिया गया है
उसी की टोह में
मिसाइल-ड्रोन भी हैं ...
खुला समझौता के तहत
खुले हाथों पर
कर्फ्यू लगा दिया गया है
और आत्मसमर्पण करके अर्थ
मुट्ठियों में बंद होकर
कुछ ज्यादा ही सुरक्षित हैं ...
तब तो
प्रतिबंधित नारों की
बंद कमरे में ही
सुनवाई चल रही है .
बर्फ की जिद के आगे आत्मसमर्पण करते अर्थ..खुले हाथों पर लगे कर्फ्यू --मानना पड़ेगा कि कितने द्वन्द और उलझन को झेलते हुए इस उम्दा पोस्ट का जन्म हुआ होगा .....और क्या कहें ??
ReplyDeleteबंद कमरे में "सुनवाई" होती है और गोर से "बहिश्त" का रास्ता छोटा हो जाता है. हमआवाज़ जो ना हो, शायद बंद कमरों में ही ठीक से सुने जा पाते हैं. उद्वेलित ह्रदय की जोरदार आवाज़. हर बार की तरह , बहुत अच्छी कृति.
ReplyDeleteऔर यूँ सुनवाई चलती रहेगी .... निष्कर्ष कुछ नहीं निकलेगा ... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteउम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
मंगलवार 02/04/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं .... !!
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .... !!
धन्यवाद .... !!
बढ़िया है आदरेया- -
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको-
ये सुनवाई तो हर युग में होती रही है ... ओर सब कुछ चलता भी रहता है ... जिद्द भी अपनी जगह कायम रहती है ...
ReplyDeleteप्रतिबंधित नारों की
ReplyDeleteबंद कमरे में ही
सुनवाई चल रही है .............नतमस्तक हूँ ।
तब तो
ReplyDeleteप्रतिबंधित नारों की
बंद कमरे में ही
सुनवाई चल रही है .
ऐसा ही होता आया है
खुला समझौता के तहत
ReplyDeleteखुले हाथों पर
कर्फ्यू लगा दिया गया है
और आत्मसमर्पण करके अर्थ
मुट्ठियों में बंद होकर
कुछ ज्यादा ही सुरक्षित हैं...!
अब इससे ज्यादा और क्या चाहिए...
सब कुछ यहीं तो है...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteKAVYA SUDHA (काव्य सुधा)
प्रतिबंधित नारों की
ReplyDeleteबंद कमरे में ही
सुनवाई चल रही है ... और चलती रहेगी ... बर्फ सी जिद,अर्थ का अनर्थ करती रहेंगी
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (06-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
कहीं शून्य डिग्री पर
ReplyDeleteउबलता-खौलता पानी है
तो कहीं बर्फ की जिद है
सौ डिग्री पर ही जमें रहने की ...
गहन भाव
बेहतरीन !
सुंदर अभिव्यक्ति अमृताजी
ReplyDeleteसाभार ..........
बन्द कमरे की सुनवाई बड़ी ही पीड़ादायक होती है, हम सबके लिये।
ReplyDeleteव्याख्या की नयी परतें खोलती रचना!
ReplyDeleteप्रासंगिक और विचारणीय..... बहुत उम्दा
ReplyDeleteकुछ यक्ष प्रश्नोत्तर से चिंतन
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता अमृता जी |
ReplyDeleteसुप्रभात
ReplyDeleteइसी उहापोह में सरकता जीवन और अनमोल समय संग पीढ़ी लेकिन परवाह किसे?
कितना सटीक ,सच्ची , तस्वीर ...परिस्थितियां इससे बेहतर नहीं ....!!!!
ReplyDeleteसुनवाई चलती रहती है,फ़ैसले की नौबत कभी आएगी क्या !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .उम्दा पंक्तियाँ .
ReplyDeleteबन्द कमरे का दरवाजा...........
ReplyDeleteबन्द कमरे की परतें खोलती रचना
ReplyDeleteआज के समाज पर गहरा कटाक्ष..कुछ समझ में आया कुछ ऊपर से निकल गया..पर पढकर अच्छा लगा..
ReplyDeleteवाह .. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ...ये बड़ा अजीब सा द्वन्द है और सच्चा भी
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजिसपर
ReplyDeleteव्याख्याओं की परतें हैं
और उन परतों की
कितनी ही व्याख्याएं हैं ...
कहीं शून्य डिग्री पर
उबलता-खौलता पानी है
तो कहीं बर्फ की जिद है
सौ डिग्री पर ही जमें रहने की ...
मन को उद्वेलित करता विरोधाभास
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति! मेरी बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteकृपया यहां पधार कर मुझे अनुग्रहीत करें-
http://voice-brijesh.blogspot.com