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Sunday, September 19, 2021

कल्पना का खजाना .........

                              कल्पना करें यदि आपके सामने एक तरफ कुबेर का खजाना हो और दूसरी तरफ कल्पना का खजाना हो तो आप किसे चुनेंगे ? गोया व्यावहारिक तो यही है कि कुबेर का खजाना ही चुना जाए और बुद्धिमत्ता भी यही है ।  तिसपर महापुरुषों की मोह-माया-मिथ्या वाले जन्मघुट्टी से इतर बच्चा-बच्चा जानता है कि इस अर्थयुग में परमात्मा को पाने से ज्यादा कठिन है अर्थ को पाना । क्योंकि अर्थ के बिना जीवन ही अनर्थ है । इसलिए जो कुबेर के खजाने को चुनते हैं उनको विशुद्ध रूप से आदमी होने की मानद उपाधि दी जा सकती है । यदि कोई दोनों ही हथियाने के फिराक में हैं तो उन्हें बिना किसी विवाद के ही महानतम आदमी माना जाएगा । और जो ..... खैर !

                        पर कोई तो इस लेखक-सा भी महामूर्ख होना चाहिए जो रबर मैन की तरह दोनों बाँहों को बड़ा करके लपलपाते जिह्वा से लार की नदियाँ बहाते हुए कल्पना के खजाना को पूरे होशो-हवास में चुने । कारण लिखनेवाला एक तो तोड़-मरोड़ वाला लेखक है ऊपर से जोड़-घटाव वाला कवि भी है । तो कल्पना के खजाने का रूहानियत उससे ज्यादा भला कोई और कैसे जान सकता है । कल्पना करते हुए वह खुद को कुबेर से भी ज्यादा मालामाल समझता है । यकीन न हो तो उसके कल्पना से कुछ भी माँग कर देखें । यदि महादानी कर्ण भी रणछोड़ न हुआ तो नया महाभारत लिख दिया जाएगा इसी लेखक के काल्पनिक करों से ।

                               तो कल्पना करते हुए लेखक वो सब कुछ बन जाता है जो वो कभी हक़ीक़त में बन नहीं सकता है । अक्सर वह स्पाइडर-मैन की तरह महीन और खूबसूरत जाला बुनता है जिसमें खुद तो फँसता ही है , औरों को भी झाँसा देकर ही खूब फँसाता है । फिर शक्तिमान की तरह अपने काल्पनिक किल्विष को हमेशा हराता रहता है । अपनी कल्पनाओं की दुनिया में ही वह एक बहुत ही सुन्दर दुनिया बसाता है । जिसमें वास्तविक रूप से सुख, समृद्धि और शांति ले आता है । जो उसे कुछ पल के लिए ही सही पर बहुत सुकून देता है । जो इस दुनिया में अब कहीं ढ़ूँढ़ने से भी उसे नहीं मिलता है । शायद उसके लिए सारी सतयुगी बातें अब काल्पनिक हो गई हैं या फिर सच में विलुप्त होने के कगार पर ही है । 

                           तो अब सवाल ये है कि कल्पना के बिना इस बर्दाश्त से बाहर वाली दुनिया में दिल लगाए भी तो कैसे लगाए । जहाँ कुछ भी दिल के लायक होता नहीं और जो होता है उसके लायक लेखक होता नहीं है । तो ऐसे में सच्चाई को स्वीकार करते-करते हिम्मत बाबू अब उटपटांग-सा जवाब देने लगें हैं । तो फिर जन्नत-सी आजादी की बड़ी शिद्दत से दरकार होती है जो सिर्फ कल्पनाओं में ही मिल सकती है । एक ऐसी आजादी जिसे किसी से न माँगनी पड़ती है और न ही छीननी पड़ती है । तब तो वह कल्पना के खजाने को खुशी से चुनता है और उसकी महिमा का बखान भी एकदम काल्पनिक अंदाज में करता है । 

                           फिर से कल्पना करें कि यदि सब हीरे-जवाहरातों में ही उलझ जाएंगे तो सबके ओंठों पर काल्पनिक ही सही पर मुस्कान कौन खिलाएगा ? आखिर मुस्कान खिलाने वाले प्रजातियों को भी थोड़ी तवज्जो ज़रूर मिलनी चाहिए । ताकि मुंगेरी लालों के काल्पनिक दुनिया में एक से एक हसीन सपने अवास्तविक और अतार्किक रूप से और भी ऊँची-ऊँची कुलाँचे भर सके । जिन्हें नहीं पता है तो वे अच्छी तरह से पता कर लें कि इस छोटी-सी जिंदगी में महामूर्खई करके हँसी-दिल्लगी भी न किया तो फिर क्या किया । इसलिए हमारे जैसे महामूर्खों की कल्पनाओं की दुनिया तो कुछ ज्यादा ही आबाद होनी चाहिए ।

                                      वैसे भी इस सिरफिरे को बेहतर इल्म है कि कभी इसे सूरज पर बैठ कर चाय की चुस्कियाँ लेने की जबरदस्त तलब लगी तो बेचारा कुबेर का खजाना कुछ भी नहीं कर पाएगा । पर कल्पना का खजाना ही वो चिराग वाला जिन्न है जो इस तुर्रेबाज तलब को पूरा करके पूरी तरह से तबीयत खुश कर सकता है । ऐसे ही बेपनाह आरजुओं की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है जो सिर्फ कल्पनाओं में ही पूरी हो सकती है । तो कोई भी अपने सुतर्कों से लेखक के चुनाव को कमतर साबित करके तो दिखाएं । या फिर अपनी ही कल्पनाओं को हाजी-नाजी बना कर देख लें ।

                                                यदि इस कल्पनानशीन ने और भी मुँह खोला तो ख़ुदा कसम पृथ्वी बासी जैसे कल्पना के बाहरी दुनिया के जालिम लोग सरेआम उसे पागल-दीवाना जैसे बेशकीमती विशेषणों से नवाजेंगे । फिर तो इज्ज़त-आबरू जैसी भी कोई चीज है कि नहीं जिसे थोड़ा-बहुत बचा लेना लेखक का फ़र्ज़ तो बनता है । इसलिए खामखां अपनी कल्पनाओं की खिंचाई न करवा कर बस इतना ही कहना है कि जो कोई भी कुबेर के क़ातिल क़फ़स में फँसना चाहे शौक से फँसें । उन्हें ख़ालिस आदमी होने के लिए मुबारकबाद देने में भी ये महामूर्ख सबसे आगे रहेगा ।               

                       *** एक हास्यास्पद चेतावनी ***

 *** यदि किसी महामानव को इस महामूर्ख पर हल्की मुस्कान भी आ रही हो तो वह अट्टहास कर सकता है किन्तु आभार व्यक्त करते हुए ***

Tuesday, September 14, 2021

लेखनी चलती रहनी चाहिए .......

                 हिन्द दिवस पर हार्दिक प्रसन्नता के साथ ये स्वीकार करते हुए आत्मगौरव की अनुभूति हो रही है कि जब-जब स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहा तब-तब अपनी भाषा के चाक पर गीली मिट्टी की भांति पड़ गई । जैसा स्वयं को गढ़ना चाहा वैसे ही गढ़ गई । हाँ !  मेरी भाषा ने ही मुझे हर एक भाव में व्यक्त कर मुझे आत्मभार से मुक्त किया है । हर बार निर्भार करते हुए हिन्दी ने मुझे ऐसा अद्भुत, अनोखा और अद्वितीय रूप में सँवारा है कि बस कृतज्ञता से नतमस्तक ही हुआ जा सकता है । आज अपनी भाषा के बल पर ही अपनी स्वतंत्रता की ऐसी उद्घोषणा कर सकती हूँ । जिसकी अनुगूँज में हमारी हिन्दी हमेशा गूँजती रहेगी । जिसका खाना-पीना, ओढ़ना-बिछौना हिन्दी ही हो तो उसे बस हिन्दी में जीना भाता है । फिर कुछ और सूझता भी नहीं है । वैसे हिन्दी की दशा-दिशा पर चिंतन-मनन करने वाले हर काल में करते रहेंगे पर जिन्होंने हिन्दी को अपना सर्वस्व दे दिया उनको हिन्दी ने भी चक्रवृद्धि ब्याज समेत बहुत कुछ दिया है । इसलिए हमारी मातृभाषा हिन्दी को बारंबार आभार व्यक्त करते हुए .........

अनुज्ञात क्षणों में स्वयं लेखनी ने कहा है कि -
लेखनी चलती रहनी चाहिए 
चाहे ऊँगलियां किसी की भी हो 
अथवा कैसी भी हो
  
चाहे व्यष्टिगत हो 
अथवा समष्टिगत हो 
चाहे एकल हो 
अथवा सम्यक् हो 
 
चाहे अर्थगत हो 
अथवा अर्थकर हो 
चाहे विषयरत हो 
अथवा विषयविरत हो 
 
चाहे स्वांत: सुखाय हो
अथवा पर हिताय हो
चाहे क्षणजीवी हो
अथवा दीर्घजीवी हो
 
चाहे मौलिक हो
अथवा प्रतिकृति हो
चाहे स्वस्फूर्त हो
अथवा पर प्रेरित हो
 
चाहे मंदगति हो
अथवा द्रुतगति हो
चरैवेति चरैवेति
लेखनी चलती रहनी चाहिए
 
इन ऊँगलियों से न सही
पर उन ऊँगलियों से ही सही
लेखनी चलती रहनी चाहिए 
सतत् लेखनी चलती रहनी चाहिए .

*** हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ***
 

Saturday, September 11, 2021

वो प्रेम ही क्या ........

वो प्रेम ही क्या

जो कहीं के ईंट को

कहीं के रोड़े से मिलाकर

भानुमती का कुनबा जोड़वाए

और उन्हें कोल्हू पर लगातार

तेरे-मेरे का फेरा लगवाकर

दिन-रात महाभारत करवाए


वो प्रेम ही क्या

जो दूसरों के मनोरंजन के लिए

खेल वाला गुड्डा-गुड्डी बनकर

सबको खुश कर जाए

फिर अपने बीच होते

पारंपरिक खटरागी खटर-पटर से

सबों को मिर्च-मसाला दे कर

खूब तालियां बजवाए


वो प्रेम ही क्या

जो जरा-सा ज्वलनक वाले

फुसफुसिया पटाकों की तरह

झट जले पट बुझ जाए

और उसके शोर को भी कोई

कानों-कान सुन न पाए

फिर भरी-पूरी रोशनी में भी

कालिख पोत बस अंधेरा ही फैलाए


वो प्रेम ही क्या

जो उबाऊ-सी घिसी-पिटी

दैनिक दिनचर्या की तरह

अति सरल-सुलभ हो कर

सुख-सुविधा भोगी हो जाए

और बात दर बात पर

अहं कटारी ले एक-दूसरे का

आजीवन प्रतिद्वंद्वी बन जाए


वो प्रेम ही क्या

जो पहले से निर्धारित सुलह के 

परिपाटी पर पूरा का पूरा खरा उतरे

पर जिसमें कोई भी रोमांच न हो

या न हो सैकड़ों-हजारों झन्नाटेदार झंझटें

और जो जान-जहान का रिस्क न लेकर

उठाये न लाखों-करोड़ों खतरे


वो प्रेम ही क्या

जिसको भली-भांति 

ये न पता हो कि

बस कुछ पल का ही मिलना है

और बहुत दूर हो जाना है

फिर मिलने की तड़प लिए

हर पल तड़फड़ाना है


वो प्रेम ही क्या

जिसपर दुनिया एक-से-एक

मजेदार मनगढ़ंत कहानियाँ

बना-बनाकर न हँसे

और एक सुर मिलाते हुए

सही-गलत की कसौटी पर

खूब बाँच-बाँच कर न कसे


वो प्रेम ही क्या

जो आह भरा-भरा कर

सबके सीने पर

जलन का साँप न लोटवाए

काश! उन्हें भी कभी

कोई ऐसा प्रेम मिल पाता

ये सोचवा-सोचवा कर

प्रेम हलाहल न घोटवाए


वो प्रेम ही क्या

जो दहकता अंगार बना कर

हर पल प्रेम दवानल में

बिना सोचे-समझे न कुदवाए

और अल्हड़ अक्खड़ता से

दोधारी तलवार पर चलवाकर

खुशी-खुशी शीश न कटवाए


वो प्रेम ही क्या

जो युगों-युगों तक

साँसों का सुगंध बन

सबके नथुनों को न फड़काए

और जीवित मुर्दों के साथ-साथ

लकीरों के फ़कीरों में भी

भड़भड़ करवा कर न भड़काए


वो प्रेम ही क्या

जो शब्दातीत होकर

शाश्वत न हो जाए

शायद इसीलिए तो

रुक्मिणी के शैलीगत प्रेम पर

राधा का शहद लुटाता प्रेम 

सदा के लिए भारी पड़ जाए .

Sunday, September 5, 2021

जब माँ किलक कर कहती है ...........

जब माँ 

अपनी बेटी से

किलक कर

कहती है कि

अरे !

तू तो 

मेरी ही माँ

हो गई है

तब गदराये गाल

और झुर्रियों की

अलोकिक दपदपाहट

ऊर्जस्वित होकर

सृष्टि और सृजन को

हतप्रभ करते हुए

परम सौभाग्य से

भर देती है.


                                   साधारणतया जो गर्भ धारण कर बच्चे को जन्म देती है वो माँ कहलाती है । माँ अर्थात सृष्टि सर्जना जिसकी सर्वश्रेष्ठता अद्भुत और अतुलनीय होती है । इसलिए मातृत्व शक्ति प्रकृति के नियमों से भी परे होती है जो असंभव को संभव कर सकती है । एक माँ ही है जो आजीवन स्वयं को बच्चों के अस्तित्व में समाहित कर देती है । जो बिना कहे बच्चों को सुनती है, समझती है और पूर्णता भी प्रदान करती है । पर क्या बच्चें अपनी माँ के लिए ऐसा कर पाते हैं ?  क्या बच्चें कभी समझ पाते हैं कि उनकी माँ भी किसी की बच्ची है ? भले ही माँ की माँ शरीरी हो या न हो । पर क्या बच्चें कभी जान पाते हैं कि उनके तरह ही माँ को भी अपनी माँ की उतनी ही आवश्यकता होती होगी ? 

                                   सत्य तो यह है कि माँ का अतिशय महिमा मंडन कर केवल धात्री एवं दात्री के रूप में स्थापित कर दिया गया है । जिसे सुन-सुनकर बच्चों के अवचेतन मन में भी यही बात गहराई से बैठ जाती है । जिससे वे माँ को पूजित पाषाण तो समझने लगते हैं पर वो प्रेम नहीं कर पाते हैं जिसकी आवश्यकता माँ को भी होती है । जबकि वही बच्चें अपने बच्चों को वैसे ही प्रेम करते हैं जैसे उनके माता-पिता उन्हें करते हैं । पुनः उनके बच्चें भी उनको उसी रूप में प्रेम करते हैं तब बात समझ में आती है कि कमी कहाँ है ।

                                 अपने माता-पिता को अपने बच्चों की तरह न सही पर दत्तक की तरह ही प्रेम कर के देखें तो पता चलेगा कि प्रेम का एक रूप यह भी है । जैसे अपने बच्चों को प्रेम करते हुए बिना कुछ कहे ही सुनते-समझते हैं वैसे ही अपने माता-पिता को भी सुनने-समझने का प्रयास कर के तो देखें तो सच में पता चलेगा कि प्रेम का वर्तुल कैसे पूर्ण होता है । सत्यत: प्रेम की आवश्यकता सबों को होती है और अंततः हमारा होना प्रेम होना ही तो है ।


मैंने माँ को 

बच्ची की तरह

कई बार किलकते देखा है

हर छोटी-बड़ी बातों में

खुश हो-होकर

बार-बार चिलकते देखा है

हाँ ! ये परम सौभाग्य

मेरे भाग्य का ही तो 

अकथनीय लेखा है

जो मैंने माँ को भी

सहज-सरल बाल-भाव में

मुझे अनायास ही

माँ कहते हुए देखा है .         

                      *** परम पूज्य एवं परम श्रद्धेय ***

      *** समस्त प्रथम अकाल गुरु (माता-पिता) को समर्पित ***

                   *** हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आभार ***           

Thursday, September 2, 2021

क्षणिकाएँ ...........

जहाँ किसी की परवाह भी 

चलन में अब नहीं रहा

वहाँ जिंदा होने की गवाही

लाउडस्पीकर पर 

साँस लेना हो गया है


***


जहाँ फूँक-फूँक कर भी

छाँछ पीने पर

मुँह में फफोले पड़ जाए तो

वाकई हम कुछ ज्यादा ही

संवेदनशीलता की दौर में हैं


***


जहाँ सबों से जुड़ते हुए

खुद से टूटने का

ज्यादा अहसास होता हो

वहाँ भयावह सच्चाइयों से

नजर न मिलाना ही बेहतर है


***


जहाँ भावनाऐं

हाथी के दांत से भी

बेशकीमती हो गई हों

वहाँ वक्त के फटेहाली पर

यकीन कर लेना चाहिए


***


जहाँ दो गज जमीन पर भी

इतनी मार-काट मची हो

वहाँ सभ्येतर ठहाकों की गूंज

शांति की बातों से 

कहीं ज्यादा डराती हैं .