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Thursday, December 31, 2020

सुना है कि ---

                                 ॐ शांति: शांति: शांति: ॐ


                 सुना है जो हम हैं वही हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है । हमें जो बाहर दिखता है ,  वह हमारा ही प्रक्षेपण होता है ।  स्वभावत: हमारी चेतना जो जानती है उसी का रूप ले लेती है । इसलिए हम सुंदर को देखते हैं तो सुंदर हो जाते हैं , असुंदर को देखते हैं तो असुंदर हो जाते हैं । हमारे सारे भाव भी अज्ञात से आते हैं और हमें ही यह निर्णय करना होता है कि हम किस भाव को चुनें ।  ये भी सुना है कि संतुलन प्रकृति का शाश्वत नियम है । जैसे दिन-रात , सुख-दुख , अच्छाई-बुराई , शुभ-अशुभ , सुंदर-असुंदर आदि । बिल्कुल पानी से आधे भरे हुए गिलास की तरह । गिलास को हम कैसे देखते हैं वो हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है ।  

                           ये भी सुना है कि इन दृश्य और अदृश्य के बीच भी बहुत कुछ है जो तर्कातीत है । काव्य उन्हीं को देखने और दिखाने की कला है । तब तो साधारण से कुछ शब्द आपस में जुड़ कर असाधारण हो जाते हैं और इनका उद्गार हमें रससिक्त करता है । साथ ही हमारा अस्तित्व आह्लादित होकर और प्रगाढ़ होता है ।  हम किन भावों को साध रहे हैं इतनी दृष्टि तो हमारे पास है ही । आइए ! उन्हीं भावों का हम खुलकर आदान-प्रदान करें हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ।

न जाने कितनी भावनाऐं , भीतर-भीतर ही

उमड़-घुमड़ कर , बरस जाती हैं

जब तक हम समझते , तब तक

शब्दों के छतरियों के बिना ही

हमें भींगते हुए छोड़कर , बह जाती है

आओ ! मिलकर हम

छतरियों की , अदला-बदली करें

भाव बह रहें हैं , थोड़ा जल्दी करें

एक-दूसरे के हृदय को , खटखटाएं

कुछ हम सुने , कुछ कहलवाएं

बांधे हर बिखरे मन को

उन के हर एक सूनेपन को

आओ ! सब मिलकर , साथ-साथ शब्द साधें 

गुमसुम , गुपचुप यह जीवन कटे

छाई हुई उदासियों का , आवरण हटे

शब्द-शब्द से मुस्कानों को , गतिमय बनाएं

आओ ! हर एक भाव में , पूरी तरह तन्मय हो जाएं .

Monday, December 28, 2020

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी .......

जब आंँखें अंधकार से भर जाएंगी

दृष्टि स्वयं में ही असहाय हो जाएंगी

प्रतिमित प्रतिमाएं सारी खंडित हो जाएंगी

असह्य हो जाए जब वेदना तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियांँ हमारी


जब चूकना ही चूकना सहज क्रम हो जाए

प्रति फलित परिष्कृति बरबस भ्रम हो जाए

अकल्पित संघर्षों में क्षुद्रतम सारा श्रम हो जाए

दुष्कल्पनाएं , शंकाएं जब सहचरी हो तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


जब अनजानी , अपरिचित सब राहें होंगी

विवशता की अचरज से भरी आहें होंगी

अति यत्न से सिंचित , संचित दम तोड़ती चाहें होंगी

निरपवर्त नियति हो जब परवश पराजय तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


जब शांति का आगार सब अंगार हो जाए

सारा मधुकलश ही विष का सार हो जाए

क्लेश , शोक हर उत्सव का प्रतिकार हो जाए

संकुचित , व्यथित विचलन हो जब डगर तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


उन स्मृतियों में मेरी संतृप्ति का स्नेहिल स्पर्श होगा

तुम्हारे अस्तित्व को मुझ तक खींचता , प्रबल आकर्ष होगा

सोखती हूँ समूचा तुम्हें मैं , सोचकर भी अपार हर्ष होगा

सह्य हो जाएंगी तब वेदना तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी .


Tuesday, December 22, 2020

जोबन ज्वार ले के आउँगी ........

फिर से सांँझ हो रही है कहांँ हो मेरे हरकारे

कब से अब तक यूँ बैठी हूंँ मैं नदिया किनारे

फिर आज भी कहीं प्यासी ही लौट न जाऊं

तड़के उनींदे नयनों के संग फिर यहीं आऊं


थका सूरज किरणों को जैसे-तैसे समेट रहा है

धुँधलका भी जल्दी से क्षितिज को लपेट रहा है

चारों ओर एक अजीब- सी बेचैनी पिघल रही है

मेरी भी लालिमा अब तो कालिमा में ढल रही है


बगुला , बत्तख सब जा रहे अपने ठिकाने पर

शायद मछलियाँ भी चली गईं उस मुहाने पर

पंछियों ने तो नीड़ो तक यूँ मचाई होड़ाहोड़ी है 

पर मैंने अब तक लंबी- लंबी सांँसे ही छोड़ी है


ओ! बालू के बने घरों को कोई कैसे फोड़ गया है

ओ! बिखरे सारे कौड़ियों को भी ऐसे तोड़ गया है

शंख , सीपियों की उदासी और देखी नहीं जाती

तुम जो ले आते मेरा पाती तो इन्हें पढ़के सुनाती


दूर कहीं मछुआरे कुछ गीले-गीले गीत गा रहें हैं

हुकती कोयलिया से ही पीर संगीत मिला रहे हैं

जैसे तरसती खीझ तिर- तिर कर कसमसाती है

मुझसे भी टीस लहरियां आ- आकर टकराती है


पीपल का पत्ता एक बार भी न झरझराया है

मंदिर का घंटा भी अब तक नहीं घनघनाया है

अंँचल की ओट में भी दीप बुझ-बुझ जाता है

मेरे भी पलकों के तट पर कुछ छलछलाता है


लहरों पर सिहरी-सिहरी सी ये कैसी परछाईं है

मँझधारों की भी अकड़ी-तकड़ी सी अँगराई है

तरुणी- सी तरणी बिन डोले ही सकुचा रही है

पल- पल रूक कर पुरवा भी पिचपिचा रही है


उन्मन चांँद का चेहरा क्यों उतरा- उतरा सा है

बादलों का बाँकपन कुछ बिसरा-बिसरा सा है

सप्तर्षियों की चल रही कौन-सी गुप्त मंत्रणा है

उनसे भी छुपाए नहीं छुप रही ये कैसी यंत्रणा है


इसी हालत में ही मेरे हरकारे घर तो जाना होगा

स्वागत में फिर नये-नये रूपों में वही ताना होगा

कैसे तोड़ूं उसकी सौं साखी है यह नदी किनारा

यदि आस जो छोड़ूं तो आखिरी सांँस हो हमारा 


रात भर प्रीत जल-जलकर अखंड ज्योति बनेगी

इन नयनों से झर-झरकर बूंँदें मंगल मोती गढ़ेंगी

कल फिर जोबन ज्वार ले के आउँगी इसी किनारे

उस जोगिया का पाती ले जरूर आना मेरे हरकारे .


Thursday, December 17, 2020

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए .......

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

हाथ थामे कभी हम थे चले
आँखों में एक से सपने पले
संग-संग सब हंसे और खेले
पीड़ाओं में भी थे घुले-मिले

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

रंगो के थे क्या मनहर मेले
बतकहियों के अनथक रेले
एक से बढ़के एक अलबेले
हर पीछे को बस आगे ठेले

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

उलझाते सुलझाते हुए झमेले
फाग आग सब मिलकर झेले
हुए कभी न हम ऐसे अकेले
उन दिनों को अब कैसे भूलें 

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए 

हर रूठे को आवाज लगाऊं
रोऊं गाऊं और उन्हें मनाऊं
पर अब ये तो समझ न पाऊं
कि उन छूटे को कैसे बुलाऊं

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए 


यह पावन भाव उन समस्त पथगामियों एवं पथप्रदर्शकों को निवेदित है जिन्होंने इस ब्लॉग जगत को विपुल समृद्धि प्रदान किया है । आज जो दृष्टिगत हैं वे निःसंदेह ह्रदयग्राही हैं पर हृदय दौर्बल्यता दबंग यादों को लिए हुए बारंबार उस कल्पतरु की छांव में जाना चाहता है जहां पुनः यह कहने की इच्छा बलवती होती जाती है --- ये ब्लॉगिंग है जनाब !

Sunday, December 13, 2020

हजारों-लाखों चुंबन है .....

 मेरे रोएं-रोएं पर तो तुम्हारा ही वो हजारों-लाखों चुंबन है 

मेरी सांस-सांस पर सुमरनी-सा कसा तेरा ही आलिंगन है 

अब कैसे बताऊं कि तुम उपहार में ही तो मिले हो हमको 

औ' हमारी नस-नस में दौड़ रहा तुम्हारा छिन-छिन संगम है 


हाँ! अब तो चौंकती भी नहीं किसी भी अनजान आहट पर 

लगाम लिए फिरती हूँ पल-पल की उस विरही घबराहट पर

न जानूं कि कैसे अपने-आप उछलती लहरें सरि तल हो गई 

हाय! चकित हूँ ,विस्मित हूँ ,बहकी हुई सी इस बदलाहट पर 

 

सारी छूटी सखियाँ सब अब मुझे, बहुत ही भाने लगी हैं 

हिल-मिल कर हिय-पिय की वो बतिया बतियाने लगी हैं

कैसे कहूं कि मेरी सारी समझ भरी भारी-भरकम बातों पे

सब मिल पेट पकड़-पकड़कर जोर-जोर से ठठाने लगी हैं 

   

 कहती- हमने तो देखा है तेरे हर एक उस पागलपन को

 जल-जल कर जल के लिए मछली की चिर तड़पन को 

 कैसे हम सब तब तनिक भी न भाती सुहाती थी तुझको

 औ' तेरी अंखियांँ तो खोजती थी बस अपने ही प्रीतम को

     

ना जाने किससे , कब और कैसे लग गई तुझे ये प्रेम अगन

सब कुछ भूल-भाल कर तू तो बस प्रीतम में हो गई मगन

पगली ! तब तू बस गली-गली ऐसे मारी-मारी फिरती थी

छोड़-छाड़ कर सब मान-मर्यादा और लोक-लाज का सरम


हम समझाती थी ऐसे मत हो बावली , कुछ तो धीरज धर

प्रीतम तेरा है तेरा ही रहेगा , तिल-तिल कर तू यूं न मर

मिथ्या बोल तब तो थे न हमारे अब जाकर तुमने जाना है

माना कि भूल थी तेरी पर तू क्षमा मांग और कान पकड़


उन्हें कैसे बताऊं कि प्रीत ने ही मुझे तो स्नेही बना दिया

तुम्हारा आँखो से ओझल हो-हो जाना संदेही बना दिया

पर अब संभोगी संगम के चुंबनों और आलिंगनों ने मुझे

रोएं-रोएं को चिर तृप्ति देकर दीपित दिव्यदेही बना दिया


कभी विदेही तो कभी सैदेही मेरा अजब-गजब सा होना है

प्रीतम को पाया तो ही पाया कि क्या पाना है क्या खोना है

प्रपंची अँखियो से अब सखियों में भी प्रीतम ही दिखता है 

उन्हें कैसे बताऊं कि अब बस हँसना है मुझे न कि रोना है .


Monday, December 7, 2020

शांतिक्षेत्र में ये क्या हो रहा है ......

मीलों दूर बैठा मन

उत्सुक है , बहुत आतुर है

जानने को पीड़ित है

क्रांतिक्षेत्र / शांतिक्षेत्र में ये क्या हो रहा है

सत्य और न्याय के लिए अब और युद्ध नहीं होना चाहिए

इसलिए मनुपुत्रों ने लाखों- करोड़ों युद्धों को 

सफलतापूर्वक संपन्न कराने के बाद 

लिए गए अघोषित सौगंध और शांति से किये अनुबंध के कारण 

कुरुक्षेत्र का बहिष्कार कर रहे हैं और शांतिक्षेत्र में जमें हैं

शांति समर्थक और उनके विरोधी क्या- क्या कर रहे हैं

ये जानने के लिए मन बड़ा व्यग्र है इसलिए वह

कभी टीवी खोलता तो कभी अखबार पलटता है

मोबाइल में न्यूज नोटिफिकेशन पर पल- पल नजर रखता है

चौबीसों घंटे सोशल मीडिया का खाक छानते रहता है

विदेशी न्यूज़ एजेंसी पर भी ताका-झांकी करके 

सेंसर किया गया गुप्त जानकारियां पाना चाहता है

परिचितों को भी फोन लगाकर आँखो देखा हाल जानना चाहता है

चाहे वो हमारी तरह मीलों दूर ही क्यों न हो

भले ही ऊपर- ऊपर से दिखाई पड़ती आँखे हैं

पर हम अंधों की जिज्ञासाओं का कोई अंत नहीं है

बात यदि शांति स्थापित करने की हो तो अशांति स्वभाविक है

हम तक छन- छन कर जो खबरें आ रही है 

उसके आधार पर यही लग रहा है कि

चारों ओर शांति के मुक्तसैनिक मोर्चा संभाले हुए है

बड़ी ही शांति पूर्वक एक नई दुनिया बनाने की पहल करते हुए

मानव को पहले के वनिस्पत कुछ अधिक सभ्य , सुसंस्कृत दिखाते हुए

युगों- युगों से शोषण के शिकार स्वार्थ के शासन के

कदमों में श्रद्धा से चढ़ाए गए वर्तमान और भविष्य को

चक्रवृद्धि ब्याज सहित लौटाने के आग्रहों का भेंट देकर

बदले में सभ्येतर प्रतीक्षा को सलीका से ओढ़कर सब डटे हुए हैं

युगों- युगों से चढ़ी कई- कई परतों वाली संतुष्टि के प्लास्टर के भीतर

भरभराते दरारों की दबायी- छुपायी हुई 

दमन की गाथाओं को चुन- चुनकर चिन्हित कर रहे हैं

परंपराओं की जमी सीमेंट को क्रांति की नोंक से खुरच रहे हैं

रूढ़िग्रस्त चिंतनों की नींव से धीरे- धीरे एक- एक ईंट निकाल रहे हैं

संरक्षित खंडहरों को सम्मानित ढंग से सलामी देकर विदा कर रहे हैं

उन शांति के मुक्तिसैनिकों में शामिल होने की हमारी भी पूरी अर्हता है

पर परंपराओं का क्रुर कानून इजाजत नहीं देता है शांतिपूर्ण क्रांति का

मन का देश आज भी गुलाम है युद्धरत शांतिदूतों के आगे .


Friday, December 4, 2020

भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---

भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो 

किस रूप से खिले हो , किस ढंग से खिले हो

किसी विवशता में खिले हो या मलंग से खिले हो

किसी के तदनुरूप खिले हो या अपने अनुरूप खिले हो

ये खिलना तुम्हारा स्वभाव है या किसी का प्रभाव है

क्षणजीवी हो या दीर्घजीवी  ,  उपयोगी हो या अनुपयोगी

तुम्हारा अपना कितना जमीन है , कितना आसमान है

तुम्हारे खिलने का अनुमानित कितना मान- सम्मान है


भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

क्यों तुमसे उठी हुई तुम्हारी सुगंध , सुवास , मिठास

हवाओं में तैर कर मीलों दूर तक फैल- फैल जाती है 

क्यों तेरे पराग- परिमल की कणी- कणी छिटक- छिटक कर

सबके नासपुटों को जाने- अनजाने में भी फड़काती है 

क्यों तेरे मदिर मादकता से स्वयं पर किसी का वश न रहता है 

भँवरा- सा मचल- मचल कर वह तुम तक आ- आ बहता है 

क्यों मधुछत्तों से मधुमक्खियां भागी- भागी तुम तक आती है 

क्यों तितलियां तुम पर ही नाचती,  डोलती,  गाती , मंडराती है 


फूलों- सी ही मेरी कविताएं  मुझसे झर- झर झरती हैं

कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है

कविता बहाने वाली बह- बह कर चुपके से कहीं हट जाती है

मैं भी देखती हूँ कि कविता कुछ- कुछ उपनिषद- सी ही घट जाती है


भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---


Monday, November 30, 2020

बहिर्अंतस की उन्मत्त अमा है .......

अभी- अभी पूर्णिमा का चांद 

आकर मुझसे मिला है

अभी- अभी मेरे भी मौन अँधियारे में 

मेरा भी चांद खिला है

आज गगन में फूट रहा है कोई अमृत गागर

मेरे अंतर्गगन में भी फैल गया किरणों का सागर 

मधुमयी चांदनी ज्यों बरस रही है 

मुझसे भी मेरी ज्योति परस रही है

चकोर- चकोरी एकनिष्ठ हो छुप- छुपकर दहक रहे हैं

वहीं नीरंजन बादल कहीं- कहीं चुपचाप थिरक रहे हैं

मुखर हो रही है मन बांसुरी , शब्द- शब्द झरझरा रहे हैं

भाव- भाव अमर रस को पी- पीकर अनंत प्यास बुझा रहे हैं

सोलह कलाओं से सजी आसक्तियां निखरने लगी है

इच्छाऐं रससिक्त होकर जहां- तहां बिखरने लगी हैं

जैसे ये महत क्षण हो अपनापन खोने का

हर्षोन्माद में भींगने और भिंगोने का

जैसे शीतल सौंदर्य के सुगंध को पहली बार कोई मनुहारा हो

सारी रात सांस रोककर कोई चांद को निर्निमेष निहारा हो

जैसे अभी- अभी मिला कोई नवल वय है

लग रहा है कि मैं सबमें और सब मुझमें ही तन्मय है

बस उत्फुल्ल चांद है , उद्दीप्त चांदनी है , उद्भूत पूर्णिमा है

और अमृत में तन्मय हो रही बहिर्अंतस की उन्मत्त अमा है .

*** देव दीपावली एवं कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

Thursday, November 26, 2020

उग्रतर होता परिताप है ......

यह कैसी पीड़ा है

यह कैसा अनुत्ताप है

प्रिय-पाश में होकर भी 

उग्रतर होता परिताप है


जाना था मिलन ही

प्रेम इति होता है

प्रिय को पाकर भी

संताप कहां खोता है


प्रेम के आगे भी

क्या कुछ होता है

प्रिय से कैसे पूछुँ

हृदय क्यों रोता है


यदि मधुर , रस डूबी

प्रेमपगी पीड़ा होती

तो प्रिय-मिलन ही

केलि- क्रीड़ा होती


अनजाना सा कोई है

जो खींचे अपनी ओर

तब तो इस पीड़ा का 

न मिलता कोई छोर


मेरा कुछ दोष है या

शाश्र्वत अभिशाप है

प्रिय तो देव सदृश

निश्छल , निष्पाप है


पीड़ा मुझको ताके

और मैं पीड़ा को

कोई तो संबल दे

मुझ वीरा अधीरा को


अब तो प्रिय से ही

अपनी आँखें चुराती हूँ

हर क्षण उसको पी-पीकर

पीड़ा की प्यास बुझाती हूँ


बलवती होती जा रही

पीड़ा की छटपटाहट

अब तो मुक्ति का प्रभु

कुछ तो दो न आहट


आस की डोर को थामे

श्वास से तो पार पा जाऊँ

पर लगता है कि कहीं

पीड़ा से ही हार ना जाऊँ 


प्रेम लगन को मेरे प्रभु

और अधिक न लजवाओ

प्रिय को पाया , पीड़ा पायी

बस पहेली को सुलझाओ .

Sunday, November 22, 2020

ऐसे हड्डियों को ना फँसाइये .......

काफी सुना था हमने आपकी बड़ी-बड़ी बातों को

खुशनसीबी है कि देख लिया आपकी औकातों को 

कैसे आप इतना बड़ा-बड़ा हवा महल यूँ बना लेते हैं 

और खुद को ही शहंशाहों के भी शहंशाह बता देते हैं


माना कि ये सिकंदरापन होना कुछ हद तक सही है

पर आप में सिकंदर वाली कोई एकबात भी नहीं है

कैसे आप बातों में ही सोने के घोड़ों को दौड़ा देते हैं 

और सारी सल्तनतों को यूँ आपस में लड़वा देते हैं


आपके दरबार में अनारकलियों का क्या जलवा है

अकबर भी सलीम मियां का चाटते रहते तलवा है

कैसे आप ख्वाबों, ख्यालों की दुनिया बसा लेते हैं

और खट्टे अंगूरों को भी देख- देख कर मजा लेते हैं


कभी-कभार खुद को इंसान की तरह भी दिखलाइए

ये नाजुक हलक है हमारा ऐसे हड्डियों को ना फँसाइये

कैसे आप सरेआम नुमाइश कर अपना कद बढ़ा देते हैं

और अपने मुखौटों पर भी असलियत को यूँ चढ़ा लेते हैं .


Wednesday, November 18, 2020

रात बीत गई तब पिया जी घर आए ........

रात बीत गई 

तब पिया जी घर आए

उनसे अब हम क्या बोले , हम क्या बतियाये

जब यौवन ज्वाला की छटपटाहट में झुलस रही थी

पिया जी के एक आहट के लिए तरस रही थी

तब पिया जी ने एक बार भी न हमें निरखा

उल्टे आँखों में भर दिया सावन की बरखा

सूनी रह गई सजी- सँवरी सेज हमारी

क्या कहूँ कि कैसे बीती हर घड़ी हमपर भारी

कितनी आस से भरकर आई थी पिया जी के द्वारे

पर जब- जब हमने चाहा, वो हुए न हमारे

अपने रूप पर स्वयं ही इठलाती , इतराती रही

प्रेम- दान पाने को अपनी मृतिका ही लजवाती रही

अब तो सूरज सिर पर नाच रहा है

दिनचर्या व्यस्तता के कथा को

बढा- चढ़ा कर बाँच रहा है

सास , ननद का वही घिसा- पिटा ताना

बूढ़े , बच्चों का हर दिन का नया- नया बहाना

देवर , भैंसुर की दिन- प्रतिदिन बढ़ती मनमानी

देवरानी , जेठानी की हर बात में रूसा- फुली , आनाकानी

दाई , नौकरों का अजब- गजब लीला

हाय ! चावल फिर से आज हो गया गीला

तेल- मसालों से बह रही है चटनी, तरकारी

सेहत को खुलेआम आँख मारे दुर्लभ , असाध्य बीमारी

फिर भी जीवन- मक्खन का रूक न रही मथाई

और सुख सपनों में ही रह गयी सारी मलाई

उधर पिया जी बैठे मुँह लटकाए , गाल फुलाये

रह- रह कर बस हमें ही जलाये , और अपनी चलाये

संझावती की इस बेला में थकान ले रही कमरतोड़ अँगराई

इसी आपाधापी में तो हमने सारी उमरिया गँवाई

बहुत पास से अब टेर दे रहा है निघट मरघट

हाय ! छूँछा का छूँछा रह गया यह जीवन- घट

अरे ! अरे ! साँझ बीत गयी, अब तक जला नहीं दिया

रात हो रही है , फिर से रूठ कर कहीं चले गए पिया . 


Saturday, November 14, 2020

अपने करूण दीपों को फिर से जलायें ......

    आनंद का सहज स्फूर्त पुलक उठ कर

    व्याप्त हो गया है लोक-लोकांत में

    विराट अस्तित्व आज फिर से

    श्रृंगारित हुआ सृष्टि के दिग-दिगांत में

    

    निज अनुभूतियाँ फिर से प्राण पाकर

    प्रकाशधार में बलक कर बह रही है

    चौंधियायी आँखों से अंधकार की

    कृतज्ञता झुक कर कुछ कह रही है

    

    हर कान में फुसफुसा रहा है हर हृदय

    सुन प्रणय की इस मधुर मनुहार को

    अपने-अपने संचित उत्साह से सफल करें

    कल के विफलता की हर एक पुकार को

    

    आओ इस दीपोत्सव में सब मिलकर

    अपने करूण दीपों को फिर से जलायें

    जग की विषमता को आत्मसात करके

    हर कसकते घावों को सदयता से सहलायें . 


   *** दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

    

Tuesday, October 27, 2020

क्षणिकाएँ ........

आटा मुंँह में लेते ही
पता चलता है कि कांँटा है
तब तक मछली जाल में होती है
लुभावनी तरकीबें तो
केवल आदम खाल में होती है

     ***

कड़वी दवा भी
लार टपकाने वाले स्वादों के
परतों में लिपटी होती है
जिस पर डंक वाली हजारों
चापलूस चींटियांँ चिपटी होती है

     ***

प्यासे को पानी का
सूत्र मिलता है
भूखे को पाक शास्त्र
नव सुधारकों का
अचूक है ब्रह्मास्त्र

     ***

पुराने पत्थर ही है
जो कभी बदलते नहीं हैं
बदलाव के सारे प्रयास तो
सब कसौटी पर
सौ फ़ीसदी सही है

     ***

लोकप्रिय पटकथाएँ तो
अंधेरे में ही लिखी जाती है
हर झूठ को सच 
मानने और मनवाने से ही
अभिनय में कुशलता आती है .

Monday, October 19, 2020

शब्दों के घास , फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ .....

कुछ लिखने का मन होता है तो
कुछ भी लिख देती हूँ
हाँ ! मैं शब्दों के घास, फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ
यदि चातक आकर खुशी-खुशी चर ले तो
खूब लहालोट होकर लहलहाती हूँ
न चरे तो भी अपने आप में ही हलराती हूँ
अपना बीज है, अपना खाद है
न राजस्व चुकाना है, न ही कर देना है
बदले में बस भूरि-भूरि प्रशंसा लेना है
ख्याति, कीर्ति का क्या कहना
सिरजते ही चारों ओर से बरस पड़ती है
जिसे देख कर यह परती भी सोना उगलती है
न संचारण , संप्रेषण की कोई चिन्ता
न ही प्रकाशक, संपादक की तनिक भी फिकर
हाँ ! कुछ कम नहीं है हमारी लेखनी महारानी जी की अकड़
विनम्रता कहती है-अर्थ अर्जित करना है जिन्हें
वे अत्याधुनिक मिश्रित खेती को अपनाये
पर हमें तो हृदय से बस विशुद्ध खेती ही भाये .

Monday, October 12, 2020

मेरी कविताएँ अपरंपार ......

तुम कहते हो कि

मेरी कविताएंँ

तुम्हारे लिए

प्यार भरा बुलावा है

शब्दों के व्यूह में फँसकर

तुम स्वयं को

पूरी तरह भूल जाते हो

कुछ ऐसा ही

सम्मोहक भुलावा है


मेरे शब्दों से बंध कर

तुम खींचे चले आते हो

और तपती दुपहरिया में

तनिक छाया पाते हो

पर कैसे ले जाएंँगी

तुम्हीं को तुमसे पार

मेरी कविताएंँ

अपरंपार


औपचारिक परिचय भर से ही

शब्द अर्थ नहीं हो जाते

और आरोपित अर्थों से

शब्द अनर्थ होकर

व्यर्थ हो जाते


शब्दों से शब्दों तक

जितनी पहुंँच है तुम्हारी

केवल वहीं तक 

तुम पहुंँच पाओगे

शब्दों के खोल से

जो भी अर्थ निकले

अपने अर्थ को ही पाओगे


मेरे शब्दों के सहारे

घड़ी भर के लिए ही सही

तुम अपने ही अर्थ को पाओ तो

कुछ-ना-कुछ 

घटते-घटते घट जाएगी

मेरी कविताएँ

तुम्हारी ही प्रतिसंवेदना है

तुम्हारे अर्थों से भी

इस छोर से उस छोर तक

बँटते-बँटते बँट जाएगी .

Tuesday, October 6, 2020

छठे सातवें फ़रेब में ......

जिंदगी के वस्ल वादों में 

मेरे इतराते इरादों में

कुछ ऐसी ठनी

कि हर बिगड़ी हुई बात 

नाज़ुक सी नाज़ की 

बदसूरत बर्बादी बनी

भागते गुबारों ने

आहिस्ते से कहा

जिंदगी को तो

हाथ से छूटना ही है

ख्वाबों का क्या

पूरा होकर भी

टूटना ही है

पर रूठी उम्मीदों को

मनाने का अपना एक 

अलग ही मजा है

छठे सातवें फ़रेब में

खुद को खुदाई तक

फिर से फँसाने का

उससे भी ज्यादा मजा है

तब तो मुद्दत पहले

उदास ग़ज़लों को

छूटी हुई राहों में

छोड़ आई हूं

मत्तला और क़ाफ़िया को

प्यार से आज़ाद कर

नज़्म बन पाई हूं 

खुद को ही ख़बर लगी कि

अभी भी बहुत कुछ है

मेरे तिलिस्मी ख्यालों में

ऐ जिंदगी ! 

तुझको ही मैंने

अब भर दिया है

एतबार के टूटे प्यालों में .

Wednesday, September 30, 2020

हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय......

संजय , पीलिया से पीड़ित समाज को देखकर
इस घिनौना से घिनौना आज को देखकर
चाहे क्रोध के ज्वालामुखी को फोड़ लो
या घृणा के बाँध को तोड़ दो
चाहे विरोधों का बवंडर उठाओ
या सिंहासन का ईंट से ईंट बजाओ
पर नया-नया सिर उग-उग आएगा
और वही दमन-शोषण का अगला अध्याय पढ़ायेगा
सब भूलकर तुम वही पाठ दोहराते रहोगे
और नंगी पीठों पर अदृश्य कोड़ों की चोट खाते रहोगे
ये विराट जनतंत्र का भीषण प्रहासन है संजय
ये सिंहासन है संजय
हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय

संजय , अपनी आँखे बंद कर लो
या अपने ही हाथों से फोड़ लो
या देख कर भी कुछ ना देखो
देखो भी तो मत बोलो
यदि बोलोगे भी तो क्या होगा ? 
जो होता आया है वही होता रहेगा
जहाँ बधियाया हुआ सब कान है
और तुम्हारी आवाज बिल्कुल बेजान है
तो तुम भी मूक बधिर हो जाओ
सारे दुख-दर्द को चुपचाप पीते जाओ
ये सिर्फ रामराज्य का भाषण है संजय
ये सिंहासन है संजय
हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय

संजय ,  करते रहो आग्रह , सत्याग्रह या उपवास
या फिर आत्मदाह का ही सामूहिक प्रयास
कहीं सफेद कबूतरों को लेकर बैठ जाओ
या सब सड़कों पर उतर आओ
नारा लगाओ, पुतला जलाओ
या आंदोलन पर आंदोलन कराओ
या चिल्ला- चिल्ला कर खूब दो गालियाँ
या फिर जलाते रहो हजारों-लाखों मोमबत्तियाँ
उन पर जरा सी भी आँच ना आने वाली है
क्योंकि उनकी अपनी ही जगमग दिवाली है
ये बड़ा जहर बुझा डाँसन है संजय
ये सिंहासन है संजय
हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय 

संजय , चाहो तो पीड़कों को भेजवाओ कारा
और पीड़ितों को देते रहो सहानुभूतियों का सहारा
पर जब तक तुम ना रुकोगे कुछ ना रुकेगा
और मानवता का माथा ऐसे ही कुचलेगा
चाहे कितना भी सिंहासन खाली करो का लगाओ नारा
या फिर जनमत-बहुमत का उड़ाते रहो गुब्बारा
सिंहासन है तो खाली कैसे रह पाएगा
एक उतरेगा कोई दूसरा चढ़ जाएगा
तुम खुशियांँ मनाओगे कि रामराज्य आएगा
पर सिंहासन तो सिर्फ अपना असली चेहरा दिखाएगा
ये चतुरों का चुंबकीय फाँसन है संजय
ये सिंहासन है संजय
हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय .

Tuesday, September 22, 2020

शब्द - प्रसुताओं के हो रहे हैं पाँव भारी ........

 एक तो विकट महामारी

ऊपर से जीवाणुओं , विषाणुओं और कीटाणुओं के

प्रजनन -गति से भी अधिक तीव्रता से

शब्द -प्रसुताओं के हो रहे हैं पाँव भारी 


प्रसवोपरांत जो शब्द जितना ज्यादा

आतंक और हिंसा फैलाते हैं 

वही युग -प्रवर्तक है , वही है क्रांतिकारी 

शब्दों के संक्रमण का

देश -काल से परे ऐसा विस्फोटक प्रसार

जितना मारक है , उतना ही है हाहाकारी


कुकुरमुत्ता हो या नई -पुरानी समस्याएँ 

यूँ ही उगते रहना है लाचारी

ऐसे में शब्द -प्रसुताओं के द्वारा

उनके जड़ों पर तीखे , जहरीले , विषैले

शब्द -प्रक्षालकों का सतत छिड़काव

बड़ा पावन है , पुनीत है , है स्वच्छकारी


अति तिक्तातिक्त बोल -वचनों से

जो सर्वाधिक संक्रमण फैलाते हैं 

वही रहते हैं आज सबसे अगाड़ी

आह -आह और वाह -वाह कहने वाले

खूब चाँदी काट -काट कर

लगे रहते हैं उनके पिछाड़ी

बाकी सब उनके रैयत आसामी होते हैं

जिनपर चलता है दनादन फौजदारी


मतलब , मुद्दा , मंशा व गरज के खेल में

तर्क  , कुतर्क , अतर्क , वितर्क के मेल में

चिरायता नीम कर रहें हैं मगज़मारी

रत्ति भर भी भाव के अभाव में

गाल फुला कर मुँह छिपा रही है

करैला के पीछे मिर्ची बेचारी


जहाँ आकाशीय स्तर पर

चल रहे इतने सारे सुधार अभियानों से

पूर्ण पोषित हो रही है हमारी भुखमरी , बेकारी

वहाँ आरोपों -प्रत्यारोपों के

शब्दाघातों को सह -सह कर और भी

बलवती हो रही है मँहगाई , बेरोजगारी

पर ऐसा लगता है कि

शब्द -प्रसुताओं के वाद -विवाद में ही

सबका सारा हल है , सारा  समाधान है

आखिर इन शब्दजीवियों का भी हम सबके प्रति 

कुछ तो दायित्व है , कुछ तो है जिम्मेवारी


इसतरह उपेक्षित और तिरस्कृत होकर

चारों तरफ चल रहे तरह -तरह के

नाटक और नौटंकी को देख - देख कर

माथा पीट रही है महामारी

उसके इस विकराल रूप में रहते हुए भी

न ही किसी को चिन्ता है न ही परवाह है

वह सोच रही है कि आखिर क्यों लेकर आई बीमारी

लग रहा है वह बहुत दुखी होकर

भारी मन से बोरिया -बिस्तर समेट कर

वापस जाने का कर रही है तैयारी .


Tuesday, September 15, 2020

कल भाग गई थी कविता .......

कल भाग गई थी कविता लिपि समेत

पन्नों के पिंजड़े को तोड़कर

लेखनी की आँखों में धूल झोंककर

सारे शब्दों और भावों के साथ

शुभकामनाओं और बधाइयों के 

अत्याधुनिक तोपों से

अंधाधुंध बरसते 

भाषाई प्रेम- गोलों से

खुद को बचाते हुए

अपने ही झंडाबरदारों से

छुपते हुए , छुपाते हुए

कानफोड़ू जयकारों से

न चाहकर भी भरमाते हुए

सच में ! कल भाग गई थी कविता

आज लौटी है 

विद्रुप सन्नाटों के बीच

न जाने क्या खोज रही है .

Saturday, May 30, 2020

मुझे निमित्त बना कर........

उन सारे सामान्य शब्दों से
एक असामान्य -सी , कविता कहना है 
उन्हीं साधारण -से शब्दों के जोड़ से
असाधारण से भी कुछ ज्यादा गहना है......

जैसे प्रेम से छुआ कोई स्पर्श
स्वयं ही आतुरता को कह जाए
जैसे श्वास के सहारे
कोई हृदय तक उतर आए.......

जैसे बंद आँखों से ही
वो अनदेखा दिख जाता है
जैसे मौनावलंबन भी
कुछ अनकहा कह जाता है.......

जैसे गहन अंधकार के बीच
एक बिजली कौंध जाती है 
जैसे बादलों को परे हटाकर
चाँदनी बाँहे फैला कर मुस्काती है ......

जैसे वीणा के तार पर मीठा छुअन
ध्वनियों के पार हो जाता है
जैसे नृत्य में नर्तक एकमेक हो
तन्मय हो जाता है.....

जैसे चित्रफलक पर
रंगों और कूचियों का मिलना
जैसे अनगढ़ पत्थरों को पूजने के लिए
प्राण भर- भरकर गढ़ना ......

जैसे कोई अद्भुत रहस्य
अनायास ही उद्घाटित हो जाता है
जैसे खुली मुट्ठी में भी
अनंत ऐश्वर्य भर आता है.....

जैसे व्यक्त होकर भी 
वो अव्यक्त रह जाता है
जैसे मुझे निमित्त बना कर
स्वयं कविता कह जाता है .....

निस्संदेह मेरे कहने में
कहने से भी कुछ ज्यादा है
पर जो कहा न जा सका
वो और भी बहुत ज्यादा है .