अनकिये से वादे थे टूट गए
हाथ थामे कभी हम थे चले
आँखों में एक से सपने पले
संग-संग सब हंसे और खेले
पीड़ाओं में भी थे घुले-मिले
कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए
रंगो के थे क्या मनहर मेले
बतकहियों के अनथक रेले
एक से बढ़के एक अलबेले
हर पीछे को बस आगे ठेले
कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए
उलझाते सुलझाते हुए झमेले
फाग आग सब मिलकर झेले
हुए कभी न हम ऐसे अकेले
उन दिनों को अब कैसे भूलें
कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए
हर रूठे को आवाज लगाऊं
रोऊं गाऊं और उन्हें मनाऊं
पर अब ये तो समझ न पाऊं
कि उन छूटे को कैसे बुलाऊं
कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए
यह पावन भाव उन समस्त पथगामियों एवं पथप्रदर्शकों को निवेदित है जिन्होंने इस ब्लॉग जगत को विपुल समृद्धि प्रदान किया है । आज जो दृष्टिगत हैं वे निःसंदेह ह्रदयग्राही हैं पर हृदय दौर्बल्यता दबंग यादों को लिए हुए बारंबार उस कल्पतरु की छांव में जाना चाहता है जहां पुनः यह कहने की इच्छा बलवती होती जाती है --- ये ब्लॉगिंग है जनाब !
वाह बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteआपकी पुरानी रचनाओं की स्वाद का सोंधापन भा गया।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ लाज़वाब है।
आपका स्नेहिल आमंत्रण अवश्य रूठे-छूटों को खींच लायेगा:)
सादर।
सुन्दर
ReplyDeleteकुछ रूठ गए कुछ छूट गए
ReplyDeleteअनकिये से वादे थे टूट गए
सही कहा छूटों को कैसे बूलाऊँ...लाजवाब लिखा है आपने और साथ ही पुरानी रचनाएं को इस तरह दर्शाना बहुत ही शानदार...
एक से बढ़कर एक हैं सभी रचनाएं...।
वाह!!!!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 18 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहर रूठे को आवाज लगाऊं
ReplyDeleteरोऊं गाऊं और उन्हें मनाऊं
पर अब ये तो समझ न पाऊं
कि उन छूटे को कैसे बुलाऊं..आपके सुंदर भावों के मोहपाश में बंधकर भूले बिसरे सब आना चाहेंगे..ईश्वर न करे कि कोई मजबूरी हो..।सुंदर रचनायें मन मोह गयीं..शुभकामनाएँ आपको..।
सादर नमन..
ReplyDeleteआभार दीदी..
अब सही और सटीक हूँ..
सादर...
यशोदा..
बहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. पुकार पहुँचेगी, सब आएँगे. ब्लॉगिंग की जय!
ReplyDeleteमुग्ध करती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteकुछ रूठ गए कुछ छूट गए
ReplyDeleteअनकिये से वादे थे टूट गए ..
अपनों की याद दिल से कभी नहीं जाती । अत्यंत सुन्दर सृजन ।
हमेशा की तरह लाजवाब
ReplyDeleteउलझाते सुलझाते हुए झमेले
ReplyDeleteफाग आग सब मिलकर झेले
हुए कभी न हम ऐसे अकेले
उन दिनों को अब कैसे भूलें
बहुत सुंदर रचना....
हृदयस्पर्शी...
वाह लाजबाव मन को छूती हुई बेहतरीन रचना
ReplyDeleteसमय की धारा आगे ही आगे बहती है, आपकी कविता पढ़कर यह गीत याद आ गया, ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...
ReplyDeleteयही तो जीवन है कुछ रुठ जाते हैं कुछ छुट जाते हैं पर जीवन चलता रहता है बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकई ब्लॉगर साथी है जो अब भी बहुत याद आते हैं
ReplyDeleteउनकी रचना अब भी बहलाती है उजड़े मन को।
बहुत सुंदर रचना।
नई रचना- समानता
हर रूठे को आवाज लगाऊं
ReplyDeleteरोऊं गाऊं और उन्हें मनाऊं
पर अब ये तो समझ न पाऊं
कि उन छूटे को कैसे बुलाऊं
सुन्दर रचना... कई बार यादें मीठी होती हैं... लेकिन जीवन का चक्र चलता ही रहता है.. गुजरी यादों को याद करती सुन्दर कविता...
बहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत कुछ छूटता ही कहां हैं! जिन भावनाओं और चिंताओं के प्रताप से ये पद्यावली जन्मी है, उनके प्रति सादर स्नेह अंजलि।
ReplyDeleteजीवन का ये एक यथार्थ रूप है,छुटना रूठना जुड़ना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है आपने। अहसासों को शब्द दे दिये।
अप्रतिम।
लीजिये प्रभु यीशु ने हमें पढ़ने के लिए भेज दिया।
ReplyDeleteमैंने भी ब्लॉग पढ़ने के लिए बहुत से फिल्टर लगाए थे. वाकई कुछ
ReplyDeleteकुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए
कोई अफसोस नहीं.
हृदय से जो की गई पुकार ,फिर तो आना ही था !हमेशा की तरह बहुत सुन्दर रचना !!
ReplyDeleteNice poem on Promise and loved ones.
ReplyDeletewater use in Agriculture
Life in a village