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Sunday, November 13, 2022

मेरे शिव ! तेरी जटा में अब कैसे समाऊँ ? ......

हाँ ! तेरे चरणों पर, बस लोट- लोट जाऊँ

हाँ ! माथा पटक- पटक कर, तुम्हें मनाऊँ

बता तो हृदय चीर- चीर, क्या सब बताऊँ ?

मेरी हरहर- सी वेदना के प्रचंड प्रवाह को

मेरे शिव ! तेरी जटा में अब कैसे समाऊँ ?


भगीरथ- सी पीर है, अब तो दपेट दो तुम

विह्वल व्यथा अधीर है, अब चपेट दो तुम

ये व्याधि ही परिधीर है, अब झपेट लो तुम 

बस तेरी जटा में ही, बँध कर रहना है मुझे 

अपने उस एक लट को भी, लपेट लो तुम 


हाँ ! नहीं- नहीं, अब और बहा नहीं जाता है

हाँ ! विपदा में, अब और रहा नहीं जाता है

इस असह्य विरह को भी, सहा नहीं जाता है

तू बता, कि कैसे और क्या- क्या करूँ- कहूँ ?

वेग वेदना का, अब और महा नहीं जाता है 


कहो तो ! अश्रुओं से चरणों को पखारती रहूँ

क्षतविक्षत- सी लहूलुहान हो कर पुकारती रहूँ

कभी तो सुनोगे मेरी, मानकर मैं गुहारती रहूँ

मेरी वेदना बाँध लो अब अपनी जटा में मेरे शिव !

या दुख-दुखकर ही तुम्हें टेरनि से पुचकारती रहूँ ?


Sunday, November 6, 2022

मुग्ध उन्नत चेतना भी ..........

नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है

शत- शत लहरियों के संग कोई खो रहा है

गगन में जैसे निर्बंध बहती वायु डोलती है

मुग्ध उन्नत चेतना भी न जाने क्या बोलती है ?


प्राणों से प्रतिध्वनि सुन कोई ध्वनि खोजता है

प्रणयी पुदगल को कोई निर्वेद-सा सरोजता है 

जैसे उमगित अंग तट के पार कुछ उमड़ती है 

वैसे ही परितृप्त हृदय में भी तृष्णा घुमड़ती है


जैसे रतकूजित कलियाँ चटक कर महमहाती है

जैसे सृष्टि गर्भकेसरिया- सी और फैल जाती है

कण- कण अनगिन स्फुरणाओं से डगमगाता है

एक व्याप्ति- सी छाती है, वय सिमट जाता है 


उस तल पर कुछ और से भी और घट जाता है

तब तो वह अनकहा भी चुप कहाँ रह पाता है ?

सूक्ष्म अनुभूतियाँ किंचित ही स्वर पा जाती हैं 

और विकलता उस अभिव्यक्ति से छा जाती है ।


Wednesday, October 26, 2022

श्वासों की शुभ दीपावली ! ........

मैंने अपने 

अर्चित आवाहन से

उत्सर्जित विकिरण से 

रोमांचित अंत:करण में 

पूर्वसंचित पावन से 

अंचित जतन से 

तेरे लिए जलाया है

प्राणद दिया !


तब तो तुम मेरे

प्रतिम सुप्रभा से

अप्रतिम चंद्रभा से 

रक्तिम आभा में 

अकृत्रिम प्रतिभा से

अंतिम प्रतिप्रभा से 

प्रकाशित हो रहे हो मुझमें 

अणद पिया !


अब तो तुम मेरे 

सीम-असीम से परे 

संयोग-वियोग से परे

उद्दोत हो, सत्वजोत हो

और मैं तो सदा से ही 

अमस तमस हूँ

जो बस तेरे लिए ही है

क्षण, अक्षण, अनुक्षण 

उद्विग्न, उद्वेल्लित, उतावली !


हाँ ! मैं तो हूँ 

चिरकमनीय, रमनीय, अनुगमनीय

सघन काली थ्यावस अमावस

और तुम हो मेरे

सनातन त्यौहार

ओ ! मेरे अन्धकार के प्रकाश

तुम ही तो हो मेरे 

आत्यंतिक, ऐकांतिक, शाश्वतिक 

श्वासों की शुभ दीपावली ।

                                  

                                    सृष्टि को जीवंत और चलायमान रखने वाली समस्त शक्तियों, पराशक्तियों की अनन्य उपासना ही तो उत्सव है। जो अनन्त सत्य, अनन्त चित्, अनन्त आनन्द से सतत् जराजीर्ण होते हुए तन-मन को उमंग और उत्साह से उन्नत करता है। साथ ही घनीभूत जीजिविषा समयानुवर्ती जड़ीभूत उदासीनता को अपनी उष्णता से उद्गगत करती हुई नव पल्लवन करती है। जब ओंकार की भाँति हृदय में पियानाद हर क्षण गुँजायमान हो जाता है तो आत्मा का उत्सव होता है। जिसमें हर दिन होली और हर रात दीपावली होती है। इस आत्म-उत्सव के पिया रँग में रँगी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।


Sunday, October 2, 2022

मुझमें लीन हो तुम.......

 माँ!

तेरा यह रूप

जो मैं देख रही हूँ

न जाने कैसे

क्या मैं लेख रही हूँ

जबकि पता है 

अलेख को ही

परिलेख रही हूँ

ये क्या मैं 

उल्लेख रही हूँ?

हाँ!

मैं तुझमें तन्मय

और मुझमें लीन हो तुम

तब तो महक रही हूँ मैं

जैसे अगरू, धूमी, कुंकुम 

जैसे बौर, कोंपल, कुसुम 

तब तो चहक रही हूँ मैं 

वह सब कह कर

कहने की जो बात नहीं

इन टूटे-फूटे वर्णों से छू कर

क्या तुम्हें ही कहती हूँ

ये तो मुझको ज्ञात नहीं 

हाँ!

कहना है 

तुम ही मेरी हँसी हो

गायन हो, रुदन हो

और कहना है कि 

जो कह नहीं सकती

जो कह नहीं पाती

वही वदन हो

तुम ही मोदन हो

कीर्तन हो, नर्तन हो

तुम ही आलंबन हो

तुम ही स्वावलंबन हो

माँ!

हर क्षण

श्रद्धा से आहुत प्राण है 

श्वास-श्वास में स्पर्शी त्राण है 

उमड़ता-ढलकता हृदय पूत है

इस क्षण में यही भाव अधिभूत है

तुम तुम तुम बस तुम ही हो

मैं मैं मैं सब तुम ही हो

सब तुम ही हो

बस तुम ही हो 

हाँ! माँ!

Sunday, September 18, 2022

इल्तिजा............

आजकल आप बहुत लिख रहे हैं भाई!

क्या आप क़लमकार हैं या क़लमकसाई!


लिखने से पहले जरा सोच भी लिजिए

निकले लफ़्ज़ों में जरा लोच भी दिजिए


यूँ बंदूक से निकली गोली की तरह फायर हैं

और कहते हैं कि आप नामचीन शायर हैं


क्या आप बस नाम के लिए ही लिखते हैं?

पर वैसे नाम वाले भी आप कहाँ दिखते हैं?


आपके अल्फ़ाजों की अदा तो निराली है

क्या आपने लिखने वाली भांग खा ली है?


आप ऐसे शोहरती नशे में हैं तो रहिए न

आपके जी में जो भी आए आप कहिए न


पर आपसे सब इत्तेफ़ाक़ ही रखे ज़रूरी है?

वाह! वाह! कर देना तो सबकी मज़बूरी है


जितनी जल्दी समझ जाएँगे तो अच्छा होगा

हमारी तरह ये कहने वाला कौन सच्चा होगा?


इल्तिजा इतनी ही है कि जरा-सा थम जाइए

ज़मानें भर का न सही पर अपना तो गम़ खाइए


किसी भी मुद्दे पर बस ऐसे शुरू ही हो जाते हैं

रहम कीजिए क़लम पर क्यों इतना तड़पाते हैं?


इतनी ही तड़प है तो कुछ जमीन पर कर दिखाइए

नहीं तो कंबल ओढ़कर खुद में ही सही बड़बड़ाइए


बदगुमानी से गुमराह करना भी तो इक गुनाह ही है

गोया सोचते भी नहीं कि उनमें ही कचरा बेपनाह है


क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं

हाँ! ये क़लमकसाई ही तो इसका असली निशाना है 


अपना मज़ाक़ बनाने के लिए भी हुजूर हिम्मत चाहिए

अरे! चुप न रहिए मुस्कुरा के ओठों को तो फैलाइए


क्यूंकि उम्रे-दराज यूँ ही मिल गया है कुछ दिन हमें तो

कुछ क़लम घसीटी में काटे हैं कुछ क़लम तोड़ी में काटेंगे।



                   अक्सर कुछ भी "लिखो फोबिया" के चक्कर में क़लम घसीटी का आलम ही जुदा हो जाता है। तब तो तड़प-तड़प कर क़लम के दिल से ऐसी ही इल्तिजा वाली आह निकलती है। पर हम तो ठहरे आला दर्जे का क़लमकसाई। अब क्या फर्क पड़ता है कि क़लम हमें घसीटती है या हम क़लम को। इसी घसीटाघसीटी में जुमला-बाज़ी तो हो गई। अब हमपर जिन्हें खुलकर फ़िकऱा-बाज़ी करनी है तो वे शौक़ से कर सकते हैं। तब तक हम इस्तक़बाल के लिए लफ़्ज़ तलाशते हैं। ताकि कुछ और जुमला-बाज़ी हो।                    

                                  "सुम्मा आमीन"

Sunday, September 11, 2022

शब्दबोध से शब्दत्व की ओर...........

सर्वप्रथम अपनी संस्कृति की समृद्ध परंपरा को भावप्राण से वंदन!

उसके मूल दर्शन-धर्म-कला-साहित्य-इतिहास को भावप्राण से वंदन!

अपने समस्त कवियों-मुनियों-ॠषियों-महर्षियों को भावप्राण से वंदन!

उनसे अनुसृत अनस्त लय-ताल-छंद-धुन-ध्वनि को भावप्राण से वंदन!

उनसे नि:सृत देवभाषा-मौखिकभाषा-लिखितभाषा-मातृभाषा को भावप्राण से वंदन! 

                      

                                शब्दबोध से शब्दत्व की ओर अनवरत यात्रा के क्रम में, स्वाभाविक रूप से शब्दमीमांसा की जिज्ञासा होती है। शब्दों का अर्थ-गर्भ से उत्पत्ति, व्युत्पत्ति, यथोपयोग सदुपयोग, अर्थगत अर्थचिंतन, अन्तरभाव-प्रभाव आदि-आदि सदा से ही कौतूहल का प्रबल आकर्षण रहा है। सत्य है कि हमारे देश में भाषा के अस्तित्व का अन्तरतम स्पंदन सुना जाए तो प्रत्येक शब्द में ज्ञानियों-परा ज्ञानियों की ध्वनियाँ, ओंकार की भाँति प्रतिध्वनित होती हैं। स्फोट सामर्थ्य के आधार पर हर एक शब्द स्वयं में अर्थवान, समर्थवान और अनेकार्थवान है। साथ ही हर शब्द में गूढ़ से गूढोत्तर रहस्य उद्घाटित होता है। जिससे विपुल एवं विराट् भावों का भी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर प्रकटीकरण, वैभविक रूप में किया जाता है। जो हमारी मानवीय चेतना को निरंतर परिमार्जित एवं परिष्कृत करता है।

                    हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा में स्वभिव्यक्त भावगम्य भावग्राहिता ही जीवत्व को शिवत्व की ओर ले जाती है। यह स्वयं में एक ऐसी अनूठी बात है कि विश्व की अन्य भाषाओं को हमारी भाषा से ईर्ष्यालु होना पड़ता है। इसलिए हमारे काव्य की भाषा, तथ्यों-कथ्यों से परे, उन सत्यों को भी रूपायित-निरूपित करती रहती है जिन्हें हम प्रामाणिक रूप से, प्रत्यक्षतः देख-सुन नहीं पाते हैं। किन्तु हम उन्हें, अनंतर एक अलौकिक तल पर, हृदय से आत्मसात् करते रहते हैं। तदनंतर, हम समष्टिगत जीवन के परम सत्य को शाब्दिक अभिव्यक्ति देते हुए, एक व्यष्टि के रूप में भी स्व-वेद का जन्म दाता होते हैं।

                                             भाषिक मर्श जनित चिन्ताएँ कहती है कि इस आधुनिक युग में आवश्यकता से अधिक पढ़ा-लिखा समाज, भाषा की सांस्कृतिक अर्थ-व्यंजनाओं से निरंतर कटते हुए, केवल समष्टि गत उत्पादक-उपभोक्ता बनता जा रहा है। गंभीर परिमर्श कहती है कि नव सृजन में गौण होता हुआ व्यक्ति या व्यक्तित्व, साहित्य-सृजन के मूल उद्देश्य की स्थापना में असमर्थ होता जा रहा है। आदर्श विमर्श भी कहती है कि एक स्वस्थ एवं सहृदय समाज को उत्तरोत्तर ऊर्द्धवारोहण करने की साहित्यिक अवधारणा, अनेक वादों में उलझकर दिग्भ्रमित हो रही है। परन्तु एक सत्य यह भी है कि साहित्य का प्रत्येक अध्येता अथवा कृतिकार ही स्व-कृति का सर्वप्रथम, सर्वप्रमुख एवं सर्वप्रमथ परीक्षक होता है। वह स्व-विवेक आधारित स्व-मूल्यों की कसौटी पर ही साहित्य सृजन के मूल उद्देश्य को प्राप्त करता है। हम जानते हैं कि साहित्य कला का भी मूल उद्देश्य आनन्द के साथ हमारा आत्मीक उन्नयन ही है। अतः व्यवहृत भाषा का आलोचना-समालोचना भी साहित्य सृजनशीलता को सदैव नव प्रतिमानों से सुसंस्कृत ही करता है।

                                     वैसे इतिहास भी साक्षी है कि प्रत्येक कालखंड में भाषज्ञ रचनात्मक भाषा एवं सार्थक संप्रेषण पर, गंभीरता से चिन्तन-मनन करते आए हैं। ऐसी चिन्तन शीलता भी अभिव्यक्ति के अनेक आयाम को पुनर्व्यवस्थापित-पुनर्व्याख्यायित ही करती है। पर देखा जाए तो किसी गतिशील समाज में यथार्थ संप्रेषण के लिए, भाषा की चिन्तन शक्ति भी सामानुपातिक रूप से बदलती रहती है। ऐसा बदलाव वर्तमान की स्थिति को अधिक सहनीय बनाने के साथ ही आधुनिक तनावों को कम करने में सक्रिय भूमिका भी निभाता है। चाहे उसका चुकाया हुआ मूल्य, शब्दों की प्रामाणिक संप्रेषण क्षमता का क्षरण अथवा प्रदूषण ही क्यों न हो। लेकिन किसी भी भाषा का विविध रूप में उपयोग किए बिना सामाजिक भी तो नहीं हुआ जा सकता है। साथ ही सामाजिक हुए बिना मानव भी तो नहीं हुआ जा सकता है। उसी मानवता के परिप्रेक्ष्य में भाषा के अस्तित्व को विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित करते हुए एक सम दृष्टिकोण से निर्मल और निर्भय संवाद किया जा सकता है। 

                                     अनेकानेक संवाद-परिसंवाद के मध्य ही हम अपनी सृजनशीलता में भाषा की आत्मा को सर्वोपरि रखकर, संपूर्ण मौलिक जगत से एक अटूट संबंध बनाते हुए स्वयंसिद्ध हो सकते हैं। शब्दबोध से शब्दत्व तक पहुँचने का केवल यही एक मार्ग है।

                                     

                             ***हार्दिक शुभकामनाएँ***   

Tuesday, September 6, 2022

इतिवृत्त ..........

जो चाहिए था- पा लिया

जो व्यर्थ था- गँवा दिया


जो कर्तव्य था- निभा दिया

जो अधिकार था-जता दिया


जो ॠण था- चुका दिया

जो अऋण था- लुटा दिया


वो आक्रोश था- जला दिया

वो विद्रोह था- लहका दिया


वो विवशता थी- मुरझा दिया

वो सुलह थी- सुलझा दिया


वो भ्रम था- बहला दिया

वो समझ थी- समझा दिया


वो विखंडन था- बिखरा दिया

वो पुनर्जोड़ था- सटा लिया


वो हार थी- हरा दिया

वो जीत थी- जिता दिया


वो रात थी- सुला दिया

वो सुबह थी- जगा दिया


वो धूप थी- तपा लिया

वो छाँव थी- बचा लिया


वो हवा थी- उड़ा दिया

वो पानी था- बहा दिया


वो क्षितिज था- झुका दिया

वो हठ था- अड़ा दिया


जो दिखावा था- दिखा दिया

जो खाली था- छिपा लिया


जो बंधन था- फँसा लिया

जो मुक्ति थी- झुठला दिया


जो साँसें थी- चला लिया

जो समय था- बिता दिया


जो वाक् था- बता दिया

जो मौन था- मना लिया 


हर वक्र ऋजु बिन्दुओं को- मिला दिया

हाँ! स्वयं को कुछ यूँ ही मैंने- जिला लिया।

               

                          ***

                                  

                  सच है कि स्वप्निल आँखें तबतक मीँचे ही पड़ीं रहना चाहतीं हैं जबतक कि कोई कल्पना का स्नेहसिक्त मृदुल कर, उसे स्वप्न की मोहावस्था से, काँच सम सँभाले हुए निकाल न दे। तब अधजगी-सी, आशान्वित आँखें भी स्वयं को धीरे-धीरे खोल कर, दिखते प्रकाश की अभ्यस्त होना चाहतीं हैं। किन्तु मादक मूर्च्छा ऐसी होती है कि पुनः-पुन: उन आँखों को स्वप्न-वीथिकाओं में खींच-खींच कर, उन्हें अभी और अलस करने को कहती रहती है। कदाचित् इस अलस का रहस् उजागर हो भी नहीं पाता है और रह जाता है तो केवल एक नीरव इंगित।

Thursday, May 26, 2022

किसकी आई प्यारी चीठी? ........

किसकी आई प्यारी चीठी?

उठी लालसा मीठी-मीठी

मीठा-मीठा दर्द उठा है

सुलगी है प्रीत की अँगीठी

किसकी आई प्यारी चीठी?


बहका फिर से तन और मन

मचला फिर से ये नव यौवन

उखड़ी ऐसी चढ़ती उमरिया

कहती बात काठ-सी कठेठी

किसकी आई प्यारी चीठी?


जब नैन लड़े तो कैसी लाज

चाहे गिर जाए कोई भी गाज

प्रीत ज्वाल धधक-धधक कर

भसम करे उमर की अमेठी

किसकी आई प्यारी चीठी?


जैसे सोलहवाँ साल लगा है

अकारथ सब मनोरथ जगा है

उँगलियाँ अनामिका से ही पूछे

किस अनामा का है ये अँगूठी?

किसकी आई प्यारी चीठी?


जबसे ऐसी-वैसी बात हुई है

विरह की भी लंबी रात हुई है

मिले वो तो हो मेरा भी सबेरा

अब रह न पाऊँ यूँ ही ठूँठी

किसकी आई प्यारी चीठी?


मन क्यों माने उमर की बात

चाहे कोई कहे उसे विजात

हाँ! प्रीत हुआ है मान लिया

जो ना मानूँ तो हो जाऊँ झूठी

किसकी आई प्यारी चीठी?


अब कोई दे कान कनेठी

या कह दे ये है मेरी हेठी

पर दर्द भी है कितना मीठा

लालसा भी है बड़ी मीठी

किसकी आई प्यारी चीठी?

Sunday, May 22, 2022

'अमृता तन्मय' : अपनी अन्तर्दृष्टि में

                                  अमृता तन्मय यदि चर्मचक्षुओं से दिख जाती तो उसके बारे में कुछ भी कहना सरल होता। सरल होता जब कह दिया जाता कि अमुक स्थान पर अमुक पात्रों के सौहार्द निधि के रूप में मानवी तन लिए एक आत्मा इस पृथ्वी पर अमुक-अमुक अभिनय हेतु, अमुक कालखंड में अवतरित हुई है। साथ ही कह दिया जाता कि उसकी भी वही समयानुकूल क्रमिक जागतिक दैनिक दिनचर्या है और कुछ समयधर्मी उपलब्धियाँ है। सच में, कितना सरल होता कुछ वाक्यों में ही उसके लिए सब कुछ कह दिया जाता और वह संपूर्ण परिचय की परिचायक हो जाती। पर तन्मय की धुरी पर घूमती हुई अमृता अपनी ही अन्तर्दृष्टि में पूर्व निर्धारित अभिनय के परिधि के बाहर भी प्रकृतिज है (श्री राम की कथा भी उनके जन्म से पहले लिखी गई थी)। वह काल के प्रवाह में क्षण-क्षण बदलते हुए प्राण रूपी दैवीय उपहार को कभी हर्ष से तो कभी विषाद से स्वीकार करती है। उसकी आज्ञाकारिता ' जो तुम्हारी इच्छा' पर निर्भर है, प्रत्येक कर्म-फल जनित प्रश्न-उत्तर के साथ। स्वयं के होने की प्रसन्नता और दु:ख के मध्य वह आनन्द को नीलकंठ की भांति धारण कर वेदना की तीक्ष्ण धार पर चलते हुए अपनी जीजिविषा के प्रायोजन को देख रही है। वह सत्यनिष्ठा से देख रही है कि उसकी मानसिक संरचना इस जागतिक संरचना से अधिक अर्थपूर्ण क्यों है। इस 'क्यों' के लिए ही उसे उसकी अन्तर्दृष्टि से देखना अधिक प्रामाणिक लग रहा है। 

                                          वैसे दृश्य ढांचा में वह एक साधारण काया है, ऋतुओं की भांति परिवर्तनशीलता की अनुगामी। किन्तु एक मौलिक कवि(इसके अतिरिक्त वह जो कुछ भी है, उसके विशिष्ट औरा से भी) के रूप में विविध एवं विलक्षण औरा से देदीप्यमान है। वह एक अति सरल और सहज जीवन की स्वामिनी है, स्व साम्राज्ञी है। उसके साम्राज्य में उपलब्ध समस्त बन्धु-बान्धवों, नाते-रिश्तों का वह स्व निष्ठा और उचित सावधानी से निर्वहन करती है। किन्तु वह सामूहिक और सामाजिक जीवन यापन करते हुए भी स्व दायित्व बोध को सर्वोपरि रखती है। वह जीवन यात्रा के सहयात्रियों को उद्योग और मनोयोग से पूरा सहयोग करती है। किन्तु मूल में वह स्वयं से स्वयं तक की एक ऐसी यात्री है जिसकी एन्द्रिय चेतना अन्य की अपेक्षा अधिक जागृत है, जिससे वह जगत को संवेदना के पटल पर प्रक्षेपित कर देखती और पहचानती है। (वैसे सभी कवि, कलाकार या पागल ऐसे ही होते हैं)। वह अपनी ही कसौटी पर अपनी ग्रहणशीलता का निर्मम परीक्षण करती है, जो उसकी आत्म-चर्चा के रूप में परिभाषित होती रहती है। वास्तव में वह स्वयं के माध्यम से इस संसार को ही संवेदनात्मक स्वर देती है।

                           वह आत्मदर्शी है, आत्मदर्पी है किन्तु आत्मश्लाघी नहीं है। उसे स्वयं के लिए कुछ भी कहने में इतना संकोच होता है कि उसकी मतानुसार छवि बना दी जाती है, जिसका वह कभी खंडन भी नहीं कर पाती है और वह उसकी सहमति मान ली जाती है। परिणाम स्वरूप अन्य उसके समीपस्थ होते हुए भी दूरस्थ होते हैं। जिससे उसे कहीं भी पूर्णतया खुलने में कठिनाई होती है। इसलिए वह आत्मरक्षा हेतु कछुए के कवच से भी कठोर आवरण में रहती है। यदि उसपर अघात-अनाघात न पड़े तो बहुधा वह उस आवरण से बाहर निकलना भी भूल जाती है। साथ ही एकांतप्रियता के कारण वह दीर्घकाल तक अपने मौन में ही समाधिस्थ रहती है। जब वह अपने आवरण से बाहर निकलती है तो उसे प्रतीत होता है कि यदि वह कवि नहीं होती तो संभवतः वाक् हीन होती। कारण पुनरावृत्तियों की पुनरावृत्ति उसे अपने आकर्षण में बाँध नहीं पाती है और वह निर्रथक प्रलाप को निषिद्ध मानती है। इसलिए वह तब तक निष्चेष्ट बनी रहती है जब तक कि कोई विशेष परिस्थिति उसे धकियाते हुए चेष्टा रत न कर दे। हालांकि चेष्टा रत होते हुए भी वह तटस्थ ही रहती है। पूर्व नियोजित प्रारब्ध पर उसकी दृढ़ आस्था ही उसके इस स्वभाव को शान्त और निश्छल बनाए रखती है। लेकिन जब कभी वह अंतरतम से आहत होती है तो भुजंगिनी के समान फुफकारती भी है। (तदपि वह काटती नहीं है)। लेकिन उसका एकांत उसकी इस दुर्बलता को समझा-बुझा कर शांत कर देता है।

                           वह वाक् संयमी है, वाक् सिद्ध है किन्तु वाक् प्रसारी नहीं है। उसे सूत्रों और सुक्तों में ही बोलना प्रिय है। जिससे अधिकाधिक भ्रमकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है, परन्तु स्वस्थ और सार्थक संवाद के लिए लचीला रुख अपनाते हुए, वह वार्तालाप हेतु स्पष्ट और सुभाषित बोलने का प्रयास करती है। लेकिन अपेक्षाकृत वह एक धीर-गंभीर श्रोता ही है और अपने समभागियों की निजी अनुभूतियों के भेद को भी स्वयं तक रखती है। वह निजता की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए खींची गई सीमा तक अस्पृश्य ही रहती है। वह न तो अन्य के जीवन में हस्तक्षेप करती है और न ही किसी को स्वयं के जीवन में हस्तक्षेप करने देती है। वह जितनी स्वतंत्रता औरों से चाहती है, उससे कहीं अधिक औरों को देती भी है। जिसके आधार पर वह स्व अधिकारों को पोषित करते हुए क्लेश मुक्त रहती है। लेकिन अधिकत: सहभावी उसके बनाए गए लघु घेरे का खुला उपहास उड़ाते हुए, उसे विलगता का बोध कराते हैं। जिसे वह भी आत्मीयता और उदारता से स्वीकार करती है।

                                      मन:क्षेप में, उसकी सत्यनिष्ठा ये भी कहती है कि यह अन्तरविरोधात्मक आत्म स्वीकृति भी उसका पूर्णतया वास्तविक सत्य नहीं है। कारण एक रचनात्मक प्रकृति सतत् परिवर्तनशील दृष्टि से स्वयं का कभी भी खंडन या शोधन कर सकती है। इस समयोचित प्रक्रिया में स्व व्यवधान उत्पन्न न करना ही उसका परम ध्येय और विशेष परिचय होना चाहिए। वैसे 'स्व कथा अनंता' तो सब कहा नहीं जा सकता है और सदैव शेष रहना ही चाहिए।


                                               ***


                    *** एक अद्भुत, आर्द्र आत्मीयता से मेरा परिचय पूछा गया तो अपनी गहराई में न चाहते हुए भी उतरना पड़ा। लेकिन बहुत खोजने पर भी मेरे परिचय का कुछ पता नहीं चला कि- मैं कौन हूँ? कठोर परिश्रम करते हुए जब अपनी ही गहरी जड़ों को खुरचा तो कुछ ऐसा दिखा।***

Sunday, May 15, 2022

मुझे किसने है पुकारा?........

अरे! ये किसकी गूँज है, मुझे किसने है पुकारा?

कि चेतना कुनकाने लगी है
स्मृतियाँ अकचकाने लगी है
विस्मृतियाँ चुरचुराने लगी है
नींद तो बड़ी गहरी है किन्तु
चिर स्वप्नों को ठुनकाने लगी है
कौन हाँक लगा मुझे है दुलारा?
ओह! ये किसकी हेरी है, मुझे किसने है पुकारा?

ये स्नेह स्वर कितना अनुरागी है
कि भीतर पूर नत् श्रद्धा जागी है
भ्रमासक्ति थी कि मन वित्तरागी है
औचक उचक हृदय थिरक उठा 
आह्लादित रोम-रोम अहोभागी है
कैसा अछूता छुअन ने है पुचकारा?
आह! ये किसकी टेर है, मुझे किसने है पुकारा?

कि फूट पड़े हैं सब बेसुध गान
कण-कण में भर अलौकिक तान
जो है अद्भुत, मनोहर, अभिराम
उस अनकही कृतज्ञता को कह
किलक कर झूम रहा है प्राण
किसके प्रेम ने मुझे है मुलकारा?
अहा! ये किसकी हँकार है, मुझे किसने है पुकारा?

अरे! ये किसकी गूँज है, मुझे किसने है पुकारा?

                     *** मेरे समस्त प्रेमियों की बारंबार
                       प्रेमिल पुकार के लिए हार्दिक आभार ***

Thursday, April 14, 2022

तुम्हें अमिरस पिलाना है .........

जब-जब तेरे, सारे दुख कल्पित हो जाए

जाने-अनजाने में ही, मन निर्मित हो जाए

उसमें स्थायी सुख भी, सम्मिलित हो जाए

तब-तब मुझे, तेरे विवश प्राणों तक आना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो

जो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो

जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो

तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


यदि मार्ग के ही मोह में, कभी भटक जाओ

या अपने ही सूनेपन में, यूँ ही अटक जाओ

या दूषित दृष्टियों में, जो कभी खटक जाओ

आकर तेरे अंतर्तम में, मधुमास खिलाना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


देखो न हर बूँद में ही, ऐसे अमृत टपक रहा है

देखो तो जो चातक है, उसे कैसे लपक रहा है

कहाँ खोकर बस तू, क्यों पलकें झपक रहा है

आओ! अंजुरी भर के, तुम्हें अमिरस पिलाना है

हाँ! तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है ।

Saturday, March 19, 2022

अभी तो नशे में चूर हूँ ........

फागुनी मदिरा पीकर

अभी तो नशे में चूर हूँ

कोई टोकना न मुझे 

गरूर में कुछ ज्यादा ही मगरूर हूँ

अभी तो नशे में चूर हूँ


रंगों की रिमझिम फुहार होकर

मधुबन का मधुर उपहार होकर

वन-उपवन में केसर-चंदन घोल

उड़ती-फिरती रास-बहार होकर

सबको जवानी का सिंगार करके

डोल रही हूँ जगती खुमार होकर

हास-फुल्लोल्लास का गुलाल बन मैं

बहुत ही प्यारी, बसीली, मीठी 

बिखरी-बिखरी मोतीचूर हूँ

कोई ठोकना न मुझे

अभी तो नशे में चूर हूँ


देखो आँख मेरी है रसीली

और बात मेरी है कितनी हँसीली

आओ, फैला बाँहें सबको बुलाती हूँ 

मुझसे अहक कर ही पास जो आता है

फिर बहक कर भी कभी न दूर जाता है

सच में मैं हो गई हूँ इतनी ही लसीली

कि बोल-बोल है मेरा आमंत्रण

कि खोल-खोल सब बसंती अवगुंठन

मैं ही तो हर्ष हूँ, मोद हूँ, सूर हूँ

कोई बिलोकना न मुझे

अभी तो नशे में चूर हूँ


अक्षर-अक्षर न डोला तो कैसा नशा?

शब्द-शब्द जो न हो बड़बोला तो कैसा नशा?

भाव-भाव गर न खाए हिचकोला तो कैसा नशा?

सब ढंग-बेढंग न हो तो कैसा नशा?

सब रंग-भंग न हुआ तो कैसा नशा?

सब चाल-बेचाल न हुआ तो कैसा नशा?

सब ताल-बेताल न हुआ तो कैसा नशा?

अंगूरी मदिरा भी न होती है ऐसी मादक

मैं कुछ और ही छक कर चकचूर हूँ

कोई रोकना न मुझे

अभी तो नशे में चूर हूँ


फागुनी मदिरा पीकर

अभी तो नशे में चूर हूँ

कोई मोकना न मुझे

सुरूर में कुछ ज्यादा ही मशहूर हूँ

अभी तो नशे में चूर हूँ।

*** समस्त नशेड़ियों को मतियाया हुआ शुभकामना ***

Thursday, March 10, 2022

मंज़ूर-ए-हमारा होगा ! ........

हाँ! हम समंदर हैं

अपने खारेपन से ही खुश

ज्वार और सुनामी को इशारों पर नचाती हुईं

प्रचंड और विनाशकारी भी

गहराई में गंभीर, शांत और स्थिर

पर हम नहीं चाहतीं कि हममें कोई लहरें उठे

कोई भी भँवर बने तुम्हारे मनबहलाव के 

फेंके गए फालतू कचरों से ...........

हम नहीं चाहतीं कि

हमसे मुठभेड़ करती तुम्हारी मनमर्जियाँ

हमारी बाध्यता हो चाहना के उलट

पलट कर तुम्हें देखने की .......

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारे दिये गये

कागजी फूलों से बास मारती हुई

बेरूखी की महक हमारे बदन को 

और बदबूदार बनाए ..........

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारे सोने मढ़े दाँतो के भीतर 

कुलबुलाते कीड़ों को

चुपचाप अनदेखा कर

तुम्हें खुश करने के लिए

अपनी बदनसीबी पर भी मोतियों-सी हँसी 

तुम्हें ही दिखाएँ ..........

हम नहीं चाहतीं कि

तुम्हारी तय की गई रणनीतियों के तहत

खुद से ही लड़तीं रहें घिनौनी लड़ाइयाँ

अपनी ही इच्छाओं और सपनों को मारते हुए

ताकि तुम मनमानी कर जीत का कराहत जश्न

हमारे ही तार-तार हुए वजूद पर मना सको .......

हम नहीं चाहतीं कि

हमारी रूह फ़ना होती रहे धोखों व फ़रेबों वाली

तुम्हारी मोहब्बत पर मोहताज हो कर

और तुम हमारा मज़लूमियत का मजे ले कर

मजाक उड़ाओ हमारी ही बेवकूफियों का ......

बस! अब बहुत हो चुका

बंद करो! वो सबकुछ जो तुम 

हमारी फ़िदाई का फ़ायदा उठाते हुए

हमपर ही ज़ुल्म करते आए हो सदियों से ......

अब सब गंदा खेल बंद करो!

जो तुम खेलते आए हो हमारे साथ

युगों-युगों से तरह-तरह से

जो हम नहीं चाहतीं 

हमसे जबरन वो सब करवा कर

हमें डरा कर, बहला-फुसलाकर

और हमारी ही प्रतिकृतियों को

हमारे ही अंदर मरवा कर ..........

अब तो समझ जाओ!

तुम्हारे उकसाने पर जितनी लड़ाइयाँ

हम खुद से ही लड़ते आए हैं

वो तुमसे भी लड़ सकते हैं

गुलामी की जंजीरों में बाँधकर जो

तिल-तिल कर ऐसे मारते हो हमें

तो हम खुद ही तुम्हें मारकर

अपनी मर्जी से मर सकतें हैं ..........

हाँ! जब खुशी से सबकुछ हार कर

हम तुम्हारे लिए कुछ भी कर के

हर हाल में खुश रह सकते हैं 

सोचो! जो तुम्हें ही हराने लगे 

तुम्हें तुम्हारी ही औकात बताने लगे

हम क्या हैं और क्या हो सकतीं हैं

तुम्हारे ही छाती पर पाँव रख समझाने लगें

और प्रलयकारी तांडव से सृष्टि को कँपाने लगें

तो तुम सोच भी नहीं सकते कि क्या होगा ........

इसलिए याद रखो!

तुम्हारा ही वजूद बस और बस हमसे है

हमें कुछ मत कहना क्योंकि सच को

हम जानतें हैं कि हमारा भी होना तुमसे हैं

गर कभी सच को हम इनकार कर दें

व इनकार कर दें अपने अंदर तुम्हें रखने से

फिर हम भी किसी कीमत पर

तुम्हारी तरह ही न बदलें

तुम्हारे ही लाख रोने, गाने और चखने से

तो हमारा जो है सो है

पर तुम्हारा क्या होगा?

हमसे बेहतर तो तुम्हें पता होना चाहिए 

कि हमारे इनकार से क्या होगा

गर नहीं पता है तो 

अब हम तुम्हें अगाह करते हैं

और तुम्हारे कानों में चिल्लाते हुए

चेतावनी देकर जोर-जोर से कहते हैं 

कि अब सच में तुम बदल जाओ!

समय रहते ही सँभल जाओ!

वर्ना वजूद की आखिरी लड़ाई होगी तो 

हमारा किया भी वो सबकुछ जायज होगा

जो हमनें तुम पर रहम कर किया नहीं है

फिर मत कहना कि हमनें तुम्हें कहा नहीं है

इसलिए फिर से हम तुम्हें कह रहें हैं

सुन लो! अबतक हमारा अंजाम तय करने वाले

रूक जाओ! हमारी जान पर ही जीने वाले

नहीं तो अब से तुम्हारा भी अंजाम वही होगा

जो मंज़ूर-ए-हमारा होगा।

Sunday, February 27, 2022

का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !...........

                       सबसे पहले ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को भारी हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। फिर वह उन के श्री चरणों में लोट-पोट कर अपने इस धृष्टता भरे लेख के लिए क्षमा याचना करता है। वह अपनी कलम की गवाही में कुबूल करता है कि ये क्षमा याचिका भी उस की मन मारी हुई मजबूरी है। साथ ही हाथ जोड़कर दरख़्वास्त करता है कि इसे किसी खास मकसद के लिए कृपया पैंतराबाजी हरगिज न समझा जाए। हाँ! अगर इस लेखक के हिमाकत भरी मूर्खता पर व्यंग्य-क्रोध मिश्रित हँसी आती है तो कृपया इसे लेखक की लाचारी की खिल्ली उड़ाते हुए न रोका जाए। क्योंकि वह खुद इसतरह से अपनी जगहँसाई करवा रहा है। वह इकरार करता है कि ये सब कहते हुए उसे जरूरत से ज्यादा शर्म आ रही है और डर भी लग रहा है। पर यदि वह न कहे तो, जो इक्का-दुक्का इच्छाधारी पाठक इसे गलती से पढ़ लेते हैं, वे भी कहीं इस अक्ल के आन्हर से खुलेआम नाराज होकर बिदक न जाएँ। आजकल भला डर की महिमा से कौन अंजान है? हर तरफ सिर्फ डर का ही तो राज है। वैसे ये लेखक डर का गुणगान कर विषयांतर नहीं होना चाहता है। बाकी तो पाठक खुद ही अपने चारों तरफ देख ही रहें हैं। तो मुद्दे की बात ये है कि जहाँ कोई पाठक किसी भी लेखक को अब पढ़ने के लिए राजी नहीं है तो शायद कहा जा सकता है कि पाठकों का "डर बिनु लेखन न होई"। 

                                            जाहिर है कि लेखन भी सिर्फ उन विलुप्त प्रजाति के अदृश्य पाठकों की पसंद-नापसंद का मोहताज हो गया है जो अब सच में आन्हर हो गये हैं। वे भला आन्हर क्यों न हों? आखिर कब तक उन भोले-भाले पाठकों की आँखों में इसतरह के कचरा-लेखन को झोंक-झोंक कर, अपने शौक और सनक से आन्हर हुए, तथाकथित लेखक गण ऐसे वैचारिक शोषण कर सकते हैं? आखिर कब तक सीधे-सादे पाठक, जानबूझकर उनपर थोपे हुए मानसिक विलासितापूर्ण लेखन की गुलामी करते रहेंगे? इसलिए अब वें अपने पढ़ने की तलब को ही अपना त्रिनेत्र खोल कर आग लगा रहें हैं। वें अपना विद्रोही बिगुल भी जोर-जोर से फूँक कर अपने आन्हर और बहिर होने का डंका भी पीट रहें हैं। तब तो वें लेखकों के लाख लुभावने वादे या गरियाने- गिरगिराने के बावजूद भी उन्हें पढ़ने नहीं आ रहें हैं। न चाहते हुए भी अब लेखक गण अपना लेखन-खाल उतार कर संन्यास लेने को मजबूर हैं। आखिर पापी प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है। फिर अपने रुदन-सम्मेलन में सामूहिक रूप से विलाप भी कर रहें हैं कि- "का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर।"

                       मजबूरन कुकुरमुत्ते-से उग आए लेखक ही एक-दूसरे को मन-ही-मन कोसते हुए त्वरणीय पाठक का स्वांग रच रहे हैं(अपने लेखन पर कुछ ज्यादा ही गुरूर करते हुए)। पर मजाल है कि बतौर पाठक वें किसी की आलोचना कर दें। वैसे भी आलोचना तो अब लेखन-पाठन के उसूलों के खिलाफ ही हो गया है। अब वे पूरे होशो-हवास में दोधारी तलवार पर चलते हुए, बस तारीफों के गाइडलाइंस का पालन भर कर रहें हैं। यदि कभी अपने गुमान के बहकावे में आकर, वें फिसल गये तो तय है कि सीधे लेखक-पाठक बिरादरी से बाहर ही गिरेंगे। फिर तो उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। बस इसी डर से इस माफीनामा का ऐसा मस्का माननीय पाठकों को मारा जा रहा है। वर्ना कोई नामचीन लेखक होता तो अपना मूर्खई लेखन-लट्ठ सीधे-सीधे उनके सिर पर ही दे मारता। चाहे उनको ब्रेन स्ट्रोक क्यों न हो जाता। चाहे वें कोमा में ही क्यों न चले जाते। खैर..... 

                                      तो उसके इस बेबाकी को बस पूज्यनीय पाठक गण दिल पर न लें। उन्हें दिमाग पर भी लेने की कतई जरूरत है ही नहीं (वैसे नामचीनों को भी कौन पाठक दिलो-दिमाग पर लेता है, बस वे ही नामचीन होने का वहम दिलो-दिमाग पर लिए फिरते हैं )। ये कुबूलनामा इस दीन-हीन, खिसियानी बिल्ली की तरह, खार खाए हुए लेखक का वो दर्द है, जिसे लिए वह पाठकों का बात-लात खा-पीकर भी हासिए से बाहर होना नहीं चाहता है। वह अपने जुनून में लेखकों की पिछली कतार का पूँछ पकड़े हुए है। वह बड़ी मुश्किल से अपने नाम की घिसी-पिटी तख्ती को दिखाने के वास्ते ऐसा जद्दोजहद कर रहा है। इसलिए उसके इस कुबूलनामा को हाजिर-नाजिर मानते हुए उसे खैरात में ही सही फेंकी हुई माफी जरूर मिलनी चाहिए। साथ ही उसे अपनी बात थोड़ी-बहुत बेइमानी वाली ईमानदारी से कहने की, पूरी आजादी भी मिलनी चाहिए। बशर्ते उसकी ये नादान गुस्ताखी उसी के सिर का इनाम न हो जाए। 

                             फिर से ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को अपना फटेहाल हाल कह कर अब हल्के हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। हार्दिक आभार।

Monday, February 21, 2022

ऐ आदमी ! ........

ऐ आदमी !

नग्न हो कर

मुझ आदमी तक आओ !

जैसे मैं आती हूँ तुम तक

जबरन चिपकाए गए 

आदमीपन को खुरच कर

तो ही देख पाती हूँ

खुद को साफ-साफ

तुमको आर-पार देखते हुए....

जो पहन लोगे तुम

झीना-सा भी कुछ

तो नहीं देख पाओगे

मुझे भी, खुद को भी

आदमी हो कर

आदमी की तरह !

पर आदमीपन दिखाने के लिए भी

आदमी नहीं रहोगे और

बात-बात पर

निकालोगे अपना

खून लगा हुआ जीभ !

फँसी हड्डियों में

कटकटाता हुआ दाँत !

लोथड़े से सना नाखून !

छटपटाता हुआ पंजा !

सबकुछ नोच खाने के लिए.....

ऐ आदमी ! 

आदमी होने के लिए

ऐसे आदमीपन को

झटके से खसोट दो !

और वही हो जाओ 

जो तुम हो....

तोड़ दो रूढ़ियों को !

बदल दो परंपराओं को !

खोल दो बेड़ियों को !

छोड़ दो पूर्वाग्रहों को !

उतार दो आडंबरों को !

मुँह पर थप्पड़ मारो !

होश में आओ !

और फेंक दो 

अपनी सारी केंचुलियाँ

जो तुम्हारी नग्नता को

बलात् ढकने पर आमादा है....

जला दो उन पुरावशेषों को

जो तुम्हें पहनाती है

सभ्यता का पत्थरचटा लबादा !

भुला दो जो तुम्हें अबतक

बार-बार बताया गया है

जिसे गलती से भी भूलने पर

तुम्हारी भयावह भूल बता

तुम्हें हर बार पशु-सा

डराया गया है, सताया गया है....

फिर तुमपर थोपी हुई 

आदमीयत से भी

लात मारकर गिराया गया है !

ऐ आदमी !

आदमी होने के लिए

पूछो, चिल्ला कर पूछो !

उन सबसे पूछो

क्यों तुमको ढाँचे में ढाल

उनके पैमाने से तुम्हें

आदमी बनाया गया है?

आदमी, एक ऐसा आदमी !

जो देख नहीं सकता !

जो बोल नहीं सकता !

जो सुन नहीं सकता !

अपनी ही नग्नता को

अपने सामने भी 

खोल नहीं सकता !

कभी खोल जो दे तो

उन हैवानात के

जालिम आदमीयत से ही

जीते जी मारा जाता है !

शायद इसीलिए तो सबके लिए

सभ्य आदमी बन पाता है.....

लेकिन अपनी नग्नता को

नकारता हुआ, ढकता हुआ

शर्माया-सा सभ्य आदमी भी

अपने जिंदा-मुर्दा होने के

बीच के फर्क को भुलाकर

और क्या कर पाता है?

बस बेबस, बेचारा होकर

उन आदमखोर मछलियों के

स्वाद के हिसाब से

उनके ही कटिया में 

बुरी तरह से फँसा हुआ

लजीज चारा ही हो जाता है।


Monday, February 14, 2022

शून्य लिख दो ....….

ढाई आखर के

प्रेम की चिट्ठी में

शून्य लिख दो

जो विरह होगा

प्रतीक्षा करो

कभी तो 

वो मिलन 

पढ़ा जाएगा

और तुम्हारा

प्रेम स्वयं ही

तुम तक

चला आएगा.

     ***

तुमने

तनिक जो

भरे नयनों से

देख क्या लिया

अज्ञात ॠचाएँ

ऊर्ध्व वेग से

हृदय- व्योम में

गूँजने लगी है

अब ये भी बता देते

कि क्षर-अक्षर सबमें

क्या प्रेमवेद

और प्रेमोपनिषद् 

प्रकट हो रहा है ?

     ***

प्रेम प्रलय में

जब कुछ भी

नहीं बचेगा

सबकुछ

खो जाएगा

पीड़ा के प्रवाह में

तब भी एक 

उत्तप्त हृदय

बचा रहेगा

डोंगी बन कर

वह प्रेम का ही होगा.

Thursday, February 10, 2022

यक्ष प्रश्नोत्तर ! ......

यक्ष प्रश्न -

मैं क्या होना चाहूँगी अगले जन्म में ?

यक्ष प्रश्नोत्तर - मैं होना चाहूँगी.......

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में

जो मैं हूँ वही होना चाहूँगी - अमृता तन्मय !

अमृता तन्मय बस एक नाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक संबोधन भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिचय भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक परिणाम भर नहीं है

अमृता तन्मय बस एक पूर्णविराम भर ही नहीं है

ये वो है जो अमृता तन्मय की हर जानी-पहचानी

कोष्ठिका की इंगित से इतर है, अणुतर है, अनंतर है

ये आत्मोपस्थिति तो उसकी आत्मोत्सृष्टि के समानांतर है

अमृता तन्मय वो अस्तित्व है जो सन्दर्भ को सत्य से जोड़ती है

अमृता तन्मय वो चेतना है जो हर काल को झझकोरती है

अमृता तन्मय वो सौन्दर्य है जो शिवत्व की ओर मोड़ती है

अमृता तन्मय सृष्टि की अनहद ओंकार है

अमृता तन्मय स्वस्फुरण का मृदुल हुंकार है

मुझे हर जन्म में अमृता तन्मय ही अंगीकार है

हाँ ! मैं होना चाहूँगी अमृता तन्मय ही

अगले, अगले या फिर हर जन्म में ।

                                            

                                           अचानक से कोई अन्य अथवा अनन्य इस तरह का रोमांचक यक्ष प्रश्न कर बैठता है तो तत्क्षण स्वयं से समालाप होने लगता है। हमारा उत्सुक स्वभाव ही ऐसा है कि हम कई यक्ष प्रश्नों का काल्पनिक अथवा वास्तविक उत्तर एक-दूसरे से पाना चाहते हैं। उन उत्तरों में हम अन्य के अपेक्षा स्वयं को ही अधिक खोजते हैं। इस तरह की खोज हमें आत्म अन्वेषण से आत्म संतुष्टि तक ले जाती है। इसलिए यथोचित उत्तर चाहता हुआ हमारा मन भी कहीं भीतर गहरे में जाकर अपनी पड़ताल करने लगता है कि वह अपने इस होने से संतुष्ट/प्रसन्न है अथवा नहीं। जाना हुआ उत्तर या दिया गया उत्तर संतोषजनक हो अथवा नहीं हो परन्तु मौलिक/ नयेपन का अवश्य आभास देता है। जो सच में चिरन्तन के तनाव से परे हटाकर हमें नवजन्म के लिए रोमांचित करता है।

Thursday, February 3, 2022

कल्पवासी बसंत........

हमारी निजन निजता से नि:सृत

प्रीछित प्रीत की गाथाएँ हैं विस्तृत

उसे अब अनकहा ही मत रहने दो

यदि तुम कहो तो वो हो जाए अमृत


कह दो कि इन्द्रियों पर वश नहीं चलता

कह दो कि संयम ऐसे अधीर हो उठता

है बारहों मास तन-मन का रुत बसंती

मदमाया प्राण रह-रह कर है मचलता


कह दो हर क्षण बिना रंग का खेले होली 

क्ह दो बिना भांग के ही बहकती है बोली 

जो कहा न जाए वो सब भी कहलवाना

कहो कि कैसी होती है प्रीत की ठिठोली 


कह दो कि मुझको आलिंगन में भर कर

कह दो कि मुझको चुंबनों से जकड़ कर

औचक ही चेतना भी क्यों चौंक जाती है ?

क्यों सुप्त चंचलता आ जाती है उभर कर ?


कैसे कल्प प्रयाग में हुआ है अनोखा संगम ?

कहो कैसे स्खलन हो गया कालजयी स्तंभन ?

कह भी दो कि प्रेम-यज्ञ में ही आहुत होकर

कैसे प्रेमिक कल्पवास को किया हृदयंगम ?


कह दो कि कौन करे अब किसी और की पूजा

कहो कैसे मुझमें डूबे कि अब रहा न कोई दूजा

वरदाई अभिगमन के भेद भरे सब राज खोलो

कह दो कि हमने जो जिया कितना है अदूजा


अब तो इन अधरों पर धर ही दो अधरों को

कहीं सब कह कर के कँपा न दे धराधरों को

क्या प्रीत की गरिमा इतनी होती है श्लाघी ?

या चुहल में यूँ ही चसकाती है सुधाधरों को ?


क्या हम पर प्रेम-भंग का असर हुआ है ?

या अभिसारी बसंत ही अभिसर हुआ है ?

या इस माघ-फागुनी प्रेमिक कल्पवास में

उधरा-उधरा कर परिमल ही प्रसर हुआ है ?


कह दो वो अनकहा ही कण-कण खिला है

कहो खुला देहबंध तो प्रेम-समाधि मिला है

जो तुम न कह पाओ तो श्वास-श्वास कहेगा

कि कल्पवासी बसंत कैसे बूँद-बूँद पिघला है .


Sunday, January 30, 2022

सर्जक का श्राप ! .........

                   कभी-कभी इस सर्जक का क्रोध सातवें आसमान से भी बहुत-बहुत ऊपर चला जाता है। शायद बहुत-बहुत ऊपर ही कोई स्वर्ग या नर्क जैसी जगह है, बिल्कुल वहीं पर। हालाँकि उस जगह को यह सर्जक कभी यूँ ही तफरीह के लिए जाकर अपनी आँखों से नहीं देखा है। वह इसका कारण सोचता है तो उसके समझ में यही बात आती है कि वह दिन-रात अपने सृजन-साधना में इतना ज्यादा व्यस्त रहता है कि वहाँ जाने का समय ही नहीं निकाल पाया है। वर्ना वह भला रुकने वाला था। आये दिन वह बस यूँ ही मौज-मस्ती के लिए वहाँ जाता रहता और यहाँ आकर,  मजे से आपको आँखों देखा हाल लिख-लिख कर बताता। हाँ! उस जगह के बारे में उसने बहुत-कुछ पढ़ा-सुना जरूर है। जिसके आधार पर उसने खूब कल्पनाएँ की है, खूब कलम घसीटी है और खूब वाद-विवाद भी किया है। फिर अपनी बे-सिर-पैर वाली तर्को से सबसे जीता भी है। वैसे आप भी जान लें कि यह वही जगह है जहाँ हमारे देवताओं-अप्सराओं के साथ-साथ हमारी पूजनीय पृथ्वी-त्यक्ताएँ आत्माएँ भी रहती हैं। अब कौन-सी आत्मा कहाँ रहती है ये तो सर्जक को सही-सही पता नहीं है। इसलिए वह मान रहा है कि सारी विशिष्ट आत्माएँ स्वर्ग में ही रहती होंगी और सारी साधारण आत्माएँ  नर्क में होंगी। जैसी हमारी पृथ्वी की व्यवस्था है। अमीरों के लिए स्वर्ग और गरीबों के लिए नर्क।

                               अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस सर्जक को हमारे ऋषियों-मुनियों से भी बहुत ज्यादा क्रोध क्यों आता है? वैसे आप ये भी जान लें कि हमारे वही पूर्वपुरुष, श्रद्धेय ऋषि-मुनि जो प्रथम सर्जक भी हैं और जिनकी हम संतान हैं। तो उनका थोड़ा-बहुत गुण-दोष हममें रहेगा ही। साथ ही उनके बारे में ये भी पढ़ने-सुनने में आता है कि वे यदा-कदा, छोटी-छोटी बातों पर भी अत्यधिक रुष्ट हो कर बड़ा-बडा श्राप दे दिया करते थे। वो भी बिना सोचे-समझे कि ये हो जाओ, वो हो जाओ, ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा वगैरह-वगैरह। अब लो! क्षणिक क्रोध के आवेश में तो जन्म-जन्मान्तर का श्राप दे डाले और बाद में अपने किये पर बैठकर पछता रहे हैं। फिर तो श्रापित पात्र उनका पैर पकड़ कर, क्षमा याचना कर-कर के उन्हें मनाये जा रहा है, मनाये जा रहा है। तब थोड़ा-सा क्रोध कम करके, वे ही श्राप-शमन का उपाय भी बताए जा रहे हैं। हाँ तो! बिल्कुल वैसा ही क्रोध लिए यह सर्जक भी स्वर्ग पहुँच कर अपने क्षणिक नहीं वरन् दीर्घकालिक क्रोध-शमन हेतु कुछ विशिष्ट आत्माओं को कुछ ऐसा-वैसा श्राप दे ही देना चाहता है। जिससे उसकी भी अव्यक्त आत्मा को थोड़ी-बहुत शांति मिल सके।

                   अब अगला सवाल यह उठता है कि सर्जक आखिर श्राप क्यों देना चाहता है? तो इस सर्जक का जवाब यह है कि उन विशिष्ट आत्माओं में से जितनी भी अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माएंँ हैं, पूर्व नियोजित षड्यंत्र कर के इस सर्जक से शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहीं हैं। वो भी पिछले हजारों सालों से। या फिर ये कहा जाए कि जबसे लिपि अस्तित्व में आई है तबसे ही। वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे सारे महाग्रन्थों की रचना हों या उसके बाद की समस्त महानतम रचनाएँ हों। सब-के-सब में, वो सारी-की-सारी सर्वश्रेष्ठ बातें लिखी जा चुकी हैं, जिसे यह सर्जक भी आप्त-वाणी की तरह कहना चाहता था। वैसे अब भी कहना चाहता है पर कैसे कहे? अपने कहने में या तो वह चोरी कर सकता है, या तो नकल कर सकता है या फिर लाखों-करोड़ों बार कही गई बातों को ही दुहरा-तिहरा सकता है। या फिर कुछ नयापन लाने के लिए अपनी बलबलाती बुद्धि और कुड़कुड़ाती कल्पना को खुली छूट दे कर, थोड़ा-सा उलट-पलट कर सकता है। लेकिन मूल बातों से खुलेआम छेड़छाड़ तो नहीं कर सकता है। आखिर उसकी भी तो एक बोलती हुई आत्मा है जो निकल कर पूछेगी कि सृजन के नाम पर तुम क्या कर रहे हो? अब आप ही बताइए कि यह क्रोध से उबलता सर्जक कैसे उन सबसे भी महान ग्रन्थ की रचना करे? अब वह ऐसा क्या लिखे कि युगों-युगों तक अमर हो जाए? आपको भी कुछ सूझ नहीं रहा होगा, ठीक वैसे ही जब इसे भी कुछ नहीं सूझता है तो असीमित क्रोधित होता है। फिर अपने क्रोध के कारण के मूल में जाकर बस श्राप ही देना चाहता है।

                           इसलिए यह सर्जक सीधे स्वर्ग जाकर उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं को चुन-चुनकर, उनके मान-सम्मान के अनुरूप, श्राप देते हुए कहना चाहता है कि इस कलि-काल में उन सबों को पुनर्जन्म लेना होगा। कारण हममें से किसी ने उन पूर्वकालीन सृजन को देखा तो नहीं है इसलिए सबकी आँखों के सामने फिर से कोई महानतम ग्रन्थ को रचना होगा। साथ ही आज के स्थापित सर्जनात्मक धुरंधरों से साहित्यार्थ कर जीतना भी होगा। अर्थात उन्हें वो सबकुछ करना होगा जिससे उनकी महानतम अमरता की मान्यता फिर से प्रमाणित हो सके। यदि वें ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अर्थों का अनर्थ सदा होता रहेगा और उन्हें इस सर्जक के श्राप से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। 

                                 शायद तब उन्हें पता चले कि इस अराजक काल में बकवादियों से जीतने के लिए या सर्वश्रेष्ठ सृजन के लिए कैसा-कैसा और कितना पापड़ बेलना पड़ता है। या फिर वें ये समझ जाएंगे कि पापड़ बेलना ही साहित्य से ज्यादा अर्थपूर्ण है। शायद उन्हें ये भी पता चले कि "भूखे सृजन न होई कृपाला"। तब शायद वें अति खिन्नता में, साहित्य से ही विरक्त हो कर कलम रूपी कंठी माला का त्याग कर, पेट के लिए कोई और व्यवसाय ढूँढ़ने लगेंगे। फिर तो यह सर्जक, इस चिर-प्रतीक्षित सुअवसर का झट से लाभ उठा कर, वेद-उपनिषद से भी उत्कृष्ट कृति का, यूँ चुटकी बजाकर सृजन कर देगा। क्या बात है ! क्या बात है ! उसे यह सोच कर ही इतनी प्रसन्नता हो रही है कि वह बावला हो कर, खट्-से अपनी कलम को ही तोड़ डाला है। फिर भी सोचे ही जा रहा है कि उसका बस एक श्राप फलित होते ही, वह कम-से-कम एक सर्वोत्कृष्ट सृजन कर, युगों-युगांतर तक उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं से भी कुछ ज्यादा अमर हो जायेगा।

Thursday, January 27, 2022

शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम ! ........

शब्दों को मेरा प्रणाम !

उनके अर्थों को मेरा प्रणाम !


उनके भावों को मेरा प्रणाम !

उनके प्रभावों को मेरा प्रणाम !


उनके कथ्य को मेरा प्रणाम !

उनके शिल्प को मेरा प्रणाम !


उनके लक्षणों को मेरा प्रणाम !

उनके लक्ष्य को मेरा प्रणाम !


उनकी ध्वनि को मेरा प्रणाम !

उनके मौन को मेरा प्रणाम !


उनके गुणों को मेरा प्रणाम !

उनके रसों को मेरा प्रणाम !


उनके अलंकार को मेरा प्रणाम !

उनकी शोभा को मेरा प्रणाम !


उनकी रीति को मेरा प्रणाम !

उनकी वृत्ति को मेरा प्रणाम !


उनकी उपमा को मेरा प्रणाम !

उनके रूपक को मेरा प्रणाम !


उनके विधान को मेरा प्रणाम !

उनके संधान को मेरा प्रणाम !


शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !

उनको बारंबार मेरा प्रणाम !

                                      "ॐ शब्दाय नम:" शब्द ब्रह्म उस परम दशा का इंगित है जो निर्वचना है। हृदय काव्यसिक्त होकर ही उस ब्रह्म नाद में तन्मय होता है। तब "शब्द वाचक: प्रणव:" अर्थात शब्द उस परमेश्वर का वाचक होता है। उसी अहोभाव में हृदय प्रार्थना रत है और हर श्वास से ध्वनित हो रहा है- शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !


Thursday, January 20, 2022

कैसे भेंट करूँ? ........

गुलाब नहीं मिला 

तो पंँखरियाँ ही लाई हूँ !

बाँसुरी नहीं मिली

तो झंँखड़ियाँ ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

सुवासित हुई तो

सुगंधियाँ लाई हूँ !

गुनगुन उठा तो

ध्वनियाँ ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

देखो !

प्रेम प्रकट है

निज दर्श लाई हूँ !

तुम्हें छूने के लिए

कोमल से कोमलतम 

स्पर्श लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

संग-संग इक

झिझक भी लाई हूँ !

ये मत कहना कि

विरह जनित

मैं झक ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

तुम ही कहो !

तुम्हें देने के लिए

बिन कुछ भेंट लिए

कैसे मैं चली आती ?

लाज के मारे ही

कहीं ये धड़कन 

धक् से रूक न जाती !

यूँ निष्प्राण हो कर भला

जो सर्वस्व देना है तुम्हें

कहो कैसे दे पाती ?

मेरे तेजस्व !

हाँ ! निज देवस्व

देना है तुम्हें

अब तो कहो !

कैसे भेंट करूँ ?

Sunday, January 16, 2022

स्नेह-शिशु ..........

                                       अविज्ञात, अविदित प्रसन्नता से प्रसवित स्नेह-शिशु हृदय के प्रांगण में किलकारी मारकर पुलकोत्कंपित हो रहा है। कभी वह निज आवृत्ति में घुटने टेक कर कुहनियों के बल, तो कभी अन्य भावावृत्तियों को पकड़-पकड़ कर चलना सीख रहा है। विभिन्न भावों से अठखेलियाँ करते हुए, गिरते-पड़ते, सम्भलते-उठते, स्वयं ही लगी चोटों-खरोंचों को बहलाते-सहलाते हुए, वह बलक कर बलवन्त हो रहा है। कभी वह हथेलियों पर ठोड़ी रख कर, किसी उपकल्पित उपद्रव के लिए, शांत-गंभीर होकर निरंकुश उदंडता का योजना बना रहा है। तो कभी अप्रत्याशित रूप से उदासी को, मृदु किन्तु कम्पित हाथों से गुदगुदा कर चौंका रहा है। कभी वह अपने छोटे-छोटे, मनमोही घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट से, पीड़ित हृदय के बोझिल वातावरण को, मधुर मनोलीला से मुग्ध कर रहा है । तो कभी इधर-उधर भाग-भाग कर, समस्त नैराश्य-जगत् को ही, अपने नटराज होने की नटखट नीति बता रहा है। 

                     स्नेह-शिशु कभी निश्छल कौतुकों से ठिठक कर, इस भर्राये कंठ में जमे सारे अवसाद को पिघलाने के लिए, प्रायोजित उपक्रम कर रहा है। तो कभी वह ओठों के स्वरहीन गति को, निर्बंध गीतों में तोतलाना सिखा रहा है। वह येन-केन-प्रकारेण हृदय को, अपने अनुरागी स्नेह-बूँदों की आर्द्रता देकर, नव रोमांच से अभिसिंचित करना चाह रहा है। उसके नन्हें-नन्हें हाथों का घेराव, उसका यह कोमल आग्रह बड़ी प्रगाढ़ता से, मनोद्वेगों को समेट रहा है। फिर आगे बढ़ कर उसे आगत-विगत के समस्त व्यथित-विचारों से, विलग कर अपने निकट खींच रहा है। संभवतः उसका यह भरपूर लेकिन गहरा स्पर्श, उस अर्थ तक पहुँचने का यत्न है, जो स्वयं ही अवगत होता है। जिसे नैराश्य-जगत् का झेंप और उकताहट, मुँह फेर कर अवहेलना कर रहा है। पर स्नेह-शिशु की प्रत्येक भग्नक्रमित भंगिमाएँ उसे भी सायास मुस्कान से भर रहा है। तब तो उदासी भी अपलक-सी, अवाक् होकर उसका मुँह ताक रही है। जिससे उसपर पड़ी हुई व्यथा की, चिन्ता की काली छाया, विस्मृति के अतल गर्त में उतरने लगी है। 

                             स्नेह-शिशु अयाचित-सा एक निर्दोष अँगराई लेते हुए, विस्तीर्ण आकाश को, बाँहों से फैला रहा है। वह मनोविनोदी होकर, छुपा-छुपाई खेलना चाह रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी दु:ख के पीछे, कभी संताप के पीछे छुप रहा है। तो कभी चुपके-से वह व्यथा का, तो कभी हताशा का आड़ ले रहा है। उसे पता है कि वह कितना भी छुपे, पर अब कहीं भी छुप नहीं सकता। फिर भी वह घोर निराशा के पीछे, स्वयं को छुपाने का अनथक प्रयास कर रहा है। पर उसका यह असफल प्रयास, हृदय को अंगन्यास-सा आमोदित कर रहा है। जिसे देखकर वह भी अपने स्वर्ण-दंत-पंक्तियों को निपोड़ते हुए, प्रमोद से खिलखिला रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी इधर से तो कभी उधर से, अपने सुन्दर-सलोने मुखड़े को आड़ा-तिरछा करके, उदासी को चिढ़ा रहा है। तो कभी प्रेम-हठ से उसका हाथ पकड़े, चारों ओर चकरघिन्नी की तरह घुमा रहा है। उदासी अपने घुमते सिर को पकड़कर, उसे कोमल किन्तु कृत्रिम क्रोध से देख रही है।

                    स्नेह-शिशु को यूँ ही उचटती दृष्टि से देखते हुए भी चाहना के विपरीत, बस एक अवश भाव से मन बँधा जा रहा है। वह भाव जो प्रसन्नता के भी पार जाना चाहता है। वह भाव जो उसके प्रेम में पड़कर उसी के गालों को, पलकों को, माथे को बंधरहित होकर चूमना चाह रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे वह भी प्रतिचुम्बन में उदासी के आँखों को, कपोलों को,  ग्रीवा को, कर्णमूल को, ओठों को एक अलक्षित चुम्बन से चूम रहा हो। जिससे अबतक हृदय में जमा हुआ सारा अवसाद द्रवित होकर द्रुत वेग से बहना चाह रहा है। फिर तो उसकी उँगलियाँ भी उदासी के माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श में खेलने लगी हैं। ऐसा अविश्वसनीय इन्द्रजाल! ऐसा संपृक्त सम्मोहन! ऐसा आलंबित आलोड़न! जिससे हृदय एक मीठी अवशता से अवलिप्त होकर सारे नकारात्मक भावों को यथोचित सत्कार के साथ विदा करना चाह रहा है। 

                                                 स्नेह-शिशु के लिए एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य-भरा स्पर्श से उफनता हुआ हृदय स्वयं को रोक नहीं पा रहा है। उसकी सम, कोमल थपकियों से, कभी बड़ी-बड़ी सिसकियों से अवरूद्ध हुआ स्वर, पुनः एकस्वर में लयबद्ध हो रहा है। फिर कानों में जीजिविषा की एक अदम्य फुसफुसाहट भी तो हो रही है। फिर से इन आँखों को भी सत्य-सौंदर्य की दामिनी-सी ही सही कुछ झलकियाँ दिख रही है। उदास विचार मन से असम्बद्ध-सा उसाँस लेकर क्षीणतर होने लगा है। अरे! ये क्या ? स्नेह-शिशु के पैरों का थाप चारों ओर तीव्र-से-तीव्रतर होता जा रहा है। मानो स्नेह-शिशु का इसतरह से ध्यानाकर्षण, सहसा स्मृति के बाढ़ को ही इस क्षण के बाँध से रोक दिया हो।

                                     स्नेह-शिशु के इस जीवन से भरपूर, ऐसा प्रगाढ़ चुम्बन और आलिंगन में हृदय हो तो किसी भी अवांछित उद्वेग को, मन मारकर, दबे पाँव ही सही अपने मूल में लौटना ही पड़ेगा। तब चिरकालिक शीत-प्रकोपित अलसाये उमंगों को भी मुक्त भाव से मन में फूटना ही पड़ेगा। मृत-गत विचारों के बाहु-लता की जकड़ को ढीली करके, आकाश के विस्तार में फिर से हृदय को ऊँची छलांग लगाना ही होगा। कोई भी टूटा स्वर ही क्यों न हो सही पर,जीवन-गीत को नित नए सुर से गाना ही होगा। साथ ही जीवन के सरल सूत्रों के सत्य से, आंतरिक सहजता को आदी होना ही होगा। जब क्षण-क्षण परिवर्तित होते भाव-जगत् में भी भावों का आना-जाना होता ही रहता है तो ये उदासी किसलिए ? स्नेह-शिशु भी तो यही कह रहा है कि जब कोई भी भाव स्थाई नहीं है तो उसे पकड़ कर रखना व्यर्थ है और आगे की ओर केवल सस्नेह बढ़ते रहने में ही जीवन का जीवितव्य अर्थ है। 

Monday, January 10, 2022

जात न पूछो लिखने वालों की .........

जात न पूछो

लिखने वालों की

ख्यात न पूछो

न दिखने वालों की


रचना को जानो

जितना मन माने

उतना ही मानो

पर रचनाकार को 

जान कर क्या होगा?

उसको पहचान कर क्या होगा?

परम रचयिता कौन है?

सब उत्तर क्यों मौन है?

प्रश्न तो करते हो पर

उस परम रचनाकार को

क्या तुमने जाना है?

जितना जाने

उतना ही माना है

न जाने तो

बस अनुमाना है


जात न पूछो

लिखने वालों की

मिथ्यात न पूछो

न दिखने वालों की


यदि रचना में

कोई त्रुटी हो तो

निर्भीक होकर कहो

पर नि:सृत रसधार में

रससिक्त होकर बहो

और यदि

स्वाग्रह वश

बहना नहीं चाहते 

तो बस दूर रहो

मन माने तो

रचना को मानो

न माने तो मत मानो

पर रचनाकार को

जान कर क्या होगा?

उसको पहचान कर क्या होगा?


जात न पूछो

लिखने वालों की

अखियात न पूछो

न दिखने वालों की .

                  " भाषा जब सांस्कृतिक अर्थ व्यंजनाओं से निरंतर जुड़ कर समाज को शब्दों के माध्यम से सम्प्रेषित करती है तो सर्जनात्मकता अपने शिखर को पाती है । तब लिखने वाले माध्यम भर ही रह जाते हैं और हमारी भाषा स्वाधीनता की ओर अग्रसर होती है । "

         *** विश्व हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

Wednesday, January 5, 2022

कह तो दे कि वो सुन रहा है .….….

                        नियति के आश्वासन जनित,  अपरिभाषित आत्मीय संबंधों के स्मरणाश्रित अतिरेकी बातें, अस्तित्व विहीन हो कर भी, अकल्पित अर्थों को अनवरत पाती रहतीं हैं । वें पल-पल पर-परिणति को पाते हुए भी बनीं रहतीं हैं एक अपरिचित एकालाप-सी । नितान्त एकाकी होकर भी एकाकार-सी । अन्य विकल्पों से एक निश्चित दूरी बनाए हुए पर समानांतर-सी ।  एक ऐसे प्रश्न की भांति जो प्रश्न होने में ही पूर्ण हो । जिसे सच में कभी भी किसी उत्तर की कोई आवश्यकता होती ही नहीं हो । बस उन आत्मीय संबंधों में स्वयं को असंख्य कणों के आकर्षणों में पाना अविश्वसनीय आश्चर्य ही है ।        

                                  उन संबंधों को जीते हुए किसी से समय रहते हुए वो सब-कुछ नहीं कह पाने का एक गहरा परिताप सदैव सालता रहता है । समय रहते यदि वो सबकुछ कह दिया जाता जो अवश्य कह देना चाहिए था तो ............... । तो क्या नहीं कह पाने के पश्चाताप को दुःख से बचाया जा सकता था ? संभवतः नहीं । कारण वो सबकुछ,  जो आज उसके न होने पर,  कुछ अधिक ही स्पष्ट हुई है,  उसे जीते हुए अस्पष्ट ही थी । तो क्या कह देना चाहिए था उससे ? वो जो उस समय उसे अपनी अस्फुट धुन बनाये हुए जी रहे थे या अब उस धुन के बोलों को समझने में उलझते हुए जो कहना चाहते हैं । हाँ! उस समय भी कह देना चाहिए था और आज भी कह देना चाहिए कि तुम मेरी नियति के आश्चर्य हो, मेरे अस्तित्व-सा ।

                                        सच में, कोई भी रागात्मक संबंध रूपाकार होकर जीवन-छंद-लय को समूचा घेर लेता है । पर जीवन राग का कोई विरागी सहचर,  उससे भी गहरा होकर एक अरूपाकार आवरण बनकर,  कवच की भांति अस्तित्व को ही घेरे रहता है । कोई कैसे सम्वेदना का अनकहा आश्वासन बनकर हमारे भावना-जगत् में हस्तक्षेप करने लगता है । वह हमारी उन मूक संभावनाओं को सतत् सबल बनाता रहता है जिनकी हमें पहचान तक नहीं होती है । हम ऐसा होने के क्रम में  इतने अनजान होते हैं कि इस सूक्ष्म बदलाव के प्रति हमें ही आश्चर्य तक नहीं होता है । जब कभी आँखें खुलती है तो अपने ही इस रूप पर हम अचंभित रह जाते हैं । लेकिन धीरे-धीरे वह निजी जीवन में भी एक निश्चयात्मक स्वर बन कर अस्फुट वार्तालाप करने लगता है । हमें भरोसा दिलाता रहता है कि वह हर क्षण हमें दृढ़ता से थामें है और हम सुरक्षित हैं । 

                                          अब उसके नहीं होने के दुःख के साथ प्रायश्चित का दुःख भी भावों को नम किये रहता है । अब किससे कहना और क्या कहना ? जिससे कुछ कहना था वो मौन हो गया तो अब मौन में ही सबकुछ कहा और सुना जा रहा है । यदि वो अज्ञात से ही सही सुन रहा है तो ये मौन के शब्द उसे अवश्य वो सबकुछ कहते होंगे, जो कभी शब्दों में नहीं कहे जा सकते हैं । पता है, इन भींगे हुए शब्दों में भी उस दुःख की कभी समाई नहीं हो पाएगी । जब हृदय कहना चाहता था तो मस्तिष्क जनित द्वंद्व उसे कहने नहीं दिया । अब वही मस्तिष्क हृदय की पीड़ा को प्रबलता से प्रभावित कर रहा है । अब एक अंतहीन प्रतीक्षा है और एक अनवरत पुकार है । जिसे वह भी चुपचाप अनदेखा तो नहीं कर सकता है । संभवतः वह भी बोल रहा है कि पुनः मिलना होगा, अवश्य मिलना होगा ।  अटूट आस्था तो यही कहती है ‌।  उसकी ओर ही यात्रा भी हो रही है । अब वो सारी बातें उसे समय से कही भी जा रही है । बस एक बार ही सही वह कह तो दे कि वो सुन रहा है .….…