नियति के आश्वासन जनित, अपरिभाषित आत्मीय संबंधों के स्मरणाश्रित अतिरेकी बातें, अस्तित्व विहीन हो कर भी, अकल्पित अर्थों को अनवरत पाती रहतीं हैं । वें पल-पल पर-परिणति को पाते हुए भी बनीं रहतीं हैं एक अपरिचित एकालाप-सी । नितान्त एकाकी होकर भी एकाकार-सी । अन्य विकल्पों से एक निश्चित दूरी बनाए हुए पर समानांतर-सी । एक ऐसे प्रश्न की भांति जो प्रश्न होने में ही पूर्ण हो । जिसे सच में कभी भी किसी उत्तर की कोई आवश्यकता होती ही नहीं हो । बस उन आत्मीय संबंधों में स्वयं को असंख्य कणों के आकर्षणों में पाना अविश्वसनीय आश्चर्य ही है ।
उन संबंधों को जीते हुए किसी से समय रहते हुए वो सब-कुछ नहीं कह पाने का एक गहरा परिताप सदैव सालता रहता है । समय रहते यदि वो सबकुछ कह दिया जाता जो अवश्य कह देना चाहिए था तो ............... । तो क्या नहीं कह पाने के पश्चाताप को दुःख से बचाया जा सकता था ? संभवतः नहीं । कारण वो सबकुछ, जो आज उसके न होने पर, कुछ अधिक ही स्पष्ट हुई है, उसे जीते हुए अस्पष्ट ही थी । तो क्या कह देना चाहिए था उससे ? वो जो उस समय उसे अपनी अस्फुट धुन बनाये हुए जी रहे थे या अब उस धुन के बोलों को समझने में उलझते हुए जो कहना चाहते हैं । हाँ! उस समय भी कह देना चाहिए था और आज भी कह देना चाहिए कि तुम मेरी नियति के आश्चर्य हो, मेरे अस्तित्व-सा ।
सच में, कोई भी रागात्मक संबंध रूपाकार होकर जीवन-छंद-लय को समूचा घेर लेता है । पर जीवन राग का कोई विरागी सहचर, उससे भी गहरा होकर एक अरूपाकार आवरण बनकर, कवच की भांति अस्तित्व को ही घेरे रहता है । कोई कैसे सम्वेदना का अनकहा आश्वासन बनकर हमारे भावना-जगत् में हस्तक्षेप करने लगता है । वह हमारी उन मूक संभावनाओं को सतत् सबल बनाता रहता है जिनकी हमें पहचान तक नहीं होती है । हम ऐसा होने के क्रम में इतने अनजान होते हैं कि इस सूक्ष्म बदलाव के प्रति हमें ही आश्चर्य तक नहीं होता है । जब कभी आँखें खुलती है तो अपने ही इस रूप पर हम अचंभित रह जाते हैं । लेकिन धीरे-धीरे वह निजी जीवन में भी एक निश्चयात्मक स्वर बन कर अस्फुट वार्तालाप करने लगता है । हमें भरोसा दिलाता रहता है कि वह हर क्षण हमें दृढ़ता से थामें है और हम सुरक्षित हैं ।
अब उसके नहीं होने के दुःख के साथ प्रायश्चित का दुःख भी भावों को नम किये रहता है । अब किससे कहना और क्या कहना ? जिससे कुछ कहना था वो मौन हो गया तो अब मौन में ही सबकुछ कहा और सुना जा रहा है । यदि वो अज्ञात से ही सही सुन रहा है तो ये मौन के शब्द उसे अवश्य वो सबकुछ कहते होंगे, जो कभी शब्दों में नहीं कहे जा सकते हैं । पता है, इन भींगे हुए शब्दों में भी उस दुःख की कभी समाई नहीं हो पाएगी । जब हृदय कहना चाहता था तो मस्तिष्क जनित द्वंद्व उसे कहने नहीं दिया । अब वही मस्तिष्क हृदय की पीड़ा को प्रबलता से प्रभावित कर रहा है । अब एक अंतहीन प्रतीक्षा है और एक अनवरत पुकार है । जिसे वह भी चुपचाप अनदेखा तो नहीं कर सकता है । संभवतः वह भी बोल रहा है कि पुनः मिलना होगा, अवश्य मिलना होगा । अटूट आस्था तो यही कहती है । उसकी ओर ही यात्रा भी हो रही है । अब वो सारी बातें उसे समय से कही भी जा रही है । बस एक बार ही सही वह कह तो दे कि वो सुन रहा है .….…
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 06 जनवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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प्रिय अमृता जी, जीवन में यदि कोई नियति के आश्चर्य-सा मिल भी जाए और सानिध्य के क्षणों में उस अस्फुट धुन में यदि कोई भावनाओं को शब्द देकर अनकही बातें कह भी दे तो शायद उस अनमोल आत्मीयता की गरिमा न बच पाए। सम्भवतः अनाम और अपूर्ण रिश्तों में बहुत से संवाद अनकहे ही रह जाते हैं क्योंकि ये अधिकार क्षेत्र से बाहर का विषय जो थे ठहरा! अब उसे न कहने का पश्चाताप क्या और कह पाने की खुशी क्या! दोनों ही स्थितियों में एक शून्यता का बोध अवश्यंभावी है। मूक संभावनाओं को सतत सबल बनाने वाले और हमारे अस्तित्व को अरूप सांत्वना का कवच प्रदान करने वाले सहचर के लिए क्या कोई शब्द पर्याप्त होता होगा! दृढ़ता से संभालने वाले इस अदृश्य शक्तिनुमा सहचर के साथ मन का संवाद चलता है जो इस भ्रामक से संबंध को गरिमा प्रदान करता है। उसके ना रहने से कुछ न कह पाने का कैसा पश्चाताप! यहीं नियति है और यहीं संभाव्य! रिश्ता पूर्ण हो अथवा अपूर्ण, संवादों का अधूरापन हर कहीं रहता है , यही सृष्टि का नियम है शायद। हमारे भीतर व्याप्त संस्कार कहते हैं कि आत्मा अनश्वरऔर सर्वव्यापी है । इसीलिए शायद लगता है कि जाने वाला हमें देखते-सुनते हमारे आसपास व्याप्त है, पर लगता है ये भी विकल मन का प्रलाप मात्र है कि वो सुन रहा है। शायद देह मिटने के बाद इन बातों का कोई औचित्य नहीं रह जाता | इस आत्मानुभूति सम्पन्न भावपूर्ण लेख के लिए हार्दिक आभार।
ReplyDeleteसारगर्भित टिप्पणी एक स्वतंत्र आलेख का रूप लेती हुई!
Deleteबहुत ही सार्थक और सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए बधाई ।
Deleteआलेख के समकक्ष उत्कृष्ट टिप्पणी।
Deleteसाझा करने हेतु आभार।
आदरणीय विश्वमोहन जी , आदरणीय अयंगर जी और प्रिय जिज्ञासा जी आप सबके प्रोत्साहन की आभारी हूँ |
Deleteलाज़बाब
ReplyDeleteजो कह रहा है और जो सुन रहा है, दोनों में एक्य का अनुभव ही हर सवाल क़ा जवाब है, गहन भावों को व्यक्त करती रचना!
ReplyDeleteस्वर की सबसे अधिक तीव्रता मौन में होती है। अनकही बातें कही बातों की तुलना में मध्यम की स्मृतियों को उत्तम पुरुष मन में लंबे काल तक संजोये रखती हैं। सुंदर दार्शनिक अहसास जगाता चिंतन।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०७-०१ -२०२२ ) को
'कह तो दे कि वो सुन रहा है'(चर्चा अंक-४३०३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
गहन और गूढ़ एहसासों को जब शब्दों में ना कह पाए, तो अन्तर्मन में बसी चेतना ने मर्म जरूर समझा होगा।..बहुत से सारगर्भित प्रश्न और उनके उत्तर को स्वयं हो खोजता एक चिंतनपूर्ण आलेख ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमन का मौन प्रलाप
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन बधाई आपको
गहन एहसासों को उकेरता गहन लेख।
ReplyDeleteअनकहा सालता रहता है पूरी जिंदगी और अगर अब मौका ही न रहे तो उसका दर्द कचोटता रहता है, कई दफ़ा न कहे हुए से महत्वपूर्ण कह कर भी उसका प्रभाव विशेष नहीं दिखता, पर चूंकि कह दिया गया है तो सामान्य दिनचर्या में रम जाता है क्योंकि कह दिया गया था। वहीं न कहा गया बस स्वयं की आत्मा में ही घुमड़ता है, असामान्य असहज, क्या पता कहने पर वह भी सामान्य होता।
एक चिंतन परक हृदय स्पर्शी आत्मगत कथ्य।
बेहतरीन सृजन
ReplyDeleteगहन भावों का उत्कृष्ट मंथन । बहुत समय के बाद आपके द्वारा सृजित लेख पढ़ने को मिला । बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteलगता है आप गहन संताप से गुज़री हैं । जीवन में मौन कभी कभी बहुत सालता है । वक़्त रहते कह देना चाहिए सब कुछ लेकिन मन पर मस्तिष्क हावी हो जाता है और बाद में रह जाता है एक पश्चाताप । आपने मेरे ब्लॉग पर आ कर अपनेपन से जो कुछ लिखा मेरा मन भर आया । कुछ समय मैं भी ब्लॉग से दूर रही थी । दिसम्बर के अंत में जब हलचल लगा रही थी तब आपके ब्लॉग पर आई और पता चला कि जब से मैंने ब्लॉग भ्रमण छोड़ा था आपने भी कुछ नहीं पोस्ट किया था । चिंता होनी स्वाभाविक थी ।।आपकी लेखनी ऐसे ही प्रखर रहे यही कामना है ।
ReplyDeleteअब उसके नहीं होने के दुःख के साथ प्रायश्चित का दुःख भी भावों को नम किये रहता है । अब किससे कहना और क्या कहना ?.....
ReplyDeleteहां, प्रायश्चित का दुःख कचोटता है अंतर्मन को। वो जो चला गया या वो जो चले जायेंगे। बेशक वो अधूरे संवाद के स्वर में हृदय को सालते रहेंगे। हम समझ सकते हैं, मगर अल्प रूप में। अधूरे मन से। शायद यही आत्मिक बोध हम सब को पूर्णता की ओर ले जाये। संभालिये अपने संताप को। हम सब के जीवन में यही तो है....
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