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Sunday, August 29, 2021

साधो, हम कपूर का ढेला !.........

साधो, हम कपूर का ढेला !


कोई पक्का तो कोई कच्चा

कोई असली तो कोई गच्चा

कोई बूढ़ा खोल में भी बच्चा

कोई उत्तम तो कोई हेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !


इक चिंगारी भर की दूरी पर

बस नाचे अपनी ही धुरी पर

पर सब हठ मनवाए छूरी पर

हर कोई अपने  में अलबेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !


एक-एक चाल में धुरफंदी

समझौता से गांठें संधी

जुगनू से लेकर चकचौंधी

दिखाए रंग-बिरंगा खेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !


अबूझ-सा सब लालबुझ्क्कड़

अपनी गुदड़ी में ही फक्कड़

उड़े ऐसे जैसे हो धूलधक्कड़

सज्जन बनकर भी रहे धुधेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !


फटे बांस में दे सुरीला तान

करता रहे बस ताम-झाम

अपने से ही सब अनजान

खुद ही गुरु खुद ही चेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !


कोई शुद्ध तो कोई मिलावटी

कोई घुन्ना तो कोई दिखावटी

कोई ठोस में भी घुलावटी

कोई बली तो कोई गहेला !

साधो, हम कपूर का ढेला !

Wednesday, August 25, 2021

खीझ-खीझ रह गई रतिप्रीता ............

अबकी सावन भी 

सीझ-सीझ कर बीता

खीझ-खीझ 

रह गई रतिप्रीता


बैरी बालम को 

अब वो कैसे रिझाए

किस विधि अपने 

बिधना को समझाए

अपने बिगड़े बिछुरंता से

ब्यथित बिछिप्त हो हारी

बिख से बिंध-बिंध कर

मुआ बिछुड़न बिछनाग जीता

खीझ-खीझ 

रह गई रतिप्रीता


दिन तो यौवन का

याचनक राग गवाए

नित सूनी सर्पिनी सेज पर 

रो-रो प्रीतरोगिनी रजनी बिताए

अँसुवन संग आस 

बिरझ-बिरझ कर रीता

ओह ! मिलन मास में भी

मुरझ-मुरझ मुरझाए मधुमीता

खीझ-खीझ 

रह गई रतिप्रीता


धधक-धधक कर

ध्वंसी धड़कन धमकावे

धमनियों में रक्त

धम गजर कर थम-थम जावे

न जाने न आवे किस कारन

तन मन प्राण पिरीता

आखिर क्यों बैरी बालम हुआ 

बिन बात के ही विपरीता

खीझ-खीझ

रह गई रतिप्रीता


अंग-अंग को

लख-लख काँटा लहकावे

लहर-लहर कर 

प्रीतज्वर ज्वारभाटा बन जावे

रह-रह मुख पर हिमजल मारे

तब भी होवे हर पल अनचीता

धत् ! अभंगा दुख अब सहा न जाए

कब तक ऐसे ही कुंवारी रहे परिनीता

खीझ-खीझ 

रह गई रतिप्रीता


फुसक-फुसक कर

चुगलखोर भादो भड़कावे

ठुसक-ठुसक कर

बाबला मन धसमसकाए

कासे कहे कि

अरिझ-अरिझ हर धमक बितीता

हाय रे ! सब तीते पर

झींझ-झींझ हिय रह गया अतीता

खीझ-खीझ

रह गई रतिप्रीता


अबकी सावन भी 

सीझ-सीझ कर बीता

खीझ-खीझ

रह गई रतिप्रीता .

Saturday, August 21, 2021

गृह लक्ष्मियाँ ..........

सँझाबाती के लिए
गोधुलि बेला में
जब गृह लक्ष्मियाँ
दीप बारतीं हैं
कर्पूर जलातीं हैं
अगरू महकातीं हैं
अपने इष्ट को
मनवांछित
भोग लगातीं हैं
और आचमन करवातीं हैं
तब टुन-टुन घंटियाँ बजा कर
इष्ट के साथ सबके लिए
सुख-समृद्धि को बुलातीं हैं

ये गृह लक्ष्मियाँ
प्रेम की प्रतिमूर्तियाँ
छुन-छुन घुंघरियाँ बजाते हुए
खन-खन चूड़ियाँ खनका कर
सिर पर आँचल ऐसे सँभालतीं हैं
जैसे केवल वही सृष्टि की निर्वाहिका हों
और अहोभाव से झुक-झुक कर
प्रेम प्रज्वलित करके
घर के कोने-कोने को छूतीं हुई
अपने अलौकिक उजाले से 
आँगन से देहरी तक को
आलोकित कर देतीं हैं
जिसे देखकर सँझा भी
अपने इस पवित्रतम
व सुन्दर स्वागत पर
वारी-वारी जाती है

तब गृह लक्ष्मियाँ
हमारी सुधर्मियाँ
तुलसी चौरा का 
भावातीत भाव से
परिक्रमा करते हुए
दसों दिशाओं में ऐसे घुम जातीं हैं
जैसे जगत उनके ही घेरे में हो
और सबके कल्याण के लिए
मन-ही-मन मंतर बुदबुदा कर
ओंठों को अनायास ही 
मध्यम-मध्यम फड़का कर
कण-कण को अभिमंत्रित करते हुए 
बारंबार शीश नवातीं हैं
फिर दोनों करों को जोड़ कर
सबके जाने-अनजाने भूलों के लिए
सहजता से कान पकड़-पकड़ कर
सामूहिक क्षमा प्रार्थना करते हुए
संपूर्ण अस्तित्व से समर्पित हो जातीं हैं
 
हमारी गृह लक्ष्मियाँ
दया की दिव्यधर्मियाँ
करूणा की ऊर्मियाँ
सदैव सुकर्मियाँ
सिद्धलक्ष्मियाँ
नित सँझा को
पहले आँचल भर-भरकर
फिर उसे श्रद्धा से उलीच-उलीच कर
मानो धरा को ही चिर आयु का
आशीष देती रहतीं हैं .

Tuesday, August 17, 2021

बस हमने यही जीवन जाना ...…..

अदृश्य श्वासों का आना-जाना

अदम्य विचारों का ताना-बाना

अव्यक्त भावों का अकुलाना

बस इसको ही जीवन माना


जब जग से कुछ कहना चाहा

क्वारीं चुप्पियों के बोल न फूटे

बस घिघियाते ही रहे सारे स्वर

और विद्रोही बीज अंतर न टूटे


सुख-सपनों की नीलामी में 

बिकती रही धीरज की पूंजी

जनम-जनम की जमा बिकी

और जुग-जुग की खोई कुंजी


खुशियों के बाजारों में बस

आंसुओं का व्यवसाय हुआ

उभरते रहे नासूर समय के

औ' दर्द बेबस असहाय हुआ


अब तो शाम है ढ़लने वाली

धुंधली-धुंधली सी छाया है

किंतु जीर्ण-जगत से फिर भी

क्यों नहीं छूटता माया है ?


अमरता की कैसी अभिलाषा ?

तिक्त सत्य क्यों झूठा लगता?

अनंत कामनाओं में ही जीना

क्यों बड़ा प्रीतिकर है लगता?


क्यों इतना अब रोना-गाना ?

क्या है वो जिसे खोना-पाना?

भूल-भुलैया में ऐसे भरमाना

बस हमने यही जीवन जाना .

Sunday, August 8, 2021

कृपया गरिमा बनाए रखें! ........

ठक! ठक! ठक!

कृपया गरिमा बनाए रखें!

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी

हमारे हर एक, झुठफलाँग-उटपटाँग सा

भ्रांतिकारी-क्रांतिकारी, क्रियाकलापों का

हमारे ही, कलह-क्लेशी कुनबे के, कटघरे में 

तुरत-फुरत वाली, आँखों देखी, गवाही होगी!

ठक! ठक! ठक!

कृपया गरिमा बनाए रखें!

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी!


इसलिए हमें मिल-बैठकर, पद की प्रतिष्ठा बचाकर

अपने परिजनों के, बेहतर आज के लिए, कल के लिए

नागरिक, भूगोल और इतिहास फाड़ू फैसला लेना है

और सबको चौंकाऊ-सा, चकाचौंध भरा हौसला देना है

ताकि हम संसार के, माथे पर, उचक कर बैठ सके

फिर चकाचक-झकाझक, फर्राटेदार विकास गति पर 

अपनी पीठ थपथपाते हुए, आव-ताव देकर, खूब ऐंठ सके! 


इसलिए कृपया कोई भी, जिंदा या मरे मुर्दों को, न उखाड़ें

और बेकार के बहाने से, बहिष्कार की रणनीति पर

न ही अपनी, चिंदी-चिंदी मानसिकता को 

हल्के-फुल्के या गंभीर, मुद्दों पर भी, इस तरह से उघाड़ें!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

कृपया गरिमा बनाए रखें!


रूकें! रूकें! रूकें!

बहुत ही, हीं-हीं, ठीं-ठीं, हो रहा है

बहुत ही, खों-खों, खीं-खीं, हो रहा है

ओह!  ये किसने? किसको? किस अदा से आँख मारा?

और इतने सारे, कागजों को, किसने है फाड़ा?

ये मेजें-कुर्सियां, ऐसे क्यों उठ रही हैं?

उफ्फ! मेरी आवाज भी, इसमें घुट रही है

कृपया सब, अपनी जगहों पर, संतों की भांति, बैठ जाएँ

कानफाड़ू शोर-शराबा न करें, कोशिश करके ही सही, पर शांति लाएँ!


फिर अपनी, बादाम-अखरोट खायी हुई

याददाश्त को, फिर से, याद दिलाए कि

हम कुनबा चलाने वाले हैं, या उसको डूबाने वाले हैं

इस तरह से, आलतु-फालतू मुद्दों पर, जब आप सब

एक साथ ही, उलट कर, सड़क पर, ऐसे उतर जाएंगे 

तो बताइए, सड़क पर रहने वाले, भला कहाँ जाएंगे?

तब, उनके लिए ही वर्षों से, अटकी-लटकी हुई सैकड़ों-हजारों

झोलझाली योजनाओं को, हम लोग, कैसे लागू करायेंगे?


यदि ईमानदारी से, आप सबों को, याद आ जाए 

कि आखिर परिजनों ने, हमें किसलिए चुना है?

तो आइए, विकास की चाल को, सब मिलकर

जोर से, धक्का लगा-लगा कर, आगे बढ़ायें

बिना बात के ही, विरोध में, इस तरह से, काम रोक कर

कृपया परिजनों के, समय और संसाधनों को

इतनी निर्लज्जता से, राजनीति के गटर में, न डूबायें!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

कृपया गरिमा बनाए रखें!


अरे! अरे! अरे!

अचानक से, ये क्या हो रहा है?

क्यों सबका, खोया हुआ आपा भी, खो रहा है?

इस तरह से, जुबानी जंग में, जुमलों का चप्पल-जूता

बिना सोचे-समझे, एक-दूसरे पर, यूँ ना उछालें

और अपने पैने-नुकीले, सवालो-जवाबों से

न ही ऐसे छिलें, एक-दूसरे की, नरम-मुलायम छालें!


हो सके तो, अपने-अपने हाथों-पैरों को 

हाथ जोड़ कर, या प्यार-मोहब्बत से, जरा समझाएँ

कि बात-बेबात ही, भड़क कर कहीं, इधर-उधर न भिड़ जाए

फिर आपस में, इसतरह से, गुत्थम-गुत्थी कर के 

आप सब मिलकर, इसे ओलंपिक जैसा विश्व स्तरीय 

कुश्ती प्रतियोगिता का, चलता हुआ, अखाड़ा न बनाएँ

कृपया संयम बरतें, और मेरे आसन के सामने, ऐसे उछाल मारकर

यूँ दहाड़ते हुए, तख़्त विरोधी तख़्तियां,  दिन-दिहाड़े न दिखाएँ!


आपसे हार्दिक अनुरोध है कि, अपने आसनों पर ही 

बाकी सब लोग, विराजमानी जमाते हुए, मेजों को भी

अपने कोमल हथेलियों का, कुछ ज्यादा ख्याल रखते हुए

ढ़ोलक जान, जोर-शोर से, इतना ज्यादा न थपथपायें

न ही थोथेबाजी में, फिजुल का, नारेबाजी करते हुए

चलते सत्र को, बीच में ही छोड़कर, सब बाहर निकल जाएँ!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

कृपया गरिमा बनाए रखें!


सुनें! सुनें! सुनें!

हमारे कुनबे से, बाहर के लोग सुनें! 

आपके लिए है, करजोरी-बलजोरी, क्षमा याचना के साथ

एक अत्यन्त आवश्यक, सूचना एवं वैधानिक चेतावनी

कि हम अपने कुनबे में, एक ही चट्टे-बट्टे के, सब लोग 

चाहे कितना भी, और कैसा भी, करते रहें मनमानी

पर कृपया दूर-दूर तक, कोई भी चरित्र अथवा पात्र

आगे बढ़कर इसे, बिल्कुल अन्यथा न लें 

और इस कुपितरोगी-भुक्तभोगी, दृश्यकाव्य के

किसी भी, हिस्से से चुराकर, कोई भी कथा न लें!


कारण, इसका प्रत्यक्ष और प्रामाणिक संबंध 

केवल और केवल, हमारे निहायत निजी, कुनबे से है 

क्योंकि संसार के, बड़े-बड़े अलोकतांत्रिक देश, की तरह ही 

हम अपने, छोटे-से कुनबे में भी, नियम-कानून बनाने के लिए

कुछ ऐसे ही, चिल्ल-पों कर-करके, शासन चलाते हैं 

और काम-काज के बीच में ही, हुड़दंग मचा-मचाकर

ऐसे ही, कुढ़गा कुक्कुटासन, लगाते हैं!


इसलिए इसका, मुँह और दिल खोलकर

केवल और केवल, कृपया आनन्द उठाएँ 

और गलती से भी, किसी दूसरे से, हमें जोड़कर

अथवा अन्यथा लेकर, हमारी जगहँसाई, न करवाएँ!

अन्यथा सख्त कार्यवाही होगी 

कृपया मर्यादा बनाए रखें!

कृपया गरिमा बनाए रखें!

Wednesday, August 4, 2021

उन भ्रूण बेटियों के लिए.........

अहा! चहुँओर आज तो मंगल गान हो रहा है
बची हुई नाक का देखो ना यशोगान हो रहा है
सदियों से एक सिरे से उन सारी उपेक्षितों का भी
इतना ज्यादा अनपेक्षित मान-सम्मान हो रहा है

भूरि-भूरि प्रशंसाओं के हैं काले-सफेद बोल
सब खजाना भी लुटा रहे हैं हृदय को खोल
हर चेहरे पर ओढ़ी हुई है लंबी-चौड़ी मुस्कानें
हर कोई जीते पदकों से खुश होकर रहा है डोल

पर आज उन कोखों की भी कुछ बात की जाए
जिनपर दबाव होता है कि वे बेटी को ही गिराये
कोई समाज के सारे पाखंडी परंपराओं को तोड़
उन भ्रूण बेटियों के लिए भी सुरक्षित घर बनाये

क्यों बेटों के लिए बेटियों को कुचला जाता है ?
कोई क्यों बेटियों का ही भ्रूण हत्या करवाता है ?
घरेलू हिंसा की पीड़िता सबसे है पूछना चाहती 
क्या इस तरह ही समाज गौरवशाली बन पाता है ?

यदि सारी बेटियाँ अपने ही घर में बच जाएँगी
तो वे विरोध से नहीं बल्कि प्रेम से बढ़ पाएँगी
तब तो दो-चार ही क्यों अनगिनत पदकों का भी
अंबार लगाकर ढ़ेरों नया-नया इतिहास बनाएँगी .

      *** बेटी खेलाओ पदक जिताओ ***

Sunday, August 1, 2021

एक कालजयी कविता के लिए .....

एक कालजयी कविता के लिए
असली काव्य-तत्त्व की खोज में
जब-जब जहाँ-तहाँ भटकना हुआ
तब-तब अपने ही शातिर शब्दों के 
मकड़जाल में बुरी तरह से अटकना हुआ

न जाने कैसी-कैसी और कितनी बातों को
गुपचुप राज़ सा या खुलेआम ख्यालातों को
जाने-अनजाने से या किसी-न-किसी बहाने से
चोरी-छुपे पढ़ती, सुनती और गुनती रही
शायद हीरा-जवाहरात मानकर ही सही
पूरे होशो-हवास और दम-खम से
अपने कलमकीली कबाड़ झोली में 
बस कंकड़-पत्थर ही बीनती रही

अब तक के उन तमाम नामी-गिरामी
कलमतोड़ों और कलमकसाइयों के
पदछापों पर मजे से टहलते हुए
अपने ख्याली पुलावों को 
बड़े चाव से कलमबंद करते हुए
उसी कबाड़ झोली का सारा जमा-पूंजी को
आज का अँधाधुँध सत्य जानकर
मन ही मन में खुद को कलम का उस्ताद मानकर
शब्दों में आयातित गोंद और लस्सा लगाकर
उसे उसके संदर्भ से जोड़ना चाहा

पर मेरी उधाड़ी जुगाड़ी कोशिशों को भाँपकर 
बरबादी की ऐसी सत्यानाशी सनक से काँपकर
अपनी ही रूह की होती मौत देख बेचारी कविता 
सिर धुनती हुई बन गई रूई का फाहा

तिस पर भी उसको मनाने के वास्ते मैंने
बाजार जाकर खरीद-फरोख्त की गई
वर्जनाओं को, उत्तेजनाओं को, अतिरंजनाओं को
इधर-उधर से माँगी-चाँगी हुई, छिनी-झपटी हुई
अन्तर्वेदनाओं को, संवेदनाओं को, परिवेदनाओं को
शोहरती तमन्नाओं की आग में ख़ूब तपाया
पर निर्दयी कविता तो जरा-सी भी न पिघली 
लेकिन शब्दों और अर्थों का डरावना-सा
लुंज-पुंज अस्थि-पंजर जरूर हाथ आया

फिर उसको रिझाने-लुभाने के वास्ते मैंने
अपनी सारी बे-सिर-पैर की तुकबंदियों को भी 
ग़ज़लों-छंदों का सुन्दर-सा आधुनिक परिधान पहनाया
और उसे उसके अर्थो से भी एकदम आजाद करके
कसम से आज़माईश का सारा गुमान चलाया

अब जी मैं आता है कि 
किसी भी काव्य-तत्त्व की खोज में
प्रेतों-जिन्नों की तरह भटकना छोड़ कर 
प्राणों से फूटती कविता के इंतजार में
चुपचाप सबकी नजरों से कहीं दूर जाकर
खुद से भी छुपकर धूनी रमाए बैठ जाऊँ

पर नालायक कवि मन कहता है कि
गलती से ही सही पर जब तेरे माथे पर
लिखा जा चुका है कि तू कवि है तो
जो जी में आए बस तू लिखता रह, लिखता रह
ज्यादा न सही पर कुछ तो शोहरत-नाम मिलेगा
झटपट लिखो-छापो के इस जादुई जमाने में
फटाफट ढ़ेर सारा ज़हीर कद्रदान मिलेगा
अगर मेहरबानों की नजरें इनायत हुई तो
झोली भर-भर कर भेंट और इनाम मिलेगा

तो कवि मन के झांसे में आकर मैंने भी सोचा कि
कोई मुझे एक-एक शब्द पर पढ़-पढ़ कर सराहे 
या शेखचिल्ली समझ कर खूब खिल्ली उड़ाए
या मुझे मुँह भर-भरकर गाली-आशीर्वाद दे
या फकत कलमघिस्सी जान ज़ायका-आस्वाद ले

पर लिखने वाला हर बेतरतीब-सी बिखरी चीजों को
बुहारी मारते हुए समेट कर लिखता है
जिसमें किसी को सुन्दर कविता तो
किसी को बस रद्दी का टुकड़ा ही दिखता है
इसलिए मैं भी क्यों कहीं दूर जाकर
प्राणों की कविता के इंतजार में बैठ जाऊँ
कवि हूँ तब तो ईमानदारी से या बेइमानी से 
अगड़म बगड़म कुछ भी लिख-लिख कर क्यों नहीं
रद्दियों का ही सही बड़ा-सा अंबार लगाऊँ .