इस 'आज' की
बौखलाई कविता से
( समाचारवाचिका सी )
संतुलित संवेदना भी जाहिर होती तो
सहनीय होती उसकी बौखलाहट
शब्द वाया भावों की
थोपी जिम्मेदारियों से
कटघरे में घेर कर भी
बरी कर दी जाती
( समाचार सी पढ़ ली जाती )
इस 'आज' के
हालातों - ज़ज्बातों को वह
बिना लाग-लपेट के कहती रहती
ख़ुशी-गम से निकली आह-वाह को
ख़ुशी-ख़ुशी सहती रहती....
पर इस 'आज' की
बौखलाई कविता
एकालाप से त्रस्त कविता
कंठ के आक्षेप से ग्रस्त कविता
अब चुप ही रहना चाहती है
कोई लाख बोलवाये पर
मुँह नहीं खोलना चाहती है....
जबकि इस 'आज' का
बौराया कवि ( मैं भी )
सब रसों का रस चूस-चूस कर
अपना रस टपका-टपका कर
कविता कहता है
और खुद ही इतना बोल जाता है
कि बड़ी मुश्किल से
इस 'आज' की कविता में
ढूंढी गयी रही-सही
खूबसूरती भी
खुद कवि के ही काया-क्लिनिक में
अत्यधिक रंग-रोगन करके
शब्दित मेक-ओवर की
सुलभ शिकार हो जाती है .