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Sunday, September 18, 2022

इल्तिजा............

आजकल आप बहुत लिख रहे हैं भाई!

क्या आप क़लमकार हैं या क़लमकसाई!


लिखने से पहले जरा सोच भी लिजिए

निकले लफ़्ज़ों में जरा लोच भी दिजिए


यूँ बंदूक से निकली गोली की तरह फायर हैं

और कहते हैं कि आप नामचीन शायर हैं


क्या आप बस नाम के लिए ही लिखते हैं?

पर वैसे नाम वाले भी आप कहाँ दिखते हैं?


आपके अल्फ़ाजों की अदा तो निराली है

क्या आपने लिखने वाली भांग खा ली है?


आप ऐसे शोहरती नशे में हैं तो रहिए न

आपके जी में जो भी आए आप कहिए न


पर आपसे सब इत्तेफ़ाक़ ही रखे ज़रूरी है?

वाह! वाह! कर देना तो सबकी मज़बूरी है


जितनी जल्दी समझ जाएँगे तो अच्छा होगा

हमारी तरह ये कहने वाला कौन सच्चा होगा?


इल्तिजा इतनी ही है कि जरा-सा थम जाइए

ज़मानें भर का न सही पर अपना तो गम़ खाइए


किसी भी मुद्दे पर बस ऐसे शुरू ही हो जाते हैं

रहम कीजिए क़लम पर क्यों इतना तड़पाते हैं?


इतनी ही तड़प है तो कुछ जमीन पर कर दिखाइए

नहीं तो कंबल ओढ़कर खुद में ही सही बड़बड़ाइए


बदगुमानी से गुमराह करना भी तो इक गुनाह ही है

गोया सोचते भी नहीं कि उनमें ही कचरा बेपनाह है


क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं

हाँ! ये क़लमकसाई ही तो इसका असली निशाना है 


अपना मज़ाक़ बनाने के लिए भी हुजूर हिम्मत चाहिए

अरे! चुप न रहिए मुस्कुरा के ओठों को तो फैलाइए


क्यूंकि उम्रे-दराज यूँ ही मिल गया है कुछ दिन हमें तो

कुछ क़लम घसीटी में काटे हैं कुछ क़लम तोड़ी में काटेंगे।



                   अक्सर कुछ भी "लिखो फोबिया" के चक्कर में क़लम घसीटी का आलम ही जुदा हो जाता है। तब तो तड़प-तड़प कर क़लम के दिल से ऐसी ही इल्तिजा वाली आह निकलती है। पर हम तो ठहरे आला दर्जे का क़लमकसाई। अब क्या फर्क पड़ता है कि क़लम हमें घसीटती है या हम क़लम को। इसी घसीटाघसीटी में जुमला-बाज़ी तो हो गई। अब हमपर जिन्हें खुलकर फ़िकऱा-बाज़ी करनी है तो वे शौक़ से कर सकते हैं। तब तक हम इस्तक़बाल के लिए लफ़्ज़ तलाशते हैं। ताकि कुछ और जुमला-बाज़ी हो।                    

                                  "सुम्मा आमीन"

Sunday, April 25, 2021

यकीनन तड़प उठते हैं हम ......

जुनूं हमसे न पूछिए हुजूर कि हमसे क्या-क्या हुआ है ताउम्र

उलझे कभी आसमां से तो कभी बडे़ शौक़ से ज़मींदोज़ हुए 


अपनी ही कश्ती को डूबो कर साहिल से इसकद उतर आए हम

अब आलम यह है कि इब्तदाए-इश्क का गुबार भी देखते नहीं


जो सांस की तरह थे उनसे तौबा कर लिया सीने को ठोक कर 

बेशर्मी से मांग लिया दिल भी जो कभी नाजो-अदा से दिया था 


उन्होंने मुरव्वत न सीखी तो तहज़ीब ही सही सीख लेते हमसे

हसरतें थी उनपर मिट जाने की और वही अदावत सिखा गये


इक-दूजे को शुक्रे-कर्दगार करके जुदा हो गए गर्मजोशी से हम

जिंदगी का क्या नई चाहतें जिधर ले जाएंगी उधर ही चल पड़ेंगे 


माना कि इश्क सूफियाना था शायद है और आगे भी यूं ही रहेगा 

गर गलती से भी वो याद करते हैं तो यकीनन तड़प उठते हैं हम .


Tuesday, October 6, 2020

छठे सातवें फ़रेब में ......

जिंदगी के वस्ल वादों में 

मेरे इतराते इरादों में

कुछ ऐसी ठनी

कि हर बिगड़ी हुई बात 

नाज़ुक सी नाज़ की 

बदसूरत बर्बादी बनी

भागते गुबारों ने

आहिस्ते से कहा

जिंदगी को तो

हाथ से छूटना ही है

ख्वाबों का क्या

पूरा होकर भी

टूटना ही है

पर रूठी उम्मीदों को

मनाने का अपना एक 

अलग ही मजा है

छठे सातवें फ़रेब में

खुद को खुदाई तक

फिर से फँसाने का

उससे भी ज्यादा मजा है

तब तो मुद्दत पहले

उदास ग़ज़लों को

छूटी हुई राहों में

छोड़ आई हूं

मत्तला और क़ाफ़िया को

प्यार से आज़ाद कर

नज़्म बन पाई हूं 

खुद को ही ख़बर लगी कि

अभी भी बहुत कुछ है

मेरे तिलिस्मी ख्यालों में

ऐ जिंदगी ! 

तुझको ही मैंने

अब भर दिया है

एतबार के टूटे प्यालों में .

Friday, August 11, 2017

काफी हो ..........

जितने मिले हो
मेरे लिए , तुम उतने ही काफी हो
ख्वाहिशें जो गुस्ताखियां करे तो
तहेदिल से मुझे , शर्तिया माफी हो

बामुश्किल से मैंने
तूफां का दिल , बेइजाज़त से हिलाया है
कागज की किश्ती ही सही मगर
बड़ी हिम्मत से , उसी में चलाया है

जरूरी नहीं कि , जो मैंने कहा
तेरे दिल में भी वही बात हो
पर मेरी तकरीर की लज्जत में
मेरे वजूद के जज़्ब जज़्बात हो

तेरे चंद लम्हों की सौगात में मैंने
इत्तफ़ाक़न इल्लती सौदाई को जाना है
गर इरादतन खुदकुशी कर भी लूं तो
ये मेरे शौक का ही शुकराना है

सोचती हूँ , कहीं तो तेरे दिल से मिल जाए
ये सहराये - जिंदगी के गुमशुदा से रास्ते
तो पूरी कायनात के दामन को निचोड़ दूँ
बस तेरी बदमस्त बंदगी के वास्ते .

Saturday, September 24, 2016

गुमान .......

खामोश रहने में भी
तीर हो सकते हैं
काँटे हो सकते हैं
जहर हो सकता है
व कलंदरों के
रोशन कलाम में भी
हौलनाक तल्ख़िए- होश
या फिर ये कहिए कि
कातिल कलह हो सकता है ......

यूँ ही कुछ भी हो सकने
व न हो सकने के
बीच का फ़ासला
किसी फ़ासिद का शिकार
न होता तो
क्या कहना था
जख्मों की जलन को भूला कर
ख़ामोशी में खलल डाले बगैर
ज़ियादती सह कर
किसी तरह रहना था ......

किसी असर के लिए
उम्रभर की दुहाई
गुजरे जमाने का था बहाना
गोया आह ने सीख लिया हो
ख़ता पर ख़ता करके
खुद-ब-खुद मुस्कुराना .....

किस्मत व फितरत की राजदारी में
कोई तख़्त बनाता है
तो कोई तख़्त बचाता है
गरजे कि
अक्ल के इस दौर में
तौबा मचा कर भी
दुनिया पे जन्नत का
खूबसूरत गुमान हो आता है .

Friday, March 11, 2016

हरफ़ों में ........

बहुत दफ़न हैं हरफ़ों में , हम भी हो जायेंगे
उन बहुतों के बीच , कभी-कभी दिख भी जायेंगे

कुछ हरफ़ उठा वे लेंगे तो कुछ हरफ़ पकड़ लाएंगे
कुछ हरफ़ खुद आएंगे तो वे कुछ हरफ़ ले आएंगे

यक़ीनन हरफ़-हरफ़ हम न कभी पढ़े जाएंगे
व उनके हरफ़ों से ही हरफ़-बहरफ़ गढ़े जायेंगे

अगरचे ये हमाक़त ही तो हमारी जिंदगी है
गोया हरफ़ों के बंदीखाने में अक़दस बंदगी है

बखत की बंदिशें हैं और ये ख़यालात बेमिजाज़ी है
आज और अभी हरफ़ों की जीती हुई हर बाजी है

दफ़न हो जाएंगे हम पर ये हरफ़ ख़ाक न होंगे
अजी !शोला-ये-शौक है ये जो कभी शाक न होंगे . 

Sunday, October 11, 2015

मामूल मिजाजी .......

अजनबी बवंडरों का कोई डर
अब न मुझको घेरता है
इस फौलादी पीठ पर मानो
हर हमला हौले से हाथ फेरता है

जो चलूँ तो यूँ लगता है कि
जन्नत भी क़दमों के नीचे है
उस आसमान की क्या औकात ?
वो तो अदब से मेरे पीछे है

इसकदर मेरे चलने में ही
कसम से ये कायनात थरथराती है
निखालिस ख़्वाब या हकीकत में
मुझसे इलाहीयात भी शर्माती है

जबान की ज्यादती नहीं ये , असल में
जवानी है , जनून है, जंग परस्ती है
मेरी मौज के मदहोश मैखाने में
मामूल मिजाजी की मटरगश्ती है

हाँ! खुद का तख़्त जीता है मैंने
और बुलंदियों पर मैं ठाठ से बैठी हूँ
मैं खुर्राट हूँ , मैं सम्राट हूँ
सोच , सिकंदर से भी ऐंठी हूँ .


इलाहीयात --- ईश्वरीय बातें
मामूल --- आशा से भरा 

Monday, March 23, 2015

क्या हर्ज है ?

कोई मंजिल मिल जाती कोई मुकाम मिल जाता
जिंदगी की जानलेवा अदाओं को काबिल नाम मिल जाता

मुसाफ़िराना गुफ़्तगू के महज मुश्किल से इशारे हैं
मतलब जो समझे वो कुछ जीते वर्ना सब तो हारे हैं

कागज़ का एक उड़ता टुकड़ा है जिसपर कुछ लिखा है
ये जिंदगी ! बेऐतबारी में ही तो तेरा पता दिखा है

बदखती का ये आलम है तो तुझे लापता ही कहना है
समझी हूँ तुझे न समझी थी न ही कभी समझना है

तुझे जीना न आया तो तुझसे बेज़ोश क्यों होऊं ?
बस ख़्वाब है तू सोच कर अपना होश क्यों खोऊं ?

दर्द का फ़लसफ़ा है तू या फ़ुरक़त का कोई फ़साना है
ये जिंदगी ! तू जिंदगी ही है तो क्यों ये शोख़ वीराना है ?

जहां ज़िंदा दफ़न होकर जिंदाँ से रस्में यूँ जोड़ लेते हैं
वहां साया भी सरफ़रोशी की कसमें यूँ तोड़ देते हैं

अपनी मदहोशी में कभी शेर होकर जिलाओ तो मैं मानूं
ये जिंदगी ! कभी शराबे-सेर होकर पिलाओ तो मैं जानूं

लगी रह तू जिंदगी अपना अलग ही गुल खिलाने में
ये माशूकाना बेखबरी है तो क्या हर्ज है तुझपर मुस्कुराने में ?

Wednesday, July 9, 2014

कोई दिलनवाज़ ही बचाये ....

दिल को तो बड़ा ही सुकून मिलता है
जब अपना इल्जाम गैर के सर चढ़ता है

दर्द के नासूर का भी इतना ही है इशारा
गर चोट न हो तो कहीं उनका नहीं गुजारा

हरतरफ शातिराना शिकायतों की सरगोशियाँ है
मुआफ़िक़त ज़ख़्मों की जुनूनी दस्तबोसियाँ है

मवाद मजे से मशग़ूल है महज बहने में
इल्लती दस्तूर को क़तरा-क़तरा से कहने में

लबे-खामोश से कुछ पूछने से क्या फ़ायदा ?
नामुनासिब मजबूरियों का भी अपना है क़ायदा

बिरानी साँसों में भी अब न वैसी खनखनी है
जैसे ये दुनिया बस ग़म के वास्ते ही बनी है

शौक़ से ख़ुशी दर्दो-आह में गुजरी जाती है
सारी उम्र यूँ ही गुनाह में गुजरी जाती है

दर्द का काफिला है और दिल की नादानियां है
भरोसा है , ठोकरें है और उनकी कहानियां है

जहां पर हर आगाज ही इसकदर तक बुरा हो
तो कोई दिलनवाज़ ही बचाये अंजाम जो बुरा हो .

Monday, June 16, 2014

फ़रियाद ....

क्यों तूफ़ान की तरह आते हो
और तिनका की तरह
मुझे उड़ा ले जाते हो ?
मैं कुछ भी समझ पाती
उसके पहले ही
मेरे वजूद को
अपना बवंडर बना
मुझपर ही
कहर बरपा जाते हो..
ये जो खुद्दार जिस्म है
उसके जर्रा-जर्रा में
दबी रहती है
जो इक जिद
उसे बेकदर मसह कर
बेकाबू सा जूनून न बनाओ...
तेरी तल्खी से तड़पता है जो
उसे अपने सीने से लगाकर
अपना सुकून न बनाओ...
न मैं संगेराह हूँ तेरी
न ही संगतराशी का
अब कोई शौक है मुझे
न ही किसी सैयाद से
किसी सिला की है आरजू
न ही किसी सज्जाद से ही
किसी वफ़ा की है जुस्तजू....
जिस्म है तो
उसकी फितरत ही है
सुलगते रहने की...
साँसे हैं तो
उसकी किस्मत है
अपनी बेवफाई में ही
उलझते रहने की...
जान है तो
उसकी भी बेताबी है
कहीं निसार हो जाए
और रूह है तो
उसकी भी बेबसी है
फना होने के लिए
कहीं बोसोकनार हो जाए...
पर जब तिनका का तक़दीर
कोई तूफ़ान लिखने लगता है
तो तिनका भी उड़कर
तूफ़ान की आँखों में ही गिरता है
फिर किसने कहाँ किस वजह से
ज़रा सी भी करवट ले ली
किसे रहता है उसकी याद
और बहते हुए
बेकसूर अश्कों की
सुनी नहीं जाती है
कभी कोई फ़रियाद .

Tuesday, May 6, 2014

आग चाहिए ......

                  और ये चिलम सुलगता रहे
                  इसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खोना है
                   तो भी एक जाग चाहिए

                   ये न जन्नत में मिलती है
                    न ही जलूम जहन्नुम में
                   न ही मदहोश महफ़िल के
                तराशा हुआ किसी तरन्नुम में

                  गर तरस कोई खाये भी तो
                   कर्ज़ बतौर दे नहीं सकता
                 कमबख़्त चीज ही ऐसी है कि
                 कसम दे कोई ले नहीं सकता

                  ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
               जो तबियत लगाने से मिटती है
                 जब तबियत कहीं लग जाए
                  तो ये खुद-ब-खुद जलती है

                   फिर तो ये जली हुई आग
                    किसी को क्या बुझाएगी
                    खुद धुआँ को जज्ब कर
                    बस रोशनी ही सुझाएगी

                  ये चिलम बस सुलगता रहे
                  उसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खो जाए
                    तो भी एक जाग चाहिए.

Saturday, January 4, 2014

जहरमोहरा ....

शून्य को खाते-पीते हुए
शून्य को ही मरते-जीते हुए
हम जैसे शून्यवादी लोग
अंकों के गणित पर
या गणित के अंकों पर
आदतन आशिक-मिज़ाजी से
किसकदर ऐतबार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
कौन पूछता है हमसे कि
हम क्यों अंकों के
आगे लगने के बजाय
हमेशा पीछे ही लगते है
या फिर हमें बेहद खास से
उन तीन और छह को
अपने हिसाब से आगे-पीछे
या ऊपर-नीचे करते रहना
औरों की तरह क्यों नहीं आता है ?
जबकि तीन और छह अंकों की
फिदाई समझौतापरस्ती में
नफा-नुकसान के हर
समर्थन व शर्तों के
इम्तिहान में किये गये
हिमायती हिमाकतों का हम भी
अपनी तरह से मुशार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
हमसे कौन पूछता है कि
आंकड़ों की राजनीति से
हमारा दिल क्यों भर गया है ?
या हमें चुनने के लिए
सिर्फ दो ही क्यों नहीं मिलता है ?
जाहिर है तीन और छह के
रणनीतिक और प्रशासनिक कौशल की
कड़ी-से-कड़ी जांच करना
हमारे वश की तो बात नहीं
और तो उनके बीच के
प्यार-तकरार को किसी कटघरे में
खड़ा कराने वाले हम कौन ?
या उनके हासिल किये गये
विश्वास मत के लचीलापन पर
अन्य अंकों की पाक-साफ़ गवाही भी
लेने-देने वाले हम कौन ?
हम जैसे शून्यवादी लोग
आज की ईमानदारी के
हावी लटकों-झटकों पर
अपनी शुतुरदिली का मुलम्मा चढ़ा
अपनी फीसदी नुमा फीलपांव को
हिलाने का जुर्रत या जहमत करके भी
घटते हुए और भी शून्य हो जाते हैं
फिर तो अंकों के जहरदार जाल में
और उन्हीं की जल्लादी चाल में
उलझ-उलझ कर
जहरमोहरा होना ही है
और अपने शून्य में ही
किसी का भी नारा लगा कर
किसी के लिए भी ताली बजाकर
या किसी का भी टोपी पहन कर
ज़िंदादिली से जीतने का
या फिर जीते रहने का
जश्न भी मनाना ही है .

Thursday, November 28, 2013

शुक्रिया ! बोलती हूँ .....

इससे ज्यादा
बेचारगी का आलम
और क्या होता है
कि बेतरतीब से बिखरे
बेजुबान हर्फों को
बड़ी तरकीब से
सजाने के बावजूद
मतलब की बस्ती में बस
मातम पसरा होता है....

वो उँगलियों के सहारे
कागज़ पर खड़ी कलम
इस हाले-दिल को
खूब जानती है
और अपनी मज़बूरी पर
कोई मलाल न करते हुए
घिसट-घिसट कर ही सही
दिए हुकुम को बस मानती है....

कोई तो आकर
मुझको समझाए
कि महज दिल्लगी नहीं है
उम्दा शायरी करना
गर करना ही है तो पहले
इक दर्द का दरिया खोदो
फिर उसमें कूद-कूदकर
सीखो ख़ुदकुशी करके मरना ....

शायद हर्फ़-दर-हर्फ़
महल बनाने वालों ने ही
मुझे इसतरह बहकाया है
व मेरे नाजुक लबों पर
उस 'आह-वाह' का
असली-नकली जाम लगाकर
हाय! किसकदर परकाया है....

असलियत जो भी हो
पर ये कलमकशी भी
फ़ितरतन मैकशी से
जरा सा भी कम नहीं है
और ये बेखुदी
आहिस्ता-आहिस्ता ही मगर
इस खुदी को ही पी जाए
तो कोई ग़म नहीं है....

अब बस
इतनी सी ख्वाहिश है कि
इस महफ़िल की आवाज में
हर किसी को सुनाई देती रहे
अपनी आवाज
वैसे भी क्या ज़ज्ब करने पर
कभी छुपा है किसी का
शौके-बेपनाह का राज ?

आज वही राज जो खुला ही है
उसे फिर से मैं खोलती हूँ
कि इस महफ़िल को
गुलजार करने वालों !
आप सबों को दिल से
इन बेतरतीब हर्फों के सहारे ही
शुक्रिया ! शुक्रिया ! शुक्रिया !
शुक्रिया ! बोलती हूँ .