जुनूं हमसे न पूछिए हुजूर कि हमसे क्या-क्या हुआ है ताउम्र
उलझे कभी आसमां से तो कभी बडे़ शौक़ से ज़मींदोज़ हुए
अपनी ही कश्ती को डूबो कर साहिल से इसकद उतर आए हम
अब आलम यह है कि इब्तदाए-इश्क का गुबार भी देखते नहीं
जो सांस की तरह थे उनसे तौबा कर लिया सीने को ठोक कर
बेशर्मी से मांग लिया दिल भी जो कभी नाजो-अदा से दिया था
उन्होंने मुरव्वत न सीखी तो तहज़ीब ही सही सीख लेते हमसे
हसरतें थी उनपर मिट जाने की और वही अदावत सिखा गये
इक-दूजे को शुक्रे-कर्दगार करके जुदा हो गए गर्मजोशी से हम
जिंदगी का क्या नई चाहतें जिधर ले जाएंगी उधर ही चल पड़ेंगे
माना कि इश्क सूफियाना था शायद है और आगे भी यूं ही रहेगा
गर गलती से भी वो याद करते हैं तो यकीनन तड़प उठते हैं हम .
जुनूं हमसे न पूछिए हुजूर कि हमसे क्या-क्या हुआ है ताउम्र
ReplyDeleteउलझे कभी आसमां से तो कभी बडे़ शौक़ से ज़मींदोज़ हुए ....
इस दुरूह कोरोना के दौर में, शुकून पहुँचाती आपकी इस गजल हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अमृता तन्मय जी।
माना कि इश्क सूफियाना था शायद है और आगे भी यूं ही रहेगा
ReplyDeleteगर गलती से भी वो याद करते हैं तो यकीनन तड़प उठते हैं हम .
सूफियाना इश्क हो तो दो बचते ही कहाँ हैं, यहाँ तो याद भी खुद ही करते खुद को और खुद ही तडप उठते हैं !
माना कि इश्क सूफियाना था शायद है और आगे भी यूं ही रहेगा
ReplyDeleteगर गलती से भी वो याद करते हैं तो यकीनन तड़प उठते हैं हम .
आज तो अंदाज़े बयाँ बिल्कुल अलग है । बहुत खूब ।
वाह! शानदार।
ReplyDeleteमाना कि इश्क सूफियाना था शायद है और आगे भी यूं ही रहेगा
ReplyDeleteगर गलती से भी वो याद करते हैं तो यकीनन तड़प उठते हैं हम
वाह !! बहुत खूब !!
बेहतरीन सृजन अमृता जी !
प्रिय अमृता जी, एक बार फिर प्रेम की नई परिभाषा गढती रचना मन को छू गई! इश्क रूहानी हो, सूफियाना हो भावनाएं तो हर हाल में हावी रहती हैं! इधर वो गलती से याद करें इधर हम बेचैन!! पर क्या पता उनकी गलती के प्रति हमारा भ्रम ही हो, आखिर इश्क में दम दोनों के दम से ही तो होता है! भावपूर्ण गज़ल के लिए हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 26-04 -2021 ) को 'यकीनन तड़प उठते हैं हम '(चर्चा अंक-4048) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाह। बहुत बढ़िया👌
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर मन को छूते भाव।
ReplyDeleteसराहनीय सृजन आदरणीया दी जी।
सादर
इश्क़े मजाज़ी और इश्क़े हक़ीक़ी दोनों दुनिया में ही रहते हैं. नज़्म इश्क़े मजाज़ी के बहुत से रंगों से गुज़र कर सूफ़ियाना रंग पर ले आती है. बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeletesundar rachana !
ReplyDeleteAbhar!
जुनूं हमसे न पूछिए हुजूर कि हमसे क्या-क्या हुआ है ताउम्र। यह पहली ही सतर बहुत कुछ (सच कहूं तो सब कुछ) बयां कर देती है। बहुत ख़ूब अमृता जी!
ReplyDeleteवाह इश्क़ बचा रह जाता है
ReplyDeleteउलझे कभी आसमां से तो कभी बडे़ शौक़ से ज़मींदोज़ हुए....
ReplyDeleteदोनों जरूरी है..धूप और छाँव।
आपने तो दिल ही उड़ेल दिया इन पंक्तियों में कि ''उन्होंने मुरव्वत न सीखी तो तहज़ीब ही सही सीख लेते हमसे
ReplyDeleteहसरतें थी उनपर मिट जाने की और वही अदावत सिखा गये''...वाह ग़जब लिखा है अमृता जी
जो सांस की तरह थे उनसे तौबा कर लिया सीने को ठोक कर
ReplyDeleteबेशर्मी से मांग लिया दिल भी जो कभी नाजो-अदा से दिया था
इश्क था सूफियाना फिर भी इस कदर टूटा
दिल से दिये दिल को ही बेदिल हो के लूटा
फिर भी तड़पन बची है क्या अहम कम पड़ गया
तो घुटने टेक कर दे दो दिल फिर उसी अदा से
लाजवाब सृजन..।
वाह!!!
जुस्तजू में उनकी आज फिर टूटे ।
ReplyDeleteलूट कर मुझको गए,बाद उसके रूठे ।।
..आपकी सुंदर नज़्म को मेरी ये दो पंक्तियां समर्पित हैं । सादर शुभकामनाएं अमृता जी ।
प्रेम की नई परिभाषा गढ़ती बहुत ही सुंदर रचना, अमृता दी।
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