Social:

Friday, April 30, 2021

बलात् ही क्यों न हो .....

साधारण हूँ

साधारण ही होना चाहती हूँ

इन्द्रियों को वश में करना नहीं आता है

इन्द्रियों की दासता भी नहीं आती है

बस इतना ही होना चाहती हूँ कि

जब क्रोध आये तो बिना प्रतिरोध के

सहजता से स्वीकार करके प्रकट करूं

और जब प्रेम आये तो

उसे भी सरलता से कर सकूं

बस उतना ही साधारण होना है

कि भावों के परिवर्तित प्रवृत्तियों में भी

स्वयं को मैं कभी न रोकूं

और यदि कोई रोके तो

उसे रोकने भी नहीं दूं 

चाहे वह प्रतिरोध

बलात् ही क्यों न हो .


20 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०१-०५ -२०२१) को 'सुधरेंगे फिर हाल'(चर्चा अंक-४०५३) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
  2. मानवीय संवेदनाओं व इच्छाओं की प्रचुरता हो इसका प्रकटीकरण ही सृष्टि की सृजनात्मकता को बनाए रखती है।
    एक बेहतरीन ईमानदार रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएं आदरणीया अमृता जी।

    ReplyDelete
  3. बहुत बारीकी से मन की हर स्थिति को वयक्त किया आपने अमृता जी,सादर शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  4. जी अमृता जी, सहज भाव से मौलिक रूप में जीना ही साधारण होने की पहचान है! बनावटी जीवन क्यों जिया जाए? आखिर सहज और साधारण रहने में जो सुख है, उसका कोई सानी कहाँ!!

    ReplyDelete
  5. व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की बहुत सुंदर और काव्यात्मक परिभाषा।

    ReplyDelete
  6. बात तो ईमानदारी से कही गई है।

    ReplyDelete
  7. साधारण हूँ
    साधारण ही होना चाहती हूँ..
    वाह!!
    सहज और और सुन्दर ।

    ReplyDelete
  8. मानवीय संवेदना को बड़ी ही ईमानदारी से शब्दों में पिरोया है आपने,सादर नमन

    ReplyDelete
  9. अमृता दी,साधारण होने में जो सहजता और महानता होती है उसे बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है आपने।

    ReplyDelete
  10. किसी भी प्रवृति को जबरदस्ती रोकना ही दिखावा करना है । काश सब यूँ ही जीवन में सरल हो सकें । यूँ सरल होना ही सबसे कठिन काम ।

    ReplyDelete
  11. बहुत सुंदर सृजन

    ReplyDelete
  12. न ही दासता हो इन्द्रियों की न ही उन पर शासन करने की कामना, मध्यम मार्ग ही सर्वोत्तम है, जीवन के लिए जब जितना जो आवश्यक हो उतना ही मिले, उससे न कम न ज्यादा तो जीवन सहज रहता है, सुंदर सृजन हेतु बधाई !

    ReplyDelete
  13. सम्वेदनशील अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  14. लाजवाब रचना

    ReplyDelete
  15. होंठों को सी के देखिये, पछतायेंगे आप
    हंगामे जाग उठते हैं अकसर घुटन के बाद.....

    कैफ़ी साब से कहा है यह. उचित ही.

    ReplyDelete
  16. बहुत खूब ..
    सजह हो के सहज जीने की चाहत .. कितनी सहज ही तो है ...

    ReplyDelete
  17. बहुत खूब अमृता जी, भावों के परिवर्तित प्रवृत्तियों में भी

    स्वयं को मैं कभी न रोकूं

    और यदि कोई रोके तो

    उसे रोकने भी नहीं दूं ...बेहद उम्दा... वाह

    ReplyDelete
  18. बहुत खूबसूरत कविता।हार्दिक आभार आपका

    ReplyDelete
  19. वाह! बहुत सुंदर!!!

    ReplyDelete