साधारण हूँ
साधारण ही होना चाहती हूँ
इन्द्रियों को वश में करना नहीं आता है
इन्द्रियों की दासता भी नहीं आती है
बस इतना ही होना चाहती हूँ कि
जब क्रोध आये तो बिना प्रतिरोध के
सहजता से स्वीकार करके प्रकट करूं
और जब प्रेम आये तो
उसे भी सरलता से कर सकूं
बस उतना ही साधारण होना है
कि भावों के परिवर्तित प्रवृत्तियों में भी
स्वयं को मैं कभी न रोकूं
और यदि कोई रोके तो
उसे रोकने भी नहीं दूं
चाहे वह प्रतिरोध
बलात् ही क्यों न हो .
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०१-०५ -२०२१) को 'सुधरेंगे फिर हाल'(चर्चा अंक-४०५३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मानवीय संवेदनाओं व इच्छाओं की प्रचुरता हो इसका प्रकटीकरण ही सृष्टि की सृजनात्मकता को बनाए रखती है।
ReplyDeleteएक बेहतरीन ईमानदार रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएं आदरणीया अमृता जी।
वाह👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
बहुत बारीकी से मन की हर स्थिति को वयक्त किया आपने अमृता जी,सादर शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजी अमृता जी, सहज भाव से मौलिक रूप में जीना ही साधारण होने की पहचान है! बनावटी जीवन क्यों जिया जाए? आखिर सहज और साधारण रहने में जो सुख है, उसका कोई सानी कहाँ!!
ReplyDeleteव्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की बहुत सुंदर और काव्यात्मक परिभाषा।
ReplyDeleteबात तो ईमानदारी से कही गई है।
ReplyDeleteसाधारण हूँ
ReplyDeleteसाधारण ही होना चाहती हूँ..
वाह!!
सहज और और सुन्दर ।
मानवीय संवेदना को बड़ी ही ईमानदारी से शब्दों में पिरोया है आपने,सादर नमन
ReplyDeleteअमृता दी,साधारण होने में जो सहजता और महानता होती है उसे बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है आपने।
ReplyDeleteकिसी भी प्रवृति को जबरदस्ती रोकना ही दिखावा करना है । काश सब यूँ ही जीवन में सरल हो सकें । यूँ सरल होना ही सबसे कठिन काम ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteन ही दासता हो इन्द्रियों की न ही उन पर शासन करने की कामना, मध्यम मार्ग ही सर्वोत्तम है, जीवन के लिए जब जितना जो आवश्यक हो उतना ही मिले, उससे न कम न ज्यादा तो जीवन सहज रहता है, सुंदर सृजन हेतु बधाई !
ReplyDeleteसम्वेदनशील अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteलाजवाब रचना
ReplyDeleteहोंठों को सी के देखिये, पछतायेंगे आप
ReplyDeleteहंगामे जाग उठते हैं अकसर घुटन के बाद.....
कैफ़ी साब से कहा है यह. उचित ही.
बहुत खूब ..
ReplyDeleteसजह हो के सहज जीने की चाहत .. कितनी सहज ही तो है ...
बहुत खूब अमृता जी, भावों के परिवर्तित प्रवृत्तियों में भी
ReplyDeleteस्वयं को मैं कभी न रोकूं
और यदि कोई रोके तो
उसे रोकने भी नहीं दूं ...बेहद उम्दा... वाह
बहुत खूबसूरत कविता।हार्दिक आभार आपका
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर!!!
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