खगोल शास्त्र के हुकुम की
नाफ़रमानी न करते हुए
नव स्वाति-नक्षत्र को आना ही है
अपने लेखा पर रोते हुए भी
दाँत निकाल-निकाल कर मुस्कुराना ही है...
पर उसका कई मन से भी भारी मन
और भारी-भारी पाँव को देखते हुए
मेरे जी में आ रहा है कि
मैं भी उसे एक बिलकुल मुफ़्त सलाह दे दूँ
कि वह चुपचाप अपना पथ बदलकर
उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव जाए
और किसी बर्फ-घर के तहखाने में
छिपकर तबतक आराम फरमाए
जबतक कि संहिता के हिसाब से
सीपी सब सुधर न जाए.....
उन सीपियों का क्या ?
उन्हें तो यूँ ही अपना मुँह फाड़े रहना है
जो कुछ भी आ जाए उसमें
उसे बस निगलते जाना है
फिर गलती से भी डकार नहीं लाना है
क्योंकि गुप्त आँखों का भी तो जमाना है
साथ ही इधर-उधर डोलती-फिरती हुई
भद्दी-गन्दी बूंदों को भी
रोगन-पालिश कर-करके मोती बनाना है.......
हाय! इन अत्याधुनिकाएँ बूंदों की तो
हर अदा ही निराली होती जा रही है
एक तो पहले ही हूर सरीखी चाल थी
अब तो और भी मतवाली होती जा रही है.....
उनके पास अब तो एक-से एक चकाचक घोषणापत्र है
जिसमें शेखचिल्ली को मात करने वाला
एक-से-एक चौंकाऊ चुटकुले हैं
जैसे कि पिरामिड को पीट-पीट कर बराबर करना
या चीन की दीवार को खिसकाकर लाना
या फिर एफिल-टॉवर को बौना करना
या झुकी मीनारों के रीढ़ को खींचकर सीधा करना
ऐसे ही और भी बड़ी-बड़ी योजनायें हैं
जिसे सुनकर अब
न तो हँसी आती है न ही दिल से रोना
सही ही कहा जाता है कि
कुछ पाने की उम्मीद में ही
चेतावनी-सा लिखा होता है खोना.....
वैसे भी पञ्चवर्षीय संवैधानिक चाल से
नव स्वाति-नक्षत्र का आना हो या जाना
या सीपियों का ही हो सौतिया सोखाना
या फिर मोतियों का ही हो मनमोहक मनमाना
या बूंदों का ही हो येन-केन-प्रकारेण बिजली गिराना
पर हम कंकड़-पत्थरों का क्या ?
उस विशेष घड़ी में
घुड़क-घुड़क कर है एक ठप्पा लगाना
फिर बाकी दिन तो वैसे ही एक समाना
और अपनी ही उलझी अंतड़ियों में
थोड़ा और उलझ कर
सौ के बदले हजार तरह से मरते जाना .
नाफ़रमानी न करते हुए
नव स्वाति-नक्षत्र को आना ही है
अपने लेखा पर रोते हुए भी
दाँत निकाल-निकाल कर मुस्कुराना ही है...
पर उसका कई मन से भी भारी मन
और भारी-भारी पाँव को देखते हुए
मेरे जी में आ रहा है कि
मैं भी उसे एक बिलकुल मुफ़्त सलाह दे दूँ
कि वह चुपचाप अपना पथ बदलकर
उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव जाए
और किसी बर्फ-घर के तहखाने में
छिपकर तबतक आराम फरमाए
जबतक कि संहिता के हिसाब से
सीपी सब सुधर न जाए.....
उन सीपियों का क्या ?
उन्हें तो यूँ ही अपना मुँह फाड़े रहना है
जो कुछ भी आ जाए उसमें
उसे बस निगलते जाना है
फिर गलती से भी डकार नहीं लाना है
क्योंकि गुप्त आँखों का भी तो जमाना है
साथ ही इधर-उधर डोलती-फिरती हुई
भद्दी-गन्दी बूंदों को भी
रोगन-पालिश कर-करके मोती बनाना है.......
हाय! इन अत्याधुनिकाएँ बूंदों की तो
हर अदा ही निराली होती जा रही है
एक तो पहले ही हूर सरीखी चाल थी
अब तो और भी मतवाली होती जा रही है.....
उनके पास अब तो एक-से एक चकाचक घोषणापत्र है
जिसमें शेखचिल्ली को मात करने वाला
एक-से-एक चौंकाऊ चुटकुले हैं
जैसे कि पिरामिड को पीट-पीट कर बराबर करना
या चीन की दीवार को खिसकाकर लाना
या फिर एफिल-टॉवर को बौना करना
या झुकी मीनारों के रीढ़ को खींचकर सीधा करना
ऐसे ही और भी बड़ी-बड़ी योजनायें हैं
जिसे सुनकर अब
न तो हँसी आती है न ही दिल से रोना
सही ही कहा जाता है कि
कुछ पाने की उम्मीद में ही
चेतावनी-सा लिखा होता है खोना.....
वैसे भी पञ्चवर्षीय संवैधानिक चाल से
नव स्वाति-नक्षत्र का आना हो या जाना
या सीपियों का ही हो सौतिया सोखाना
या फिर मोतियों का ही हो मनमोहक मनमाना
या बूंदों का ही हो येन-केन-प्रकारेण बिजली गिराना
पर हम कंकड़-पत्थरों का क्या ?
उस विशेष घड़ी में
घुड़क-घुड़क कर है एक ठप्पा लगाना
फिर बाकी दिन तो वैसे ही एक समाना
और अपनी ही उलझी अंतड़ियों में
थोड़ा और उलझ कर
सौ के बदले हजार तरह से मरते जाना .