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Tuesday, September 17, 2013

मैं प्रतीक्षा करूँ ....

                        तेरे ही बगल में मैं बैठ कर
                       तेरी ही कितनी प्रतीक्षा करूँ?
                         कभी तो थामेगा तू मुझे
                        बस इतनी ही इच्छा करूँ

                      दिवस-दिवस मधुर आशा में
                        हर एक दंश को चूमती हूँ
                      निराशा में विश्वास पालकर
                       पल-प्रतिपल मैं झूमती हूँ

                       छोटी-छोटी उर्मियाँ उठकर
                      एक अनोखी आस जगाती है
                      विलग-विलग किनारा छूकर
                     उस पार की झलक दिखाती है

                       एक धागा पिरोती रहती हूँ
                      मन के अन्स्युत मनकों में
                       सहन तक ही तुम आते हो
                      सुनती हूँ अस्फूट भनकों में

                     यह जो जीवन का तिमिर है
                      वह खोजता तेरा उजास है
                     स्नेह-ज्योति सहज ही घिर
                      ले आता मुझे तेरे पास है

                      तू जला दे शत दीपावलियाँ
                       मेरे प्रेम के कोने -कोने में
                      या बुझाकर मेरी ज्वाला को
                        बस हो जा मेरे ही होने में

                         बैठी हूँ, यूँ ही बैठी रहूँगी
                    चाहे जितना जन्म कम जाये
                  या अनियंत्रित रिसना घावों का
                       बह-बह कर यूँ थम जाए

                    कब परस करोगे जी को प्रिय!
                    क्यूँ ऐसी कोई मैं पृच्छा करूँ?
                      तेरे बगल में ही बैठकर
                    बस तेरी ही मैं प्रतीक्षा करूँ .


38 comments:

  1. यह जो जीवन का तिमिर है
    वह खोजता तेरा उजास है
    स्नेह-ज्योति सहज ही घिर
    ले आता मुझे तेरे पास है

    अमृता जी, एक भक्त के हृदय की यही तो पुकार है..असीम धैर्य के साथ प्रतीक्षा..और फिर मिलन तो एक दिन होना ही है..

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  2. छोटी-छोटी उर्मियाँ उठकर
    एक अनोखी आस जगाती है
    विलग-विलग किनारा छूकर
    उस पार की झलक दिखाती है

    ह्रदय विदारक मन की पीड़ा। …!!
    जागी हुई आस ही तो जीवन जीने की लड़ी है !!
    बहुत सुंदर …उत्कृष्ट काव्य। …
    आपकी सृजनशीलता की जितनी तारीफ की जाये कम है। ……अमृता जी। …

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  5. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  6. आपकी यह रचना कल बुधवार (18-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 120 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
    सादर
    सरिता भाटिया
    गुज़ारिश

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  7. मन के असंख्य मनकों में से एक विशिष्ट मनके की आभा दीपित है, आपके इस सृजन में !

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  8. सुन्दर प्रस्तुति..

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  9. प्रेमा भगती में ईश्वर के बिछोड़े में भगत की पीड़ा का एहसास कराती है यह रचना। ॐ शान्ति

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  10. किसीमे समाया हुआ होकर भी मन कई बार खुद को उससे अलग कर लेता है। बगल में बैठकर तुमसे सबसे सन्निकट होकर भी मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करती हूँ। हालाकि मेरा मन प्रश्न करता है वह कहीं न कहीं तुम्हारे स्पर्श की आस में तुमसे प्रश्न करता है -

    भक्त मुक्ति नहीं चाहता भक्त तो उसको देखना चाहता है। वह तो विभक्त है भाग का हिस्सा है। विभाग से विभक्त हुआ। वह अपने अस्तित्व को अपने प्रिय से रु -बी रु होकर बता करता है।

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  11. आध्यात्मिक प्रेम को सांसारिक प्रेम के शब्दों के सहारे अभिव्यक्ति देने की परंपरा सूफी संगीत में रही है. कुछ-कुछ उसी तरह की कविता....लेकिन नवीनता के भाव के प्रभाव के साथ बहुत सुंदर कविता. शुक्रिया.

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  12. बैठी हूँ, यूँ ही बैठी रहूँगी
    चाहे जितना जन्म कम जाये
    या अनियंत्रित रिसना घावों का
    बह-बह कर यूँ थम जाए----intejaar kayaamat tak,bahut sundar.
    latest post: क्षमा प्रार्थना (रुबैयाँ छन्द )
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  13. अक्षर-अक्षर साधना..अक्षर-अक्षर तप.....हर शब्द से निखर रहा है प्रेम, पीड़ा व जीवन का मंत्रोच्चार....

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  14. किसीमे समाया हुआ होकर भी मन कई बार खुद को उससे अलग कर लेता है। बगल में बैठकर तुमसे सबसे सन्निकट होकर भी मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करती हूँ। हालाकि मेरा मन प्रश्न करता है वह कहीं न कहीं तुम्हारे स्पर्श की आस में ही तुमसे प्रश्न करता है -

    भक्त मुक्ति नहीं चाहता भक्त तो उसको देखना चाहता है। वह तो विभक्त है भाग का हिस्सा है। विभाग से विभक्त हुआ। वह अपने अस्तित्व को अपने प्रिय से रु -ब- रु होकर बता सकता है।यही परमानंद के स्थिति है। प्रेमा भक्ति का उत्कर्ष है। उज्जवल रचना है अमृता तन्मया की

    मैं प्रतीक्षा करूँ ....

    Amrita Tanmay
    Amrita Tanmay

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  15. हमेशा की तरह उत्कृष्ट कृति!

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  16. छोटी-छोटी उर्मियाँ उठकर
    एक अनोखी आस जगाती है
    विलग-विलग किनारा छूकर
    उस पार की झलक दिखाती है
    बहुत सुन्दर.

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  17. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.

    रामराम.

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  18. तेरे ही बगल में मैं बैठ कर
    तेरी ही कितनी प्रतीक्षा करूँ?
    कभी तो थामेगा तू मुझे
    बस इतनी ही इच्छा करूँ
    Bahut Badiya

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  19. जिसकी चाह है जिसकी साध है लगता तो निकट है पर स्पर्श अपरिहार्य है ..... छू कर जानने की उत्कंठा ही प्रतीक्षा कराती है , मन के भाव से ही ऐसी रचना लिखी जाती है ....... बहुत सुंदर

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  20. साधो आ अमृता जी ,
    "बत्तीस पंक्तियों की जिवंत विरह बत्तीसी है आपकी रचना ..."
    मेरा अभिनन्दन

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  21. तू जला दे शत दीपावलियाँ
    मेरे प्रेम के कोने -कोने में
    या बुझाकर मेरी ज्वाला को
    बस हो जा मेरे ही होने में ..

    मधुर आत्मिक क्षणों को प्रेम की कोमल डोर में बांधा है ... सुंदर भावाव्यक्ति ...

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  22. उत्कृष्ट काव्य का नमूना है आपकी ये रचना गहन भाव सुन्दर शब्द संयोजन …… शानदार |

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  23. सांसारिक व्‍यक्तित्‍व से अलग एक दार्शनिक 'अमृतात्‍व' में तरंगित स्‍नेह-लगन की पराकाष्‍ठा।

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  24. शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
    कभी यहाँ भी पधारें औ

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  25. यह जो जीवन का तिमिर है
    वह खोजता तेरा उजास है
    स्नेह-ज्योति सहज ही घिर
    ले आता मुझे तेरे पास है

    ...असीम विश्वास...बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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  26. बहुत ही बेहतरीन रचना...
    अति सुन्दर...
    :-)

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  27. आस न परिहास होती,
    तुम न आते, मैं न खोती।

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  28. धैर्य और विश्वास जब इस तरह आशा संचरण करता रहे तो सकल अभिसार बस समय की बात होती है. सूफियाना रंग लिए अति सुन्दर कृति.

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  29. छोटी-छोटी उर्मियाँ उठकर
    एक अनोखी आस जगाती है
    विलग-विलग किनारा छूकर
    उस पार की झलक दिखाती है

    बहुत बहुत बहुत सुन्दर अमृता जी

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  30. बेहतरीन अभिव्यक्ति ..... प्रभावी विचार

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  31. यह जो जीवन का तिमिर है
    वह खोजता तेरा उजास है
    स्नेह-ज्योति सहज ही घिर
    ले आता मुझे तेरे पास है

    यह सहज काव्य है. बहुत ही सुंदर.

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  32. उफ़ ये इंतज़ार के पल ......कभी कम होंगे ???

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  33. कब परस करोगे जी को प्रिय!
    क्यूँ ऐसी कोई मैं पृच्छा करूँ?
    तेरे बगल में ही बैठकर
    बस तेरी ही मैं प्रतीक्षा करूँ .

    आपने सच कहा बेहतरीन भावनाएं

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  34. सुन्दर रचना!
    शुभकामनाएं!

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  35. यहाँ आकर साहित्य का गाढापन नजर आता है .

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  36. बहुत सुन्दर भाव .. उत्कृष्ट रचना ..

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  37. उत्कंठित चिर प्रतीक्षिता :-)

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