बेबस हूँ , असहाय हूँ
अपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ...
जिधर-जिधर वे जाते हैं
उनके ही पीछे-पीछे जाना मेरा काम है
पर वे मुझे भगा-भगा कर
इतना थकाते हैं कि
एक पल के लिए भी न चैन है न आराम है...
अक्सर वे आपस में ही गूंथकर
एक-दूसरे को ही इसकदर
गंभीर चोट पहुंचाते हैं कि
बीच-बचाव मैं करूँ तो
उल्टे मुझे ही इधर-उधर धकियाते हैं....
हरसमय ऐसे चिल्ल-पों मचा रहता है कि
मैं कितना भी सम्भालूँ
पर सँभाल में नहीं आते हैं
हाय! वे कितना मुझे सताते है
और कितना मुझे रुलाते हैं....
जब बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाकर
बड़ी मुश्किल से उन्हें बहलाती हूँ
फिर फुसला-फुसला कर
बिस्तर पर उन्हें ले आती हूँ
और बड़े प्यार से पैर दबाकर
मीठी-मीठी लोरी सुनाती हूँ
पर कितनी हतभागी मैं कि
उनकी आँखों को जरा भी नींद नहीं दे पाती हूँ
और नींद से झपती मैं
खुद को ही थपथपा कर जबरन जगाती हूँ....
न जाने कैसे उन्हें
मछलियों का खेल भी आता है
छोटी-छोटी मछलियों को निगलना
क्यों उन्हें भी बड़ा भाता है....
जो जितना बलवान है सबके सरदार बन जाते हैं
फिर चिनगियाँ छिटका-छिटका कर
खुद पर ही बड़ी धार चढाते हैं
जिसे देखकर मैं क्या
सब चौंक-चौंक कर चिहुक जाते हैं
और खुद ही हटकर उनके लिए रास्ता बनाते हैं....
कैसे कहूँ कि मेरा कुछ चलता नहीं है
मैं तो निरी गाय हूँ , निरुपाय हूँ
बड़ी बेबस हूँ , असहाय हूँ
अपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ .
अपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ...
जिधर-जिधर वे जाते हैं
उनके ही पीछे-पीछे जाना मेरा काम है
पर वे मुझे भगा-भगा कर
इतना थकाते हैं कि
एक पल के लिए भी न चैन है न आराम है...
अक्सर वे आपस में ही गूंथकर
एक-दूसरे को ही इसकदर
गंभीर चोट पहुंचाते हैं कि
बीच-बचाव मैं करूँ तो
उल्टे मुझे ही इधर-उधर धकियाते हैं....
हरसमय ऐसे चिल्ल-पों मचा रहता है कि
मैं कितना भी सम्भालूँ
पर सँभाल में नहीं आते हैं
हाय! वे कितना मुझे सताते है
और कितना मुझे रुलाते हैं....
जब बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाकर
बड़ी मुश्किल से उन्हें बहलाती हूँ
फिर फुसला-फुसला कर
बिस्तर पर उन्हें ले आती हूँ
और बड़े प्यार से पैर दबाकर
मीठी-मीठी लोरी सुनाती हूँ
पर कितनी हतभागी मैं कि
उनकी आँखों को जरा भी नींद नहीं दे पाती हूँ
और नींद से झपती मैं
खुद को ही थपथपा कर जबरन जगाती हूँ....
न जाने कैसे उन्हें
मछलियों का खेल भी आता है
छोटी-छोटी मछलियों को निगलना
क्यों उन्हें भी बड़ा भाता है....
जो जितना बलवान है सबके सरदार बन जाते हैं
फिर चिनगियाँ छिटका-छिटका कर
खुद पर ही बड़ी धार चढाते हैं
जिसे देखकर मैं क्या
सब चौंक-चौंक कर चिहुक जाते हैं
और खुद ही हटकर उनके लिए रास्ता बनाते हैं....
कैसे कहूँ कि मेरा कुछ चलता नहीं है
मैं तो निरी गाय हूँ , निरुपाय हूँ
बड़ी बेबस हूँ , असहाय हूँ
अपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ .
अपने ही धावक विचारों की धाय हूँ .....अति सुंदर अमृताजी ...ये
ReplyDeleteविचार अपने पीछे-पीछे निरंतर दोडाते ही रहते हैं सोच का सृजन तो चलता ही रहता है ....और ऐसी ही रचनाएँ होती रहती हैं ....
साभार....
सुंदर प्रस्तुति,आप को गणेश चतुर्थी पर मेरी हार्दिक शुभकामनायें ,श्री गणेश भगवान से मेरी प्रार्थना है कि वे आप के सम्पुर्ण दु;खों का नाश करें,और अपनी कृपा सदा आप पर बनाये रहें...
ReplyDeleteअमृता जी शानदार इतने सुन्दर बिम्ब के लिए हैट्स ऑफ |
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ReplyDeleteविचारों के गड्डमड्ड में भी बड़ी मछलियों की ही चलती है। विचारों की दुनिया में भी बलवान विचार सरदार बन कर चिनगियां छिटकाता है और खुद पर ही बड़ी धार चढ़ाता है। दुर्भाग्य से विचारों को ऐसी दुष्प्रेरणा राष्ट्रीय परिवेश से ही तो मिलती है। इसमें आपका कोई दोष नहीं है।
ReplyDeleteउत्तम-
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें आदरणीया-
गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें-
बड़ी बेबस हूँ , असहाय हूँ
ReplyDeleteअपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ .
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,,
गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाए !
RECENT POST : समझ में आया बापू .
अपने ही
ReplyDeleteधावक विचारों की धाय हूँ
aur kya chahiye..
bahut khub......
ये तो होना ही होता है क्योंकि ओर कोई भी नहीं पालता अपने विचारों को अपने सिवा ... फिर गुलाम हो जाता है इन विचारों का ... इनको साधना भ आना जरूरी है जीवन में ...
ReplyDeleteअपने ही
ReplyDeleteधावक विचारों की धाय हूँ ..बहुत सुन्दर.
बड़ा कठिन है विचारों की गति को पकड़ना, साथ साथ विचरना .. सुंदर बिम्ब के साथ प्रस्तुत रचना
ReplyDeleteवैचारिक उत्पात की शक्ल पल-पल बदलती रहती है ....सब माया है ....
ReplyDeleteविचार ही सब कुछ हैं और सर्वशक्तिशाली हैं |
ReplyDelete“ हर संडे....., डॉ.सिन्हा के संग !"
बड़े शैतान बच्चे हैं ये विचार .....लेकिन आप तो बहुत अच्छे से इन्हें संभाल रही हैं ...आभार
ReplyDeleteविचारों की लालना-पालना कोई खाला जी का घर तो नहीं है कि हुकुम चलाया और सब काम हो गया...यहाँ तो पगला तक जाने का खतरा है..तभी तो कबीर कह गये हैं..जो सर काटे आपना...उनसे भी नहीं संभली होगी विचारों की मिजाजपुर्सी..
ReplyDeleteवाह ,
ReplyDeleteअलग सी रचना है !
शुभकामनायें !
कई बार इंसान बहुत कुछ जानकर भी असहाय हो जाता है ...
ReplyDeleteविचरण करते विचार..
ReplyDeleteबेहतरीन कृति..
अपने विचारों के निरीह विचरण में विवशता झलकती है
ReplyDeleteशानदार भाव अभिव्यक्त हुये हैं इस रचना में, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मैं तो निरी गाय हूँ , निरुपाय हूँ
ReplyDeleteबड़ी बेबस हूँ , असहाय हूँ
अपने ही
धावक विचारों की धाय हूँ .
वाह...वाह...
बहुुत बढ़िया अमृता
ReplyDeleteबेबस असहाय धाय,
ReplyDeleteकलम से उतार जाय
द्वन्दरत कुछ भाव जो
पाठक के मन सुहाय
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 12/09/2013 को क्या बतलाऊँ अपना परिचय - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः004 पर लिंक की गयी है ,
ReplyDeleteताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें. कृपया आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
अस्त-व्यस्त मनस्थिति का सुंदर शब्दचित्र!
ReplyDeleteविचारों की धाय होना कोई मामूली बात नहीं!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन!
अपने ही धावक विचारों की धाय हूँ-बहुत सुन्दर विचार
ReplyDeletelatest post गुरु वन्दना (रुबाइयाँ)
जी बहुत हि सुंन्दर विचार है आपके .........
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