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Saturday, February 14, 2015

उस कल्पतरु की छाँव में .....

अंतर के सुप्तराग को जगाकर
कामनाओं को अति उद्दीप्त कराकर
नभ से प्रणयोतप्त जलकण टपकाकर
इस अमा की घनता को और बढ़ाकर
पूर्ण उद्भट चन्द्र सा तुम आना नहीं
यदि आना भी तो मुझे अपनी
चाँदनी से उकसाकर चमचमाना नहीं
यदि मैं चमचमा भी गयी तो नहीं ले जाना तुम
उस कल्पतरु की छाँव में
और मत ही भरना मुझे अपनी बाँह में

उस कल्पतरु की छाँव में
आलिंगनयुत तेरे बाँहबन्धों में
संधित कल्पनायें रति-रत होने लगेंगी
औ' आतुर मन की चिर सेवित संचित
प्रणय-पिपासा भी सदृश्य हो खोने लगेंगी
एक कुतूहल भरा मालिन्य मुखावरण में
दो देह भी कथंचित् अदृश्य होना चाहेंगे
पर अमा-विहार की हर एक गति-भंगिमा से
कई-कई गुणित विद्युतघात छिटक जाएंगे

उस कल्पतरु की छाँव में
चिर-प्रतीक्षित वांछक का हर वांछन
क्षण में तड़ित-गति से पूरा होगा
पर प्रखर जोत से ओट की वांछा लिए
इस निराकुल निरावृता का तो
हर यत्न ही मानो अधूरा होगा
निखरी हुई दिखावे की अस्वीकृति में
निहित होगी पूर्ण मौन स्वीकृति
औ' लालायित लज्जित प्रणय-अभिनय भी
प्रिय होंगे सम्मोहक स्वाभाविक सहज कृति

उस कल्पतरु की छाँव में
वर्ण-वर्ण के कल्प-पुष्पों से
मेरी वेणी को मत गूँधित करना
औ' इन अंगों पर पुष्प-पराग का लेप लगा
संशुद्ध सौंदर्य को मत सुगंधित करना
माणिक-मणियों-रत्नों या स्वर्णाभूषणों को
संयोगी-बेला का बाधा मत ही बनाना
कुछ अन्य प्रमाण यदि शेष रह जाए तो
तुम यथासंभव उसे निर्मूल मिटाना

उस कल्पतरु की छाँव में
उन्मत हो रतिफल-मदिरा मत ही चखना
औ' मेरी मदिरा से भी दूर ही रहना
यदि मदमोहित होकर तुम मधुमय हुए तो
यदि मुझसे    -क्रीड़ा में जो तन्मय हुए तो
तुम्हें या स्वयं को भला मैं कैसे सम्भालूंगी ?
विदित हो जाएगा कोई भी साक्ष्य तो
केवल मैं ही अभिसारिका कहलाउंगी

हाँ! प्रेम है तुमसे पर लोगों में
किसी भी संक्रामक अचरज को न  जगने दूंगी
औ' कोई भी अनुमान सहज न लगने दूंगी
इसलिए मत भरना मुझे अपनी बाँह में
उस कल्पतरु की छाँव में .

Thursday, February 5, 2015

बिजहन.....

                  कईसन बिपता अईले हो रामा !
                 अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !

                  बढ़िया फसल के ढँढोरा पिटाई
                   अउर मरल बीज मुफ्ते बँटाई
                अईसे घेघा में परल फास हो रामा !
                बिथराई गईल सब आस हो रामा !

                 बिजुका हकबकाये रे बीचे खेत
                आरी पर परल हई हरिया बिचेत
                भाग उजार देलो दलाल हो रामा !
               मानुस जनम पर मलाल हो रामा !

                   कटल करेजा न फूटल जरई
                  कऊन दाना अब चुगत चिरई
                 खेती न करब सरकारी हो रामा  !     
              बिजहन के मारल बनिहारी हो रामा !   

                महाजन के बियाज कईसे लौटाई ?
                पेट के ही खातिर मरियादा बिकाई
                करम अभागा होई गेल हो रामा !
                सरकार ला ई सब खेल हो रामा !

                ढँढोरची के फूटल ढोल हो विधाता !
               भुखर के ढारस से खाली जोरे नाता
               नेतवन के त हमनीं थारी हो रामा !
               जईसे भात-दाल-तरकारी हो रामा !

                 अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !
                 कईसन बिपता अईले हो रामा !


बिपता- मुसीबत , बिरवा- पौधा
बिथराई- बिखरना , बिजुका- पुतला
हरिया- हल जोतने वाला
बिजहन- निर्जीव बीज
जरई- बीज से अंकुर
बनिहारी- खेती-बाड़ी.