गरीबी के अंतिम दुर्भाग्य से
पूरी तरह कुचला हुआ
न जाने किस सपनीली उम्मीद पर
हताशा के आखिरी छोर पर भी
मजबूती से टिका हुआ
लिपटे कफ़न में भी जिन्दा गरीब...
चुटकी भर नमक से भी सस्ती
अपनी जान को चुटकी में दबाये
गरीबी के नशे में लड़खड़ाता हुआ
क्यों दिखता है न हमें आपको हर जगह...
जिनके लिए हमने -आपने तो
बिल्कुल ही नहीं ....तो
कहीं इस काल-कुचक्र ने तो नहीं
जबरन खिंचवा रहा है हमसे -आपसे
वही एक रेखा - गरीबी रेखा......
हाँ ! उसी लक्ष्मण रेखा की तरह
हम-आप बातें करते हैं उसे उठाने की
उठ आते हैं कितने ही भाव चुपके से
हमारे ह्रदय के मरघटी कोने में...
जब निकलता है संवेदना के बोल तो
अपने लिए धन्यवाद ज्ञापन उपरवाले को
उनके लिए दिखाते-भींचे ओठ के पीछे
दबा लेते हैं हम राहत की मुस्कान..
चेहरे पर बनाई गयी चिंता-रेखा पर
गुलाबी सुगंध से फड़कते हमारे नथुने..
उपहासी नजरों से खाई को देखना
पुल बनाने का आडम्बर करना
जिसे अँधेरे में गिरा भी देना
इतना काम कम है क्या
अपनी पीठ थपथपाने के लिए....
साथ ही गरीबी-विमर्श से हम
चालाकी से छुपा लेते हैं उस
मारामारी के प्रतिस्पर्धात्मक डर को
जो रेखा मिटने से हो जाएगा बेकाबू
हाँ ! समय बदल गया है
और समय से ज्यादा हम.....
उस रेखा के उस पार हैं वे गरीब
और इस पार हम आधुनिक रावण जो
हरण सा कुकृत्य भला क्यों करने लगे
बस उन्हें थोड़ा खींच कर
उसी गरीबी रेखा पर खड़ा करके
उन्हें यूँ ही जलते देखे .
एक सवाल खुद से ही---- कि हम गरीबी रेखा बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं ?