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Wednesday, December 22, 2010

विरोधाभास

क्यूँ मैं कहूँ
पारदर्शी हो तुम 
पूरे सौ प्रतिशत
जबकि तुममें
दिखती हूँ मैं...
पर कहीं न कहीं
है विरोधाभास
जहाँ मेरी धडकनें
मिल गयी है तुमसे
वहीँ एक -एक विचार
कहीं छूट गए है...
मैं अनुभव कर सकती हूँ
तुम्हारी विराटता का
अपनी ग्राह्यता के अनुसार
ग्रहण कर सकती हूँ तुम्हें 
मिलावटों से निथारते हुए...
पर सांसो की डोर
बंधी है तुमसे ...
और मैं लेना चाहूंगी
जन्म-जन्मान्तर तक जन्म
तुमसे बंधने के लिए
या अपनी मुक्ति के लिए
या फिर
विरोधी सत्य के लिए ?
 

Thursday, December 2, 2010

इतर

कोई परिग्रह नहीं
परिग्रह तो दूर की बात
कोई आग्रह भी नहीं ...
कोई प्रतिबंध नहीं
प्रतिबंध तो दूर की बात
कोई अनुबंध भी नहीं ...
कोई विकांक्षा नहीं
विकांक्षा तो दूर की बात
कोई आकांक्षा भी नहीं ...
कोई परिवर्जन नहीं
परिवर्जन तो दूर की बात
कोई आवर्जन भी नहीं ...
कोई विक्षोभ नहीं
विक्षोभ तो दूर की बात
कोई क्षोभ भी नहीं ...
कोई प्रतिलंभ नहीं
प्रतिलंभ तो दूर की बात
कोई उपालंभ भी नहीं ...
कोई परिसंवाद नहीं
परिसंवाद तो दूर की बात
कोई संवाद भी नहीं ....
प्रिय! इन सबसे इतर यदि
हम एक-दूसरे में
प्रतिपल प्रमत्त हों ...
हमारा रोम-रोम
प्रतिक्षण प्रस्फुटित हो...
और हमारी तरंगें
प्रतिसम प्रसक्त हों ...
तो निःस्संदेह
प्रेम ही है ...