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Thursday, December 31, 2020

सुना है कि ---

                                 ॐ शांति: शांति: शांति: ॐ


                 सुना है जो हम हैं वही हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है । हमें जो बाहर दिखता है ,  वह हमारा ही प्रक्षेपण होता है ।  स्वभावत: हमारी चेतना जो जानती है उसी का रूप ले लेती है । इसलिए हम सुंदर को देखते हैं तो सुंदर हो जाते हैं , असुंदर को देखते हैं तो असुंदर हो जाते हैं । हमारे सारे भाव भी अज्ञात से आते हैं और हमें ही यह निर्णय करना होता है कि हम किस भाव को चुनें ।  ये भी सुना है कि संतुलन प्रकृति का शाश्वत नियम है । जैसे दिन-रात , सुख-दुख , अच्छाई-बुराई , शुभ-अशुभ , सुंदर-असुंदर आदि । बिल्कुल पानी से आधे भरे हुए गिलास की तरह । गिलास को हम कैसे देखते हैं वो हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है ।  

                           ये भी सुना है कि इन दृश्य और अदृश्य के बीच भी बहुत कुछ है जो तर्कातीत है । काव्य उन्हीं को देखने और दिखाने की कला है । तब तो साधारण से कुछ शब्द आपस में जुड़ कर असाधारण हो जाते हैं और इनका उद्गार हमें रससिक्त करता है । साथ ही हमारा अस्तित्व आह्लादित होकर और प्रगाढ़ होता है ।  हम किन भावों को साध रहे हैं इतनी दृष्टि तो हमारे पास है ही । आइए ! उन्हीं भावों का हम खुलकर आदान-प्रदान करें हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ।

न जाने कितनी भावनाऐं , भीतर-भीतर ही

उमड़-घुमड़ कर , बरस जाती हैं

जब तक हम समझते , तब तक

शब्दों के छतरियों के बिना ही

हमें भींगते हुए छोड़कर , बह जाती है

आओ ! मिलकर हम

छतरियों की , अदला-बदली करें

भाव बह रहें हैं , थोड़ा जल्दी करें

एक-दूसरे के हृदय को , खटखटाएं

कुछ हम सुने , कुछ कहलवाएं

बांधे हर बिखरे मन को

उन के हर एक सूनेपन को

आओ ! सब मिलकर , साथ-साथ शब्द साधें 

गुमसुम , गुपचुप यह जीवन कटे

छाई हुई उदासियों का , आवरण हटे

शब्द-शब्द से मुस्कानों को , गतिमय बनाएं

आओ ! हर एक भाव में , पूरी तरह तन्मय हो जाएं .

Monday, December 28, 2020

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी .......

जब आंँखें अंधकार से भर जाएंगी

दृष्टि स्वयं में ही असहाय हो जाएंगी

प्रतिमित प्रतिमाएं सारी खंडित हो जाएंगी

असह्य हो जाए जब वेदना तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियांँ हमारी


जब चूकना ही चूकना सहज क्रम हो जाए

प्रति फलित परिष्कृति बरबस भ्रम हो जाए

अकल्पित संघर्षों में क्षुद्रतम सारा श्रम हो जाए

दुष्कल्पनाएं , शंकाएं जब सहचरी हो तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


जब अनजानी , अपरिचित सब राहें होंगी

विवशता की अचरज से भरी आहें होंगी

अति यत्न से सिंचित , संचित दम तोड़ती चाहें होंगी

निरपवर्त नियति हो जब परवश पराजय तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


जब शांति का आगार सब अंगार हो जाए

सारा मधुकलश ही विष का सार हो जाए

क्लेश , शोक हर उत्सव का प्रतिकार हो जाए

संकुचित , व्यथित विचलन हो जब डगर तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी


उन स्मृतियों में मेरी संतृप्ति का स्नेहिल स्पर्श होगा

तुम्हारे अस्तित्व को मुझ तक खींचता , प्रबल आकर्ष होगा

सोखती हूँ समूचा तुम्हें मैं , सोचकर भी अपार हर्ष होगा

सह्य हो जाएंगी तब वेदना तुम्हारी

तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी .


Tuesday, December 22, 2020

जोबन ज्वार ले के आउँगी ........

फिर से सांँझ हो रही है कहांँ हो मेरे हरकारे

कब से अब तक यूँ बैठी हूंँ मैं नदिया किनारे

फिर आज भी कहीं प्यासी ही लौट न जाऊं

तड़के उनींदे नयनों के संग फिर यहीं आऊं


थका सूरज किरणों को जैसे-तैसे समेट रहा है

धुँधलका भी जल्दी से क्षितिज को लपेट रहा है

चारों ओर एक अजीब- सी बेचैनी पिघल रही है

मेरी भी लालिमा अब तो कालिमा में ढल रही है


बगुला , बत्तख सब जा रहे अपने ठिकाने पर

शायद मछलियाँ भी चली गईं उस मुहाने पर

पंछियों ने तो नीड़ो तक यूँ मचाई होड़ाहोड़ी है 

पर मैंने अब तक लंबी- लंबी सांँसे ही छोड़ी है


ओ! बालू के बने घरों को कोई कैसे फोड़ गया है

ओ! बिखरे सारे कौड़ियों को भी ऐसे तोड़ गया है

शंख , सीपियों की उदासी और देखी नहीं जाती

तुम जो ले आते मेरा पाती तो इन्हें पढ़के सुनाती


दूर कहीं मछुआरे कुछ गीले-गीले गीत गा रहें हैं

हुकती कोयलिया से ही पीर संगीत मिला रहे हैं

जैसे तरसती खीझ तिर- तिर कर कसमसाती है

मुझसे भी टीस लहरियां आ- आकर टकराती है


पीपल का पत्ता एक बार भी न झरझराया है

मंदिर का घंटा भी अब तक नहीं घनघनाया है

अंँचल की ओट में भी दीप बुझ-बुझ जाता है

मेरे भी पलकों के तट पर कुछ छलछलाता है


लहरों पर सिहरी-सिहरी सी ये कैसी परछाईं है

मँझधारों की भी अकड़ी-तकड़ी सी अँगराई है

तरुणी- सी तरणी बिन डोले ही सकुचा रही है

पल- पल रूक कर पुरवा भी पिचपिचा रही है


उन्मन चांँद का चेहरा क्यों उतरा- उतरा सा है

बादलों का बाँकपन कुछ बिसरा-बिसरा सा है

सप्तर्षियों की चल रही कौन-सी गुप्त मंत्रणा है

उनसे भी छुपाए नहीं छुप रही ये कैसी यंत्रणा है


इसी हालत में ही मेरे हरकारे घर तो जाना होगा

स्वागत में फिर नये-नये रूपों में वही ताना होगा

कैसे तोड़ूं उसकी सौं साखी है यह नदी किनारा

यदि आस जो छोड़ूं तो आखिरी सांँस हो हमारा 


रात भर प्रीत जल-जलकर अखंड ज्योति बनेगी

इन नयनों से झर-झरकर बूंँदें मंगल मोती गढ़ेंगी

कल फिर जोबन ज्वार ले के आउँगी इसी किनारे

उस जोगिया का पाती ले जरूर आना मेरे हरकारे .


Thursday, December 17, 2020

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए .......

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

हाथ थामे कभी हम थे चले
आँखों में एक से सपने पले
संग-संग सब हंसे और खेले
पीड़ाओं में भी थे घुले-मिले

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

रंगो के थे क्या मनहर मेले
बतकहियों के अनथक रेले
एक से बढ़के एक अलबेले
हर पीछे को बस आगे ठेले

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए

उलझाते सुलझाते हुए झमेले
फाग आग सब मिलकर झेले
हुए कभी न हम ऐसे अकेले
उन दिनों को अब कैसे भूलें 

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए 

हर रूठे को आवाज लगाऊं
रोऊं गाऊं और उन्हें मनाऊं
पर अब ये तो समझ न पाऊं
कि उन छूटे को कैसे बुलाऊं

कुछ रूठ गए कुछ छूट गए
अनकिये से वादे थे टूट गए 


यह पावन भाव उन समस्त पथगामियों एवं पथप्रदर्शकों को निवेदित है जिन्होंने इस ब्लॉग जगत को विपुल समृद्धि प्रदान किया है । आज जो दृष्टिगत हैं वे निःसंदेह ह्रदयग्राही हैं पर हृदय दौर्बल्यता दबंग यादों को लिए हुए बारंबार उस कल्पतरु की छांव में जाना चाहता है जहां पुनः यह कहने की इच्छा बलवती होती जाती है --- ये ब्लॉगिंग है जनाब !

Sunday, December 13, 2020

हजारों-लाखों चुंबन है .....

 मेरे रोएं-रोएं पर तो तुम्हारा ही वो हजारों-लाखों चुंबन है 

मेरी सांस-सांस पर सुमरनी-सा कसा तेरा ही आलिंगन है 

अब कैसे बताऊं कि तुम उपहार में ही तो मिले हो हमको 

औ' हमारी नस-नस में दौड़ रहा तुम्हारा छिन-छिन संगम है 


हाँ! अब तो चौंकती भी नहीं किसी भी अनजान आहट पर 

लगाम लिए फिरती हूँ पल-पल की उस विरही घबराहट पर

न जानूं कि कैसे अपने-आप उछलती लहरें सरि तल हो गई 

हाय! चकित हूँ ,विस्मित हूँ ,बहकी हुई सी इस बदलाहट पर 

 

सारी छूटी सखियाँ सब अब मुझे, बहुत ही भाने लगी हैं 

हिल-मिल कर हिय-पिय की वो बतिया बतियाने लगी हैं

कैसे कहूं कि मेरी सारी समझ भरी भारी-भरकम बातों पे

सब मिल पेट पकड़-पकड़कर जोर-जोर से ठठाने लगी हैं 

   

 कहती- हमने तो देखा है तेरे हर एक उस पागलपन को

 जल-जल कर जल के लिए मछली की चिर तड़पन को 

 कैसे हम सब तब तनिक भी न भाती सुहाती थी तुझको

 औ' तेरी अंखियांँ तो खोजती थी बस अपने ही प्रीतम को

     

ना जाने किससे , कब और कैसे लग गई तुझे ये प्रेम अगन

सब कुछ भूल-भाल कर तू तो बस प्रीतम में हो गई मगन

पगली ! तब तू बस गली-गली ऐसे मारी-मारी फिरती थी

छोड़-छाड़ कर सब मान-मर्यादा और लोक-लाज का सरम


हम समझाती थी ऐसे मत हो बावली , कुछ तो धीरज धर

प्रीतम तेरा है तेरा ही रहेगा , तिल-तिल कर तू यूं न मर

मिथ्या बोल तब तो थे न हमारे अब जाकर तुमने जाना है

माना कि भूल थी तेरी पर तू क्षमा मांग और कान पकड़


उन्हें कैसे बताऊं कि प्रीत ने ही मुझे तो स्नेही बना दिया

तुम्हारा आँखो से ओझल हो-हो जाना संदेही बना दिया

पर अब संभोगी संगम के चुंबनों और आलिंगनों ने मुझे

रोएं-रोएं को चिर तृप्ति देकर दीपित दिव्यदेही बना दिया


कभी विदेही तो कभी सैदेही मेरा अजब-गजब सा होना है

प्रीतम को पाया तो ही पाया कि क्या पाना है क्या खोना है

प्रपंची अँखियो से अब सखियों में भी प्रीतम ही दिखता है 

उन्हें कैसे बताऊं कि अब बस हँसना है मुझे न कि रोना है .


Monday, December 7, 2020

शांतिक्षेत्र में ये क्या हो रहा है ......

मीलों दूर बैठा मन

उत्सुक है , बहुत आतुर है

जानने को पीड़ित है

क्रांतिक्षेत्र / शांतिक्षेत्र में ये क्या हो रहा है

सत्य और न्याय के लिए अब और युद्ध नहीं होना चाहिए

इसलिए मनुपुत्रों ने लाखों- करोड़ों युद्धों को 

सफलतापूर्वक संपन्न कराने के बाद 

लिए गए अघोषित सौगंध और शांति से किये अनुबंध के कारण 

कुरुक्षेत्र का बहिष्कार कर रहे हैं और शांतिक्षेत्र में जमें हैं

शांति समर्थक और उनके विरोधी क्या- क्या कर रहे हैं

ये जानने के लिए मन बड़ा व्यग्र है इसलिए वह

कभी टीवी खोलता तो कभी अखबार पलटता है

मोबाइल में न्यूज नोटिफिकेशन पर पल- पल नजर रखता है

चौबीसों घंटे सोशल मीडिया का खाक छानते रहता है

विदेशी न्यूज़ एजेंसी पर भी ताका-झांकी करके 

सेंसर किया गया गुप्त जानकारियां पाना चाहता है

परिचितों को भी फोन लगाकर आँखो देखा हाल जानना चाहता है

चाहे वो हमारी तरह मीलों दूर ही क्यों न हो

भले ही ऊपर- ऊपर से दिखाई पड़ती आँखे हैं

पर हम अंधों की जिज्ञासाओं का कोई अंत नहीं है

बात यदि शांति स्थापित करने की हो तो अशांति स्वभाविक है

हम तक छन- छन कर जो खबरें आ रही है 

उसके आधार पर यही लग रहा है कि

चारों ओर शांति के मुक्तसैनिक मोर्चा संभाले हुए है

बड़ी ही शांति पूर्वक एक नई दुनिया बनाने की पहल करते हुए

मानव को पहले के वनिस्पत कुछ अधिक सभ्य , सुसंस्कृत दिखाते हुए

युगों- युगों से शोषण के शिकार स्वार्थ के शासन के

कदमों में श्रद्धा से चढ़ाए गए वर्तमान और भविष्य को

चक्रवृद्धि ब्याज सहित लौटाने के आग्रहों का भेंट देकर

बदले में सभ्येतर प्रतीक्षा को सलीका से ओढ़कर सब डटे हुए हैं

युगों- युगों से चढ़ी कई- कई परतों वाली संतुष्टि के प्लास्टर के भीतर

भरभराते दरारों की दबायी- छुपायी हुई 

दमन की गाथाओं को चुन- चुनकर चिन्हित कर रहे हैं

परंपराओं की जमी सीमेंट को क्रांति की नोंक से खुरच रहे हैं

रूढ़िग्रस्त चिंतनों की नींव से धीरे- धीरे एक- एक ईंट निकाल रहे हैं

संरक्षित खंडहरों को सम्मानित ढंग से सलामी देकर विदा कर रहे हैं

उन शांति के मुक्तिसैनिकों में शामिल होने की हमारी भी पूरी अर्हता है

पर परंपराओं का क्रुर कानून इजाजत नहीं देता है शांतिपूर्ण क्रांति का

मन का देश आज भी गुलाम है युद्धरत शांतिदूतों के आगे .


Friday, December 4, 2020

भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---

भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो 

किस रूप से खिले हो , किस ढंग से खिले हो

किसी विवशता में खिले हो या मलंग से खिले हो

किसी के तदनुरूप खिले हो या अपने अनुरूप खिले हो

ये खिलना तुम्हारा स्वभाव है या किसी का प्रभाव है

क्षणजीवी हो या दीर्घजीवी  ,  उपयोगी हो या अनुपयोगी

तुम्हारा अपना कितना जमीन है , कितना आसमान है

तुम्हारे खिलने का अनुमानित कितना मान- सम्मान है


भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

क्यों तुमसे उठी हुई तुम्हारी सुगंध , सुवास , मिठास

हवाओं में तैर कर मीलों दूर तक फैल- फैल जाती है 

क्यों तेरे पराग- परिमल की कणी- कणी छिटक- छिटक कर

सबके नासपुटों को जाने- अनजाने में भी फड़काती है 

क्यों तेरे मदिर मादकता से स्वयं पर किसी का वश न रहता है 

भँवरा- सा मचल- मचल कर वह तुम तक आ- आ बहता है 

क्यों मधुछत्तों से मधुमक्खियां भागी- भागी तुम तक आती है 

क्यों तितलियां तुम पर ही नाचती,  डोलती,  गाती , मंडराती है 


फूलों- सी ही मेरी कविताएं  मुझसे झर- झर झरती हैं

कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है

कविता बहाने वाली बह- बह कर चुपके से कहीं हट जाती है

मैं भी देखती हूँ कि कविता कुछ- कुछ उपनिषद- सी ही घट जाती है


भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---