भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---
तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो
किस रूप से खिले हो , किस ढंग से खिले हो
किसी विवशता में खिले हो या मलंग से खिले हो
किसी के तदनुरूप खिले हो या अपने अनुरूप खिले हो
ये खिलना तुम्हारा स्वभाव है या किसी का प्रभाव है
क्षणजीवी हो या दीर्घजीवी , उपयोगी हो या अनुपयोगी
तुम्हारा अपना कितना जमीन है , कितना आसमान है
तुम्हारे खिलने का अनुमानित कितना मान- सम्मान है
भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---
क्यों तुमसे उठी हुई तुम्हारी सुगंध , सुवास , मिठास
हवाओं में तैर कर मीलों दूर तक फैल- फैल जाती है
क्यों तेरे पराग- परिमल की कणी- कणी छिटक- छिटक कर
सबके नासपुटों को जाने- अनजाने में भी फड़काती है
क्यों तेरे मदिर मादकता से स्वयं पर किसी का वश न रहता है
भँवरा- सा मचल- मचल कर वह तुम तक आ- आ बहता है
क्यों मधुछत्तों से मधुमक्खियां भागी- भागी तुम तक आती है
क्यों तितलियां तुम पर ही नाचती, डोलती, गाती , मंडराती है
फूलों- सी ही मेरी कविताएं मुझसे झर- झर झरती हैं
कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है
किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है
विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है
भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है
निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है
कविता बहाने वाली बह- बह कर चुपके से कहीं हट जाती है
मैं भी देखती हूँ कि कविता कुछ- कुछ उपनिषद- सी ही घट जाती है
भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०४-१२-२०२०) को 'निसर्ग को उलहाना'(चर्चा अंक- ३९०६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
वाह लाजवाब
ReplyDeleteशून्य से शब्द उतरते लगते हैं और शब्द शून्य में ले जाते हैं
ReplyDeleteआपकी कविताओं से दोनों स्वाद एक साथ सुहृद पाठकगण पाते हैं
चन्द्रमा, पुष्पों, ऋतु डोली में चलती-फिरती अपनी निर्झरिणी को कविता के रूप में ऐसे ही बहने दें........अत्यंत सुंदर....मनमोहक!!!
ReplyDeleteभला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---
ReplyDeleteतुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो
बहुत ही सटीक सवाल।
फूलों- सी ही मेरी कविताएं मुझसे झर- झर झरती हैं
ReplyDeleteकभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है
किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है
विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है
भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है
निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है...। बहुत ख़ूब अमृता जी..।कितनी ख़ूबसूरती से आपने शब्दों को पिरोया है फूलों की माला में..सुंदर सृजन..।
सत्य कहा आपने। अपनी लिखी रचना, किसी की मुहताज नहीं । क्यूँ लिखा, क्या लिखा, कैसे लिखा, कब लिखा, कहाँ लिखा आदि। कोई तारीफ करे या न करे, कोई पढे या न पढे।
ReplyDeleteमन की बहाव और विचारों व भावों का सैलाब है यह। निर्मल निर्झरिणी है और आब है यह।
साधुवाद व शुभकामनाएं आदरणीया।
सचमुच ! कुछ - कुछ उपनिषद सी ही हैं आपकी रचनाएँ ... मुझे बहुत अच्छी लगती हैं ... शुभकामनायें आपको
ReplyDeleteफूलों- सी ही मेरी कविताएं मुझसे झर- झर झरती हैं
ReplyDeleteकभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है
किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है
विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है
भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है
निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है
बहुत सुन्दर सटीक मनभावनी सी....
वाह!!!!
भावपूर्ण सुंदर रचना...
ReplyDeleteबहुत सुंदर स्वातं सुखाय होती है कविता।
ReplyDeleteसच कवि किसी को जवाब देने को बाध्य नहीं होता।
बहुत सुंदर काव्य है सिर्फ भावों का श्रृंगार ही नहीं मनकी बात भी ।
अभिनव सृजन।
श्लाघनीय रचना
ReplyDeleteआह यह भेद अगर पता चल पाता तो ईश्वर के रहस्य पर प्रश्न आ जाता।
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