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Friday, December 4, 2020

भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---

भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो 

किस रूप से खिले हो , किस ढंग से खिले हो

किसी विवशता में खिले हो या मलंग से खिले हो

किसी के तदनुरूप खिले हो या अपने अनुरूप खिले हो

ये खिलना तुम्हारा स्वभाव है या किसी का प्रभाव है

क्षणजीवी हो या दीर्घजीवी  ,  उपयोगी हो या अनुपयोगी

तुम्हारा अपना कितना जमीन है , कितना आसमान है

तुम्हारे खिलने का अनुमानित कितना मान- सम्मान है


भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

क्यों तुमसे उठी हुई तुम्हारी सुगंध , सुवास , मिठास

हवाओं में तैर कर मीलों दूर तक फैल- फैल जाती है 

क्यों तेरे पराग- परिमल की कणी- कणी छिटक- छिटक कर

सबके नासपुटों को जाने- अनजाने में भी फड़काती है 

क्यों तेरे मदिर मादकता से स्वयं पर किसी का वश न रहता है 

भँवरा- सा मचल- मचल कर वह तुम तक आ- आ बहता है 

क्यों मधुछत्तों से मधुमक्खियां भागी- भागी तुम तक आती है 

क्यों तितलियां तुम पर ही नाचती,  डोलती,  गाती , मंडराती है 


फूलों- सी ही मेरी कविताएं  मुझसे झर- झर झरती हैं

कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है

कविता बहाने वाली बह- बह कर चुपके से कहीं हट जाती है

मैं भी देखती हूँ कि कविता कुछ- कुछ उपनिषद- सी ही घट जाती है


भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---


13 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०४-१२-२०२०) को 'निसर्ग को उलहाना'(चर्चा अंक- ३९०६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. शून्य से शब्द उतरते लगते हैं और शब्द शून्य में ले जाते हैं
    आपकी कविताओं से दोनों स्वाद एक साथ सुहृद पाठकगण पाते हैं

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  3. चन्द्रमा, पुष्पों, ऋतु डोली में चलती-फिरती अपनी निर्झरिणी को कविता के रूप में ऐसे ही बहने दें........अत्यंत सुंदर....मनमोहक!!!

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  4. भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

    तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो
    बहुत ही सटीक सवाल।

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  5. फूलों- सी ही मेरी कविताएं मुझसे झर- झर झरती हैं

    कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

    किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

    विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

    भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

    निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है...। बहुत ख़ूब अमृता जी..।कितनी ख़ूबसूरती से आपने शब्दों को पिरोया है फूलों की माला में..सुंदर सृजन..।

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  6. सत्य कहा आपने। अपनी लिखी रचना, किसी की मुहताज नहीं । क्यूँ लिखा, क्या लिखा, कैसे लिखा, कब लिखा, कहाँ लिखा आदि। कोई तारीफ करे या न करे, कोई पढे या न पढे।
    मन की बहाव और विचारों व भावों का सैलाब है यह। निर्मल निर्झरिणी है और आब है यह।

    साधुवाद व शुभकामनाएं आदरणीया।

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  7. सचमुच ! कुछ - कुछ उपनिषद सी ही हैं आपकी रचनाएँ ... मुझे बहुत अच्छी लगती हैं ... शुभकामनायें आपको

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  8. फूलों- सी ही मेरी कविताएं मुझसे झर- झर झरती हैं

    कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

    किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

    विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

    भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

    निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है
    बहुत सुन्दर सटीक मनभावनी सी....
    वाह!!!!

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  9. भावपूर्ण सुंदर रचना...

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  10. बहुत सुंदर स्वातं सुखाय होती है कविता।
    सच कवि किसी को जवाब देने को बाध्य नहीं होता।
    बहुत सुंदर काव्य है सिर्फ भावों का श्रृंगार ही नहीं मनकी बात भी ।
    अभिनव सृजन।

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  11. आह यह भेद अगर पता चल पाता तो ईश्वर के रहस्य पर प्रश्न आ जाता।

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