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Friday, December 26, 2014

प्रेम-प्रवण .........

आर्य प्रिय वो
जो तीक्ष्ण पीड़ा से
तृण तोड़कर
त्राण दे सके
और सुरभित कस्तूरी को
तेरे गोपित नाभि से
नीलिन होकर ले सके

निज क्लेश न्यून कर
और अपनी प्रीति
प्रदान उसे कर
जो तेरी सुधि में
नित पुष्पित हो
नित सुष्मित हो
निज सुध-बुध खोकर

उसे अवश्य
तुम सुख पहुँचाना
जो सदा रहे
अपने सुख से
सहर्ष अंजाना
और तेरे दुःख को
निज श्वास भूलकर
केवल अपना जाना

प्रेम दृढ
श्रद्धा अक्षय
हो अटूट अनुराग
तुमपर जिसका
निश्चय ही
भ्रमकारी देह से परे
प्राण एक होगा उसका

हो हरक्षण
उसकी भंगिमा मनोहर
सहज ही नैन
उठ जाते हों
मृदुल भाव से
हर्षित ये चित्त
सदा ही चैन पाते हों

हो नित्य नवीन जो
प्रेम-प्रवीण जो
विधाता की हो
पहली कृति
जिसे कोई देखे
तो कभी न लगे
कोई भी अतिश्योक्ति

अनायास ही
अहैतुक ही
जब हृदयंगम
होता है ये लक्षण
तब अहोभाग्य से
रहता सदैव ह्रदय
केवल और केवल
प्रेम-प्रवण .

Thursday, December 18, 2014

दो मिनट के मौन में ......

दो मिनट के मौन में
सब कह दो
वो सब कुछ कह दो
जो कहना चाहते हो
कुछ भी मत सोचो
कोई भी चुप न रहो
या कोई भी इन्तजार मत करो
किसी भी अगले
दो मिनट के मौन का.......
क्योंकि हो सकता है
कुछ-कुछ कहने के बीच
वो सब कुछ कहने का
कोई अर्थ ही न रह जाए
दो मिनट के मौन में
और सबके जिस्म में
चिपके हुए खूनी राख से
खौलती हुई सुर्ख उम्मीदें
कहीं सोचने न लगे
कि आग की तलाश व्यर्थ है........

दो मिनट के मौन में
चुप नहीं रहना चाहिए
किसी भी चीत्कार को
इसतरह मची हाहाकार को
और व्यर्थ नहीं जाना चाहिए
किसी भी एक धिक्कार को......
हरतरफ से
इतनी आवाजें आनी चाहिए
इतनी आहें उठनी चाहिए
और इंसानियत को भी
फूट-फूट कर
इतना रोना चाहिए कि
इसतरह से न भरने वाला ज़ख्म
और कभी ख़त्म न होने वाला दर्द
कोई भी देता है वो
पूरी तरह से ख़ाक हो जाए
दो मिनट के मौन में .

Thursday, December 4, 2014

मेरे ग्रीष्म !

                     आज चट्टानों में मैं घिरी हूँ
                     धार ही से कट कर फिरी हूँ
                     गति से यूँ हुआ है अलगाव
                    बेचैन है बस व्यथा का भाव

                     एक अलग धार में फूटकर
                   अपनी सहज गति से टूटकर
                    चलती नहीं , रुक जाती नहीं
                   या किनारे से लग जाती नहीं

                 कोई शाप अथवा नियति नहीं ये
                 क्षणभंगुर सी परिस्थिति नहीं ये
                 झूला रही है बस मायावी पलना
                   सूझता कहीं भी कोई हल ना

                   पतवारों से निकलती है अंधड़
                  फड़फड़ाता है यूँ मौन का बीहड़
                  उफन कर सीमाएं टूटती नहीं है
                क्षुद्र अपनी बनावट मिटती नहीं है

                किनारे छिन गए पर तूफ़ान न मिला
              किरण तक पहुँचने का वरदान न मिला
                 पीड़ा जाती नहीं , दुःख जाता नहीं
                ज्वर टूटता नहीं , ज्वार आता नहीं

                    सागर तक का कोई राह नहीं है
                   पाषाण-कारा का भी थाह नहीं है
                   निज जल-बेड़ियों के भीतर कहीं
                   कोई आधार या मूलाधार नहीं है

                   स्वयं से ही हारा मन माँग रहा है
                   धीरज विकलता को लाँघ रहा है
                    मधु सागर ! मुझे पुकार तो दो
                    इस शिथिल गति को धार तो दो

                   मेरे ग्रीष्म ! लौट कर तो आओ
                  मेघों में मुझे पुनः उड़ा ले जाओ
                   मिट-मिटकर मैं मेघा बन घूमूँ
                   हिम-श्रृंग को जी भर कर चूमूँ

                   इस मिटने को वरदान कहूँ मैं
                  मधु-सागर तक अविराम बहूँ मैं
                   उसकी बाहों में मैं यूँ भर जाऊँ
                   कि भर-भरकर मैं वही हो जाऊँ .

Thursday, July 24, 2014

अमृता में तन्मय ...

                   हाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
                   सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
                   ऐसी झलक दिखी है उसकी
                  कि सदियाँ जी ली क्षण में मैं

                  क्षण में ही जीकर सदियों को
                 जीवन के अर्थ को जान लिया
                 अक्षय-प्रेम का आभास पाकर
                गर्त के शीर्ष को पहचान लिया

                 मैं चौंकी , मेरी कुंठा जो टूटी
               अमृता से ही सब कुछ खो गया
               चित्त- चंदन को घिस- घिसकर
               एक सौरभ भर गया नया- नया

                धन्य हुई , आभार फिर आभार
               भाव में भासित उस चिन्मय को
                डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
               बचा न पाई , मैं इस तन्मय को

                 अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
                उच्चार में भी वो न समाता है
                पर इतना प्रीतिकर है वह कि
                 बिन उच्चारे रहा न जाता है

                 सांस में भीतर,सांस में बाहर
                 वही तो आता है औ' जाता है
                 पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
                 अमृता में तन्मय हो जाता है .

Wednesday, July 9, 2014

कोई दिलनवाज़ ही बचाये ....

दिल को तो बड़ा ही सुकून मिलता है
जब अपना इल्जाम गैर के सर चढ़ता है

दर्द के नासूर का भी इतना ही है इशारा
गर चोट न हो तो कहीं उनका नहीं गुजारा

हरतरफ शातिराना शिकायतों की सरगोशियाँ है
मुआफ़िक़त ज़ख़्मों की जुनूनी दस्तबोसियाँ है

मवाद मजे से मशग़ूल है महज बहने में
इल्लती दस्तूर को क़तरा-क़तरा से कहने में

लबे-खामोश से कुछ पूछने से क्या फ़ायदा ?
नामुनासिब मजबूरियों का भी अपना है क़ायदा

बिरानी साँसों में भी अब न वैसी खनखनी है
जैसे ये दुनिया बस ग़म के वास्ते ही बनी है

शौक़ से ख़ुशी दर्दो-आह में गुजरी जाती है
सारी उम्र यूँ ही गुनाह में गुजरी जाती है

दर्द का काफिला है और दिल की नादानियां है
भरोसा है , ठोकरें है और उनकी कहानियां है

जहां पर हर आगाज ही इसकदर तक बुरा हो
तो कोई दिलनवाज़ ही बचाये अंजाम जो बुरा हो .

Thursday, June 26, 2014

मुझे तो अब .....

                  अभी तो और भी है सोपान
                जिसपर अपना पाँव रखना है
                 रोको न मुझे ! मुझे तो अब
                 चाँद-सूरज को भी चखना है

                 बेठौर बादलों को फुसलाकर
                कांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
                 ख़रमस्ती में खर-भर करके
                बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ

                 चकचौंहाँ तारों पर यूँ जाकर
                 तनिक देर तक सुस्ता आऊँ
                 रोशनी को नर्म रूई बनाकर
                मैं आहिस्ता-आहिस्ता उड़ाऊँ

                समय को यूँ सटका दिखाकर
                 कहूँ, उठक-बैठक करते रहो
                 हवाओं को डाँट कर कहूँ कि
                 कान पकड़ कर बस बैठे रहो

                मौसम से सब शैतानी छीनके
                 पल में नींद- चैन को उड़ा दूँ
               सावन को भी बुद्धू-सुद्धू बनाकर
                  झट से सारा पानी मैं चुरा लूँ

                  सब दिशाओं को समेट कर
                  एक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
                क्षितिज को भी खींच-खींचकर
                  मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ

                 शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
                  कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
                 और ये गीत सुरीला बन कर
                  सबके ओंठों में ही घुल जाए  

Monday, June 16, 2014

फ़रियाद ....

क्यों तूफ़ान की तरह आते हो
और तिनका की तरह
मुझे उड़ा ले जाते हो ?
मैं कुछ भी समझ पाती
उसके पहले ही
मेरे वजूद को
अपना बवंडर बना
मुझपर ही
कहर बरपा जाते हो..
ये जो खुद्दार जिस्म है
उसके जर्रा-जर्रा में
दबी रहती है
जो इक जिद
उसे बेकदर मसह कर
बेकाबू सा जूनून न बनाओ...
तेरी तल्खी से तड़पता है जो
उसे अपने सीने से लगाकर
अपना सुकून न बनाओ...
न मैं संगेराह हूँ तेरी
न ही संगतराशी का
अब कोई शौक है मुझे
न ही किसी सैयाद से
किसी सिला की है आरजू
न ही किसी सज्जाद से ही
किसी वफ़ा की है जुस्तजू....
जिस्म है तो
उसकी फितरत ही है
सुलगते रहने की...
साँसे हैं तो
उसकी किस्मत है
अपनी बेवफाई में ही
उलझते रहने की...
जान है तो
उसकी भी बेताबी है
कहीं निसार हो जाए
और रूह है तो
उसकी भी बेबसी है
फना होने के लिए
कहीं बोसोकनार हो जाए...
पर जब तिनका का तक़दीर
कोई तूफ़ान लिखने लगता है
तो तिनका भी उड़कर
तूफ़ान की आँखों में ही गिरता है
फिर किसने कहाँ किस वजह से
ज़रा सी भी करवट ले ली
किसे रहता है उसकी याद
और बहते हुए
बेकसूर अश्कों की
सुनी नहीं जाती है
कभी कोई फ़रियाद .

Tuesday, June 10, 2014

उस 'शायद' में......

हो सकता है
मेरे फैले फलक पर
रंगबिरंगे बादलों का
छोटा-छोटा टुकड़ा सा
मेरा लिखा हुआ
सिर्फ काले अक्षर हों
या बस काली स्याही हो
और उसके चारों तरफ
बढ़ता हुआ
हो अनंत खाई.....
उसे खोज-खोज कर
या जोड़-जोड़ कर
पूरा पढ़ने के बाद भी
जटिल बुनावट वाली
ढरकते कगार ही मिलें
जिसपर सीधी रेखा में
चढ़ने के बाद भी
शब्दों से बाहर होने का
कोई उपाय न हो
और मुझे कांट-छांट करके
कहीं से भी दोहराते हुए
बस यूँ ही
समझने का उपक्रम भर
किया जाता रहे
साथ ही
मुझसे सहमत हुए बिना ही
असहमत शब्दों को छीन कर
भर दिया जाए
कोई और अर्थ.....
पर मैं
इस आशा में
लिखती हूँ / लिखती रहूँगी
कि 'शायद' कोई-न-कोई
कभी-न-कभी
शब्दों के खिलाफ होकर ही
उसे शास्त्र बना दे....
हो न हो
उस 'शायद' में
कहीं 'मैं' ही तो नहीं ?

Wednesday, June 4, 2014

भूलना ही सही है ....

प्रगति या पतन के
तय मानको के बीच
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन सूखी पत्तियों को
जिन्हें कभी हवा
अपनी
जरा सी फूंक से
उड़ा देती है
इधर से उधर
या खेल-खेल में
लहका कर
लगा देती है
जमीन पर
राख का ढेर....
भूलना ही सही है
उन सूखी पत्तियों की
खड़खड़ाहट को
जो एकांत के अकेलेपन में
घोलती रहती है
और भी उदासीनता
ओर-छोर तक
फैलता-गहराता धुंधलापन
नहीं चाल पाता है
अपनी चलनी से
जीवन के अंतर्विरोधों में
भागते-दौड़ते हुए
मूल्याँकन की
विसंगतियों को..
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन हरे पत्तों को भी
जो श्रमशोषण , संघर्ष
या अन्याय के
विघटनकारी
ताकतों के बीच भी
जीवन में मौजूद
उस अंध व्यवस्थाओं के
केंद्र से हरसंभव
समझौता करने में
नाकाम रहते हैं....
भूलना ही सही है
एक-दूसरे को
दोस्त-दुश्मन बनाते हुए
धक्का-मुक्की करते हुए
उन हरे पत्तों को
जो काफी हद तक
टहनियों को
मजबूती से
पकड़ने के बाद भी
डाहवश
झाड़ दिए जाते हैं
सर्वहारा की तरह
और समय ठूंठ सा
अपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .

Tuesday, May 27, 2014

क्यों से क्यों तक.......

क्यों ?
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....

क्यों ?
जब मैं व्यर्थ ही बँट-बँट कर
भरे संसार में अकेली पड़ जाती हूँ
और संकोच छोड़कर तुमसे मिलते ही
क्षण में ही उत्सुक हो सबसे जुड़ जाती हूँ....

क्यों ?
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....

क्यों ?
इन सजल भार से बुझी-बुझी आँखों में
रह-रहकर सौ-सौ दीये जल जाते हैं
और तेरे तप्त भावों से पिघलना सीख कर
मेरे मित्ति-पाश टूट-टूटकर गल जाते हैं.....

क्यों ?
तेरे मशाल की लौ ऐसे लहका कर भी
केवल अपनी शीतलता में ही भिंगोती है
और इस अंतर की विकल घुमड़न को
अपने अमृत-कण की मालाओं में पिरोती है.....

क्यों ?
अपने ऊपर लम्बी बहसों की श्रृंखला चलाकर
सही अर्थों में सबको संस्कारित करना चाहती हो
और खुद परिधि से बाहर हो घृत-अगन में
प्राणपण से सबको परिष्कृत करना चाहती हो.....

क्यों ?
तुम नितान्त निष्प्रयोज्य सी होकर भी
सबकी सोयी संवेदनाओं को जगा देती हो
और अपनी जादूभरी चमत्कारी छुअन से
हिलकोर कर सबको ऐसे उमगा देती हो.....

फिर क्यों न तेरा मान हो ?
फिर क्यों न तुझपर अभिमान हो ?
फिर क्यों न तेरा गुणगान हो ?

मेरे हर क्यों से निकलती कविता !
मेरे हर क्यों से बहती कविता !
मेरे हर क्यों से सिमटती कविता !

सच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
इसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .

Wednesday, May 21, 2014

फूल बिछाती शैया पर ....

                   एक मैं हूँ कि फूल बिछाती शैया पर
                    तब भी नींद नहीं आती है रात भर
                     जैसे -जैसे सब फूल कुम्हलाते हैं
                     तन-मन में काँटों-सा गड़ जाते हैं

                   भावों में बस खुसुर-फुसुर सी होती है
                    प्राण की कोकिल सिहर कर रोती है
                     इस नत नयन का है नीर भी वही
                  पल-पल की पीड़क पीड़ा भी अनकही

                    तिल-तिल कर मेरा उपल गलता है
                   मंदिम-मंदिम जब ये दीप जलता है
                   लौ मचल कर और भी अकुलाती है
                   विरव वेदना पर ही लवण लगाती है

                जिसकी छरछराहट से फीकी ज्वाला है
               उस जलन को असहन तक मैंने पाला है
               पाला तो निज कोमल कल्पनाओं को भी
               और पाला सुन्दर सुखकर सपनों को भी

                  पर कल्पनाओं को मैं आस दूँ कहाँ से ?
                 और सपनों को मैं मधुमास दूँ कहाँ से ?
                  हर रात मेरा ये रनिवास ही उजड़ता है
                 पर पूजित पाषाण को अंतर न पड़ता है

                ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
                 मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
                क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
                 या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?

                  ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
                  उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
                तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
                 और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .

Friday, May 16, 2014

क्यों न हम ...

इस ग्रीष्म की
आकुल उमस में
ऊँचें पर्वतों के
शिखरों से लेकर
समतल मैदानों में
साथ ही सूखी-बंजर
जमीनों के ऊपर भी
एक बादल
ऐसे घिर आया है
कि आँखों में
भर आया है
सारा आकाश....
जैसे
आशंका और विस्मय से
खुद को छुड़ाकर
ख़ुशी और उमंग
ह्रदय को थपथपा कर
कुछ और ही
कहना चाह रही हो...
जैसे कोई
शीतल-सा जल-कण
छोटा-छोटा मोती बन कर
बरस रहा हो..
सच में
बिन मौसम ही
एक आस-फूल खिला है
तो क्यों न ?
सबको मिलकर
उसे ऐसे खिलाना है कि
वह बस
आकाश-फूल न बनकर
हमेशा के लिए
उजास-फूल बन जाए..
इसके लिए
थोड़ा आगे बढ़कर
क्यों न हम ?
कम-से-कम
अपने-अपने कीचड़ में
अपना-अपना
एक कमल-फूल खिलाएँ
और विकसित होकर
खुद महके
औरों को भी महकाएँ .

Saturday, May 10, 2014

पापी से प्रेम ...

 सुनती आई हूँ कि शास्त्र-पाठ की महिमा अनंत है | जिसे यंत्रवत दोहरा-दोहरा कर कंठस्थ किया जा सकता है भले ही वह हृदयस्थ हो या न हो | अपना जो स्मृति-विज्ञान है न , उसके सहारे उत्तम तोता होकर ज्ञानी भी बना जा सकता है | मुझपर भी मेहनत करने वालों ने जी-जान लगाकर बहुत मेहनत किया और बची-खुची मेहनत मैं खुद भी किये जा रही हूँ | पर अबतक मैं न ही तोता बन पायी हूँ और न ज्ञानी ही | फिर भी कोमल-सी रसरी का जो विज्ञान है उसके अनुसार इस सिल पर थोड़ा-बहुत निशान तो पड़ा ही है | जो अक्सर मेरे लिए उलझन बन कर खड़ा हो जाता है | तब बाजार का विज्ञान अपने कई-कई बातों से बताता है कि निशान अच्छे हैं , पल में निशान गायब या कोई निशान नहीं पड़ेगा वगैरह-वगैरह | शायद सबका मतलब एक ही होता हैं कि हर निशान के साथ हमेशा अवसरवादी रुख ही अपनाना चाहिए |
                                     सबों की तरह मुझे भी नैतिक-शास्त्र से दूर का ढोल सुहावना जैसा ही लगाव रहा हैं | जो अपनी पीड़ित मानवता को सुख , शांति , अहिंसा , प्रेम और आपसी भाई-चारे का इतना पाठ पढ़ाता हैं कि उसकी प्रत्यक्ष प्रताड़ना से शायद ही कोई बचा हो | लगता हैं इस धरती पर सबके अवतरण के साथ ही पहली घुट्टी में नैतिकता ही पिलाई जाती है | मुझे भी अपने परिजनों से पूछने की हिम्मत तो नहीं है पर मन-ही-मन अब इसपर सोचने में कोई डर भी तो नहीं है | पर उस डर को याद करके आज भी मैं सहम जाती हूँ जब पहली पाठशाला में उस नैतिकता को डाँट-मार के साथ जीवन में उतारने को कहा जाता था |  फिर उसी पाठ के लिए प्रतिदिन दूसरी पाठशाला में भी यंत्रणा-यातना से गुजरना पड़ता था | पर उस भोले-भाले मन को बस इतना ही पता होता था कि उस विषय में किसी भी तरह पास कर जाना है | जब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ तो बरबस हँसी फूट पड़ती थी | सोचती थी कि ये कौन सा पाठ है जो आदमी बनाने के बजाय सोना बना रहा है | ये पाठ पढ़-पढ़ कर कौन कितना सोना बन पाता है वही जाने पर मैं तो अभी तक अपने ऊपर सोने का पानी चढ़ा हुआ ही पाती हूँ | वैसे भी जीवन के बाजार में सबकुछ चल जाता है इसलिए मैं भी अपना सर उठा कर ही चलती जा रही हूँ |
                                              हाँ! तो नैतिक शास्त्रों के सूत्रों को लगातार रटते-रटते बेचारे मष्तिष्क को भी मुझपर दया आ गई | उसने अपनी उदारता दिखा कर कुछ सूत्रों को थोड़ा-बहुत जगह दे दिया और कुछ सूत्रों को सीधे अपने कचरा-कक्ष में फेंक दिया | अब कभी उन सूत्रों की जरुरत पड़ती है तो अपने कचरा-कक्ष में जाने से बेहतर फिर से शास्त्र को पलटना ही समझती हूँ | उन सूत्रों में से कुछ सूत्र तो ऐसे हैं कि मैं उनपर बुरी तरह से अटक जाती हूँ | जैसे पाप से घृणा करो पापी से नहीं | तो कोई समझाए कि पाप से दूर रहने वाला पाप करता हुआ पापी से पवित्र प्रेम कैसे करे ? जानती हूँ कि प्रेम करने का सूत्र भी अति गुप्त होता है पर उसे इतना भी गुप्त नहीं रखा जाना चाहिए कि साधारण जनमानस उससे वंचित रह जाए | अपने महाजनों को कम-से-कम सरल-सुबोध भाषा में सबको समझा कर जाना चाहिए था कि पाप के बीच रहते हुए भी खुद से या दूसरों से एकदम से खुल्लम-खुल्ला प्रेम करने के लिए नैतिकता के रबड़ को कैसे खींचा जाना चाहिए |
                                मुझे लगता है कि उसी नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ पुण्यात्माओं की उच्च भावनाएं उन पापात्माओं के लिए स्वयं प्रकट होती रहती है | उसे बस सुनने और समझने की जरुरत है | जैसे कि हे! पाप पर पाप करने वाले पापी , आप बेफिक्र होकर अपना पाप करते रहे और हमें बस अपना प्रेमी समझें | प्रेमी समझ कर हमपर बस इतनी कृपा करे कि अपने पाप को हमारा पाप या बाप न बनाये | साथ ही खुल्ल्म-खुल्ला ये साफ़ न करे कि हमें आपके पाप से पवित्र प्रेम है | न ही आप अपने पाप में हमें अपना साझीदार बनाये न ही भागीदार बनाये और न ही हमें पहरेदार बनाये | जिसप्रकार प्रेम का पवित्र सूत्र गुप्त है उसीप्रकार आप गुप्त रूप से अपने पाप-कार्य में पवित्रता से लगे रहे और हमसे बिलकुल निश्चिंत रहे | आप जितना अधिक पाप करते हैं हम आपको उससे अधिक प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम तो सदा से अँधा है | आपके पाप के विरोध में अहिंसात्मक रूप से हम यही कर सकते हैं कि कभी-कभी प्रभात-फेरी लगा आएंगे | या कभी मौन-व्रत धारण कर लेंगे | या कभी-कभी सब मिलकर गंगा के किनारे मोमबत्तियां जला आएंगे | यदि आप कहेंगे तो शांतिपूर्वक सामूहिक उपवास भी रख लेंगे | यदि इससे भी आपके कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी तो खुश-ख़ुशी सामूहिक स्वर्गवास भी कर लेंगे | पर आखिरी सांस तक ये कहना नहीं भूलेंगे कि हे! पापीधिराज , हमारे सरताज , हमारे मुमताज शाहजहाँ की तरह हम आपको प्रेम करते हैं और उस जहाँ में भी करते रहेंगे | बस आप रहम करके हमारे मजार पर अपने पाप का कोई ताजमहल नहीं बनाएंगे | नहीं तो जलन के मारे काला होकर वो ताजमहल कहीं उस पवित्रतम प्रेम से खुद ही इस्तीफा न दे दे |  

Tuesday, May 6, 2014

आग चाहिए ......

                  और ये चिलम सुलगता रहे
                  इसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खोना है
                   तो भी एक जाग चाहिए

                   ये न जन्नत में मिलती है
                    न ही जलूम जहन्नुम में
                   न ही मदहोश महफ़िल के
                तराशा हुआ किसी तरन्नुम में

                  गर तरस कोई खाये भी तो
                   कर्ज़ बतौर दे नहीं सकता
                 कमबख़्त चीज ही ऐसी है कि
                 कसम दे कोई ले नहीं सकता

                  ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
               जो तबियत लगाने से मिटती है
                 जब तबियत कहीं लग जाए
                  तो ये खुद-ब-खुद जलती है

                   फिर तो ये जली हुई आग
                    किसी को क्या बुझाएगी
                    खुद धुआँ को जज्ब कर
                    बस रोशनी ही सुझाएगी

                  ये चिलम बस सुलगता रहे
                  उसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खो जाए
                    तो भी एक जाग चाहिए.

Tuesday, April 29, 2014

ये चिट्ठा कवि कह रहा है ...


                                                   कहा जाए तो समाज और उसके मूल्य बोध के स्वीकार के बिना सृजन-कर्म को ''स्वान्त: सुखाय'' ही माना गया है  | परन्तु एक सामाजिक प्राणी होने के कारण सामाजिक मूल्य  बोध को अस्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता है | उसे उदारता से स्वीकार कर ''सुरसरि समसब कर हित होई'' को सार्थक करना ही सृजन-कर्म है | साथ ही ये मानना पड़ता है कि साहित्य का सारा मानसिक व्यापार सामाजिक परिवेश के अनुरूप चलता रहता है | जिसकी अभिव्यक्ति का सशक्त और सार्थक माध्यम भाषा है | 
                                                    इन हाथों ने कलम थामकर स्वयं को तब अभिव्यक्त करना शुरू किया जब न भाषा की उतनी समझ थी न ही सामाजिक परिवेश की | स्वान्त: सुखाय से भी कोई विशेष परिचय नहीं था तो किसी और के हित की बात ही नहीं उठती है |  उन दिनों बस भावों का बहाव होता था और शब्दों की पहेली | उन्हें आपस में जोड़ना एक खेल ही था चाहे अर्थ जो भी निकले | जिसे पढ़कर और पढ़ाकर  बस हँसना ही होता था | ऐसे ही शब्द निकलते रहे और कागज़ पर मिटते रहे | इन हाथों ने कभी उनसे न कोई शिकायत की न ही शब्दों ने कोई ऐतराज जताया | दोनों का एक खूबसूरत साथ निभता रहा | पर आज भी उन जोड़े हुए शब्दों को देखकर हँसी आ जाती है | शायद शब्द भी हँसते होंगे कि उन्हें कैसे जोड़ा गया | 
                                         यदि सूफियाना अंदाज में कहा जाए तो शब्दों से कोई संगीत फूटना चाहता था और है | जो अबतक फूटा नहीं है पर एक जिद है जो अपने तबला पर हथौड़े की चोट दिए जा रही है निकलती आवाज की परवाह किये बगैर | यदि बौद्धिक अंदाज में कहा जाए तो अब ऐसी-वैसी धुन का इंतजाम करने की थोड़ी-बहुत समझ तो आ गयी है पर वो साज है कि बैठता ही नहीं है | फिर भी हथौड़े की चोट जारी रहेगी और कानों को रूई डालकर ही सही उस आवाज को सुनना पड़ेगा | 
                                      जो भी हो इस कलम की यायावरी यात्रा ने ईमानदारी से समझाया कि शब्द और अर्थ के भाषिक सहभाव को ही साहित्य कहा जाता है | जो सर्जक और पाठक का एक अनूठा संगम है | इसमें भाव और संवेदनाएं ऐसे मिल जाते हैं जैसे दो पात्र का पानी एक पात्र में मिल जाए | जहाँ सर्जक का जन्म व्यक्तिगत रूप से रस की अनुभूति से होता है तो पाठक का जन्म सामाजिक रूप से उसी रस में अपनी अनुभूति को एकमेक करने से होता है | तब कहीं साहित्य अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है | 
                          खुद को मैं देखती हूँ तो कुछ समय के लिए ही मैं सर्जक होती हूँ और बाकी समय के लिए बस एक सजग पाठक | जो अपनी आत्मक्षुधा को शांत करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की कोशिश में रहता है | जब ये पाठक अपनी अनुभूति को कहीं एकमेक होते पाता है तो कुछ समय के लिए वहीँ ठहर कर उस सर्जक को ह्रदय से आभार व्यक्त करता है | भले ही सर्जक तक पहुंचाया गया भाव खुद को शब्दों के साथ प्रमाणित करे या न करे | एक सजग पाठक होने के नाते स्वयं में गर्व का अनुभव होता है और प्रभावित होकर कुछ अच्छा लिखने की इच्छा भी होती है | पर अच्छा लिखा हुआ पढ़कर ये पाठक ऐसे अभिभूत होता है कि इच्छा सरक कर खुद ही समर्पण कर देती है | 
                                          इतनी भूमिकाओं के साथ ये सर्जक-पाठक ये कहना चाहता है कि आज पहली बार ये आलेख क्यों लिख रहा है जबकि वह एक चिट्ठा कवि है | इसे लिखते हुए उसे हैरानी तो हो ही रही है और परेशानी भी हो रही है | सच्चाई तो ये है कि किन्हीं भावुक क्षणों में कुछ पाठकों ने एक आलेख लिखने का वचन ले लिया था जिसे लम्बे समय से बस टाला जा रहा था | कारण शब्दों और भावो की पहेली को तथाकथित कविता के रूप में उलझाता-सुलझाता ये चिट्ठा कवि स्वयं से संतुष्ट था और है | पर कोई भी सर्जक अपना पहला पाठक होता है और दोनों के आंतरिक सम्बन्ध को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता है | साथ ही सर्जक का धर्म है कि वह पाठकों का सम्मान करे | इसलिए ये चिट्ठा कवि अपनी ही खींची हुई सीमा से आज बाहर निकल रहा है |
                                           अंत में सम्मानीय पाठकों से हार्दिक अनुरोध है कि इस चिट्ठा कवि को किसी भी कसौटी पर कसा नहीं जाना चाहिए और न ही उसपर अबतक जो ठप्पा लगाया गया है उसे ही छीना जाना चाहिए | नहीं तो इस चिट्ठा कवि को ये कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि वह विशुद्ध मूषक है और शेर होने के भ्रम से बिल्कुल अनजान है | साथ ही वह अपने बिल में सुरक्षित भी है |
                                        
                                                                     

Wednesday, April 23, 2014

तो जवाब आएगा....

गैर जरुरी लोगों का
यह फलता-फूलता धंधा है
जिनके लिए
नैतिकता या आदर्श
लंगड़ा , लूला और अंधा है
जो जात-जात चिल्लाते हैं
और खुलेआम घात लगाते हैं
पर उनके जात का ही
कोई ठिकाना नहीं
फिर तो उनकी बात का
क्या होगा ठिकाना सही ?
जिंदगी में जिसे कुछ और
करने लायक नहीं लगता
वही जनता की छाती पर चढ़
उसका नायक है बनता....
तब तो
तमाशा पर तमाशा चलता रहता है
और जनता के लिए
नमक का बताशा बनता रहता है....
उनसे जरा पूछो कि--
आप लेफ्ट जायेंगे या राइट ?
तो जवाब आएगा--
हम तो भाई स्ट्रेट चलेंगे
और जो सामने होगा उसे गले लगा
किसी को स्ट्रेस न देंगे
फिर उनसे पूछो कि--
आप किस पार्टी में रहेंगे ?
तो जवाब आएगा--
अरे! किसी भी पार्टी में रहेंगे
पर पॉलटीशियन ही कहलायेंगे
और जब हमने ही तो आपके लिए
ये सारा रुल-रेगुलेशन बनाया है
इसलिए आप बस
हमें कोस-कोस कर ही सही
हमपर ही बटन दबाएंगे .

Friday, April 18, 2014

खरी दोटूक .....

                जिनको दिन में भी नहीं सूझता
                  ऐसे- ऐसे भी महान उलूक हैं
                  मुक्तकंठ से जो करते रहते
                   हरदम बात खरी दोटूक हैं

                  इतराकर तो वे ऐसे चलते
               जैसे मानसरोवर के हों राजहंस
                   उनके रुकने से ही मानो
                रुक जाता हो ज्ञान का वंश

               मुक्तावलियों सी ही उनकी बातें
               कौवों-बगुलों को मुक्त कराती है
                चीलों-गिद्धों को भी दीक्षित कर
                 राजहंस की उपाधि दिलाती है

                  उनके राह-प्रदर्शन में कभी
              कोई रास्ता भटक नहीं पाता है
                 नालों- डबरों से भी बह कर
               उनके सागर में मिल जाता है

                उनके ही जयजयकार में सब
               राजी-ख़ुशी शामिल हो जाते हैं
               झाड़-फूंक, दवा-दारु या ताबीज
                जो भी मिल जाए उसे पाते हैं .

Sunday, April 13, 2014

तुम बस.......

तुमसे एक नहीं , दो नहीं , तीन नहीं
हजार-हजार झूठ मैं बोलूँगी
और तीते-कड़वे बोलों के बीच
तेरे कानों में अपनी
तानों की मिठास मैं घोलूँगी
तुम बस मेरे ठोड़ी को मत उठाना
मैं तुमसे इन अँखियों को न मिलाऊँगी
गलती से भी मिला बैठी तो
रँगेहाथ मैं ही पकड़ी जाऊँगी....

मैं थोड़ा लटक-झटक कर
इधर-उधर चटक-मटक कर
अपनी उलाहनाओं-पुलाहनाओं की
एक ऐसी लड़ी लगाउँगी
तुम बस मेरे गालों को न सहलाना
कहीं छनककर मैं फुलझड़ी न बन जाऊँगी....

जब मैं तुमसे उलट-पुलट कर
थोड़ा-सा पलट-पलट कर
इरछी-तिरछी अँखियों से
बतिया पर बतिया बनाऊँगी
तुम बस पीछे से गर्दन को न चूमना
नहीं तो सिहर कर मैं वहीँ सिकुड़ जाऊँगी...

फिर जब अपनी आना-कानी से
कभी खुद ही मैं लटपटाऊँगी
और उसे सरियाने के लिए
इन चूड़ियों को जोर-जोर से बजाउँगी
तुम बस हाथों को न थामना
नहीं तो तेरी बाँहों में मैं ही छुप जाऊँगी...

फिर कभी जब कमर पर
बार-बार हाथ टिकाकर
अपनी अटपट बोलों से
अपनी करधनी का थोड़ा ताल मिलाऊँगी
तो तुम बस मेरे करधनी मत बन जाना
नहीं तो न चाहते हुए भी
तुमसे मैं खुद को छुड़ाऊँगी...

फिर मैं तुमसे छिटक-छिटक कर
पाँव को तनिक पटक-पटक कर
अपनी पायलिया से भी
हाँ में पूरा हाँ मिलवाऊँगी
तो तुम बस इन पाँव को मत छूना
नहीं तो उल्टे तेरे पाँव पर ही
कहीं मैं न गिर जाऊँगी.....

जब मैं चुप होने का नाम न लूँगी
तेरे कानों को तनिक आराम न दूँगी
तब मेरे ध्यान को भटका कर
अपनी मुस्की को भी छुपाकर
दबे पाँव से एक झटके में ही
तुम बस अपनी गोद में न उठा लेना
सच है! मैं चकरा कर इन होंठों को
तेरे होंठों पर ऐसे धर जाऊँगी
फिर तो तुम्ही बोलो कि कैसे ?
मैं तुमसे कोई भी झूठ बोल पाऊँगी .

Sunday, April 6, 2014

सौभाग्यशाली हूँ मैं...

मैंने पत्थरों को भी
ऐसे छुआ है जैसे
वह मेरा ही परमात्मा हो
उसके नीचे कोई दबा झरना
जैसे मेरी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
मेरी चेतना का तल
सहज ही बदल जाता है
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
उस पल का पता चल जाता है...

इस निर्मल बोध को
मुझमें प्रकटाने वाले
बिना धुंआ के ही
अपनी शिखा को जलाने वाले
और मेरे आधार पर ही
ऐसी ऊंचाइयां दिलाने वाले
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभागयशाली हूँ मैं
कि अब मेरी
तैरकर ऊपर आती आकांक्षा
अचेतन में डूबती जा रही है
सपनों की सजावट भी
मुझसे छूटती जा रही है
और कल्पना की निखार
जीवन-दृष्टि बन रही है...

सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
चेतना के तल को
ऐसे बदलना ही था
और संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था...

अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
चेतना का ऐसा तरल तल दे
अपने को छिपा लेते हो
और संकेतो में ही
सब कुछ कहलवा लेते हो
या तुम अपना पता
ऐसे ही बता देते हो....

अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं...  

Thursday, March 27, 2014

अबकी बार....

अब तो
कदम-कदम पर ही कुरुक्षेत्र है
और पल-पल के खरवबें हिस्से को भी
कैप्चर पर कैप्चर करता हुआ
संजयों का टेलीस्कोपी नेत्र है
हर कैरेक्टर से लेकर हर कास्ट में
वही दुर्लभ-सा मिलाप है
और हर निगेटिव का हर पॉजिटिव के लिए
अट्रैक्शन वाला भी वही विलाप है
ओवर एक्साइटेड वेद व्यास जी
या तो पायरेसी के शिकार हुए हैं
या फिर उनके दिमाग पर ही
विदेशी वायरस का हमला हुआ है
ऊपर से इतना चकर-मकर सुन कर
चूहे की पूंछ पकड़ कर अपने गणेश को
चकर-घिरनी सा खोज रहे हैं
पर लगता है कि गणेश जी
कोड ऑफ कंडक्ट के डर से
आई-फोन या लैप-टॉप से ही
चढ़ाये लड्डू को एक्सेप्ट कर रहे हैं
दूसरी तरफ ये भी लगता है कि
सोशल साइट्स के व्यूह में
प्यारे कृष्णा का फंसना तो तय है
और आगे जो शकुनी-दुर्योधन डिक्लेयर होंगे
वे तो युधिष्ठिर-अर्जुन को
पब्लिकली लाइक करके अपना
अगला विजन क्लीयर करेंगे
और ये भी लगता है कि
अबकी बार द्रौपदी भी
कंडीशनर के ओल्ड कंडीशन से
हाइड होकर कम्प्रोमाइज कर लिया है
और अकेले ही गंगोत्री में जाकर
बालों में शैम्पू करने का प्लान बना चुकी है .


Saturday, March 22, 2014

क्षणिकाएँ ...

इस जगत सरोवर में
जिसमें जैसी तरंग का
उत्थान होता है
ठीक उसी के अनुसार
उसका पतन भी होता है

        ***

भौतिक सुख
केवल भौतिक दुःख का
रूपान्तर मात्र है
जो जितना सुखी दिखता है
वही दुःख का भी
उतना बड़ा पात्र है

        ***

मानव देह में
शुभ-अशुभ का एक
अदृश्य सा संतुलन है
इसलिए तो जड़ जगत में
बिल्कुल ही व्यर्थ
किसी भी सुख का अन्वेषण है

        ***

शुभ-अशुभ से
मुक्त होने की चेष्टा से ही
प्रत्येक कृत्य करुणाजन्य होता है
क्रमश: ह्रदय भी
अनुगामी होकर
पवित्र और धन्य होता है

        ***

किसी से
कुछ कहने के लिए
कुछ अपना भी होना चाहिए
दूसरों की बातें तो
खोया हुआ स्वप्न है
उस स्वप्न को
अवश्य ही खोना चाहिए .


Saturday, March 15, 2014

तुम्हें कौन सा रंग लगाना है ?

फागुनी फुहारों का
जब ऐसा अगियाना है
तो यौवन के खुमारों को
भला क्यों न उकसाना है ?

हूँ.... अच्छा बहाना है
तुम्हें तो बस
बहकना है और बहकाना है
या इस रंग के बहाने
तुम्हें कौन सा रंग लगाना है ?

ठीक है , तुम्हारे जी में
जो-जो आये वही करो
पर मेरे प्राण पर जो
कालिमा चढ़ी है
उसे पोंछ कर बस मुझमें भरो !

रंग तो खूब बरसता रहता है
पर ये रोम-रोम है कि
बस तेरे लिए ही
हर पल तरसता रहता है ...

कुछ पल के लिए ही
मैं आंसुओं के संग होकर भी
कुछ अलग होना चाहती हूँ
और तेरी मदाई मदिरा को पी
मदगल में मदाना चाहती हूँ...

जिससे मेरी ये आँख हो जाए
तेरे लिए ही इतनी नशीली
और मेरी हर हाँक भी
हो जाए उतनी ही रसीली
ताकि तुम मेरे
लाज की गुलालों में
लाल हो ऐसे घुल-घुल जाओ
कि मैं कितना भी छुड़ाऊँ तो भी
अपने अंग से अंग लगाकर
तुम मुझमें ही जैसे ढुल-मुल जाओ...

तुम्हारा बहाना भी
उसी रंग में भींग कर
कहीं लजा न जाए
और जो सोचा भी न था कभी
कहीं उसे भी पा न जाए...

पर मेरे बहाने ऐसे
हुड़दंग न मचाओ गली-गली में
और अपना
अगन-रंग भी न लगाओ
ढुलकी-ढुलकी कली-कली में ....

तुम मेरे हो बस मेरे ही रहो
इधर-उधर ज्यादा न बहके
जाओ! अपने रंगों से कहो....

अरे रे रे रे .. सम्भालो न मुझे
मैं भी तो
अब बहक रही हूँ तुमसे
तब तो बहका-बहका सा
उमंग नहीं नहीं , तरंग नहीं नहीं
मतंग नहीं नहीं , मलंग नहीं नहीं
भंग नहीं नहीं , हुड़दंग नहीं नहीं
कुछ सूझ नहीं रहा है मुझको
टेढ़ा-मेढ़ा , उल्टा-सीधा न जाने
क्या-क्या कह रही हूँ मैं तुझसे....

तुम्हारे बहाना के बहाने ही
मेरा रोम-रोम भी
आज है भंग खाया
बस इतना समझ लो तुम
कि कैसा मुझपर
तुमने अपना रंग चढ़ाया .

Tuesday, March 11, 2014

चुप रहना ही बेहतर है .....

जब सब भोंपू लगाकर
गली-गली घूमकर
सबके दिमाग को फिराकर
बार-बार कहते हैं कि
गंदगी को जड़ से साफ़ करने वाले
वे ही सबसे अच्छे मेहतर हैं
तो ऐसी हालत में
मेरा चुप रहना ही बेहतर है....

गंदगी , गंदगी , गंदगी
उठते-बैठते , चलते-फिरते
सोते-जागते , खाते-पीते
बस गंदगी को ही
वे ऐसे बताते हैं कि जैसे
उनकी जिंदगी जिंदगी न होकर
कोई जादुई झाड़ू बन गयी हो
और मूंठ को पकड़े-पकड़े
दूसरों की किसी भी सफाई पर
मानो उनकी मुट्ठी ही तन गयी हो....

मेहतर से महावत बनना
उन्हें बहुत खूब आता है
तब तो अपने हाथी को
जहाँ-तहाँ भगा-भगा कर
वे साबित करते हैं कि
उन्हें भौं-भौं की आवाज
क्यों इतना भाता है....

वे मानते हैं कि
भौंकने वाले भी भौंक-भौंक कर
अपना दुम ज़रूर हिलाएंगे
जो नहीं हिलाएंगे वे भी भला
उनसे बचकर कहाँ जायेंगे ?

उन्हें ये भी लगता है कि
भौंकने वाले उनके भुलावे में आकर
अब काटना भूल गये हैं
पर वे खुद भूल जाते हैं कि
वे काटने के साथ-साथ
अब चाटना भी भूल गये हैं.....

उफ़!  जितनी गंदगी नहीं है
उससे कहीं ज्यादा तो
अब किसिम-किसिम के मेहतर हैं
जो बड़ी सफाई से
खुद ही गंदगी फैला-फैला कर
दावा करते हैं कि
वे किसी से किसी मामले में
कहीं से भी न कमतर हैं
तो ऐसी हालत में
मेरा चुप रहना ही बेहतर है .

Monday, February 24, 2014

उसकी मुक्ति तो...

वह प्रकृति के
ज्यादा करीब है
थोड़ी प्राकृतिक है...
शास्त्रों/सिद्धांतों से
थोड़ी दूर है
कम शिक्षित है...
बुद्धि की भाषा
पढ़ना नहीं चाहती
कम बौद्धिक है...
तर्को/झंझटों से
भागती रहती है
कम सभ्य है...
इसलिए उसे
रोना होता है
तो रो लेती है
हॅंसना होता है
तो हँस लेती है
थोड़ी जंगली है...
बोलना होता है
तो बोल देती है
चुप रहना होता है
तो चुप रहती है
थोड़ी मूर्ख है...
सामाजिकता के हर
कठोर नियम को
बार-बार तोड़कर
वह मुक्त होती है
व अप्राकृतिक सभ्यता को
बार-बार अंगूठा दिखा
सबको मुक्त करती है
क्योंकि वह मुक्त है ...
जो बँधे हैं
बाँधते रहे उसे
अपने किसी भी
सही-गलत उपाय से
पर उसकी मुक्ति तो...

Wednesday, February 19, 2014

तो क्या हुआ ?

अगर तेरे बहते पवन से
थोड़ा आगे उड़ लेती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे जलते अगन से
थोड़ा ज्यादा दहक जाती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे उठते लहर से
थोड़ा ऊपर उछल लेती हूँ तो क्या हुआ ?

तुम उन्मादिनी कहो
या उद्रिकत मर्दिनी कहो मुझको
मदमादिनी कहो
या तारुण्य की तरंगिनी कहो मुझको
कम्पित विडम्बिनी कहो
या विच्युत पंकिनी कहो मुझको
निर्विशंक लुंठिनी कहो
या विधि-वंचिनी कहो मुझको
निर्हेतु नहीं है तेरा कुछ भी कहना
और निर्वाक होकर
तेरे उत्तापित स्वरों को मुझे है सहना
पर तेरे अदेह की विभा में मुझे
बस औचक झलक बन है रहना
क्योंकि आज मिट्टी में गड़ी हुई
मैं तुम्हारी ही मूल हूँ
ओ! मेरे आकाश-फूल
तुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....

सोचती हूँ
जो-जो मैं तुमसे कह नहीं पाती
या कहना ही नहीं चाहती
वह मेरा रहकर रहस्य हो जाता है
अपने इस संकल्प या संयम से
मेरी निगूढ़ निधि बढ़कर
निरतिशय विकल्प बन जाता है
पर तुम तो अपने
उन अरक्षित क्षणों में ही
मुझसे वो-वो कहला लेते हो
मैं गहराई से अपनी मिट्टी को
पकड़ी रहूँ तो भी मुझे
इधर-उधर टहला देते हो
और मुझमें क्षण-सा झलक कर
मुझे ही ऐसे बहला देते हो.......

तब तो बड़ा कठिन है
तेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना.....

जब तेरी एक किरण को पकड़ कर
मैं तुझ तक कैसे भी आ सकती हूँ
उन्मादिनी , मदमादिनी , मर्दिनी होकर भी
तुझे मैं कैसे भी गा सकती हूँ
तो उलझाये रहो अपने बादलों से
या भागते रहों चाहे दूर-दूर
तुझे पाना है तो पाना है
और मुझे पता है
मैं पंकिनी , वंचिनी या लुंठिनी होकर भी
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ .


Saturday, February 8, 2014

अँधेरे का एक टुकड़ा...

जो कभी
अपनी विस्मरणशीलता को
स्मृत करके
और अपने दीया-स्वरुप से
क्षीण ज्योति ले करके
चलना चाहती हूँ तो
नींद से उठकर मेरी ही सक्रियता
मुझे ही कभी तेज चलाकर
या बंद आँखों में ही भगाकर
अपने स्वभावगत सहजता को
गहरे नशे में खोती है....
तब मुझे अहसास होता है कि
वो दीया या ज्योति
वास्तविक नहीं बल्कि आभासी है
और सुनी-सुनाई या रटी-रटाई
आप्त-ज्ञान की बातें
एकदम से विपर्यासी(झूठा ज्ञान) है ....
इसलिए मैं
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
फिर तो दिन क्या रात क्या
सपनों के साम्राज्य में भी हर समय
जागकर देखना पड़ता है
कि मेरे किये से कुछ नहीं होता है
और तो और मैं
बस करवट पर करवट ही बदलती हूँ....
जब उतेजना की हालत में
चारों ओर की स्थितियों को
चुपचाप सहने में
बिलकुल समर्थ नहीं होती हूँ
या प्रशंसा से अपमान तक के
हर छोर पर विक्षिप्त होकर
उग्र प्रतिक्रया करने लगती हूँ तो
साकार होकर मेरा अन्धेरा
थोड़ा सा मेरा प्रकाश बन जाता है
और सम्भव होकर
मुझसे उघड़ता हुआ मेरा अन्धेरा
मुझे ही ऐसे उघाड़ देता है कि
तत्क्षण ही खुद को ढ़कने का
मेरा छोटा सा ही प्रयास ही
अपना छोटा सा ही प्रकाश का
बड़ा आड़ देता है.....
इसलिए तो
वो अन्धेरा भी मेरा है
और वो उजाला भी मेरा ही है....
तब तो
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
और सहज रूप से उसे ही
पलट कर अपना प्रकाश भी
बना लेती हूँ .

Saturday, January 25, 2014

मज़बूरी की सौगंध ....

हे सुलोचन ! एवं हे सुलोचना !
ये अच्छी बात नहीं कि
आप सब मिलकर ही करने लगे
अब मेरी आलोचना पर आलोचना.....

माना कि मेरे साथ-साथ
कईयों के किस्मत से छींका तोड़कर
कितने ही गंगुएं अवाख़िर राजा भोज हुए हैं
पर हमारे सर मौरी चढ़े भी तो
फकत ही चाँद रोज हुए हैं....

इतनी जल्दी चाँदनी के गाढ़े स्वाद को
हम नवेले जीह्वा पर कैसे चढ़ा ले ?
इससे पहले सूत काटने के बहाने ही सही
आप सबों को अपना चरखा तो पढ़ा दे....

आप सब हमारे गवाह हैं कि
ये चाँद किसतरह से हमारे हाथ आया है
फिर से कहूँ तो अपनी बहती गंगा में
कुछ भी धुल और घुल सकता है
उसी हिट फार्मूला को हमने भी आजमाया है....

अब कई छोटे-बड़े सुर को भी मिलाने पर भी
हमारा एक सुर नहीं है पर तराना वही है
और फाइव जी वाला स्पीड तो है मगर
स्पेक्ट्रम का फ़साना भी वही है
लेकिन अब हम जो कहते या करते हैं
कम-से-कम आप तो कहिये कि सही है....

मत भूलिए कि आप ने ही बड़े लाड़ से
हमें अपना लाट-साहब बनाया है
सच्चे हैं सो फिर से कह देते हैं कि
उस झाड़ पर चढ़ने के लायक न थे
मगर आपने ही उकसा कर हमें चढ़ाया है....

अब प्लीज!
मत खोलिए अपने दिमाग का कोई भी फाटक
पॉपकॉर्न कुरकुराते हुए ड्रिंक्स गुड़गड़ाते हुए
बस देखते रहिये अपने दिल्ली का नाटक पर नाटक
यदि आगे भी आप सब मेहरबान होंगे तो
पूरी दुनिया मेरी ही मजलिस को सजाएगी
और मेरे साथ धरना-प्रदर्शन कर-करके
मजनूयित का वही तराना भी गायेगी.....

सच तो यही है कि हमारा ये फ़िल्म भी
अपन वो आदम युग के राजनीति का ही
फोर-डी , फाइव-डी वाला ही संस्करण है
पर मंगल से आगे बढ़कर हमारा विकास
आपके ही सामने का प्रत्यक्ष उदाहरण है.....

अब कैसे कहें हम कि सच में
गद्दी की राजनीति ही बहुत गन्दी है
और मुझपर गाहे-बगाहे भोंपू लेकर
अपना भड़ास निकालने पर सख्त पाबंदी है....

पर हमने बासी कुर्कुटों को साफ़ करने का
गुलकंद-इलायची वाला बड़ा बीड़ा उठाया है
और आपके कुर्ते पर पारदर्शी बनकर
सफ़ेद-सफ़ेद सा ही छींटा पराया है....

आगे भी सच्चे दिल से हम हमेशा
आपकी मज़बूरी की सौगंध लेते रहेंगे
बस आप प्लीज!
हमपर अपना डियो-परफ्यूम छिड़कते रहिये
तो अपने मिश्रित धातुओं से भी जबर्दस्ती करके
आपको वो खालिस सोना वाला ही
मिलावटी न ..न.. सुंधावटी सुगंध देते रहेंगे .

Monday, January 20, 2014

जा सखी , अब तू अपने घर जा ! .....

                  लागे है मुझ को बड़ा आन सखी !
                उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
               इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
                उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !

                    तू उसकी ऐसी हँसी न उड़ा
                 जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                  लुटे-लुटे से पुलक है निशदिन
                  ठगे-ठगे से प्राण है पल-छिन
                 पर मेरे काँटों को तू न यूँ गिन
               औ' न ही अश्रु-पुष्पों को भी बिन

                 मेरी व्यथा से तू न तिलमिला
               जा सखी , अब तू अपने घर जा !

               कितने ही यत्न से छुपाये रखती हूँ
              इस जलते ह्रदय को बुझाये रखती हूँ
              भींगी पलकों को भी सुखाये रखती हूँ
             देख , अधरों को भी मुस्काये रखती हूँ

                  मेरे माथे पर तू हाथ न फिरा
               जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                ऐसे मत दे उसको तू ताने सखी !
              मेरे होने का है वही तो माने सखी !
             बड़ी मीठी प्रीति है तू न जाने सखी !
             सच कहती हूँ मैं क्यों न माने सखी !

                 ये राग ही तो है कठिन बड़ा
             जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                 इक मदिर अदह आग -सा वह
               अछूता सुमन का पराग -सा वह
             मधुमास में महकता फाग -सा वह
           औ' मन के मधुगान का राग -सा वह

                 कुछ कह कर तू मुझे न बहका
                जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                 उसके आगे तो सब रंग हैं फीके
                तृप्त होती मैं उसी का जल पीके
                हाय! मर जाती मैं उसी में जी के
                पर चुप ही रहती अधरों को सी के

                  न बहलूं मैं , मुझे यूँ न बहला
                जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                 मधु से मुझे नहलाता वही सखी !
                 मुझपर रस बरसाता वही सखी !
              इस देह-बंध को खुलकाता वही सखी !          
              औ' प्रेम-गंध से लिपटाता वही सखी !

                   जलन के मारे तू यूँ न बुदबुदा
                 जा सखी , अब तू अपने घर जा !

                  लागे है मुझ को बड़ा आन सखी !
                उसको मत कहना तू पाषाण सखी !
               इस मंदिर का है वही भगवान सखी !
                 उससे ही तो है मेरा ये प्राण सखी !

                  विरह की जली मैं और न जला
                 जा सखी , अब तू अपने घर जा ! 

Wednesday, January 15, 2014

ओ! मेरी मैडम अभिव्यक्ति जी ....

हर साल की तरह ही
कड़ाके की ठण्ड है
कोहरे का कहर है
ठण्डी हवाओं के आगे
गरम से गरम कपड़ा भी
खुद में सिमट कर बेअसर है.....
वो अपना सूरज भी
चल देता है कहीं
अपनी महबूबा के साथ
उन बदमाश बादलों के पीछे
समेट कर किरणों का हाथ.....
ये ओस है या
कुमकुमा बर्फ का टुकड़ा है
चरणपादुका जी तो अभी
दिखे नहीं है पर
ऐसा तमतमाया हुआ
हाय! ठण्ड जी का मुखड़ा है....

तब तो मुआ तापमान भी
लुढक-लुढ़क कर सबको
विनम्रता का पाठ पढ़ा रहा है
और कमजोर ह्रदय के
ठमकते रफ्तार पर
इमरजेंसी ब्रेक लगा रहा है......
जो उसके छिया-छी के हर दांव पर
दहला मारना जानते हैं
उन्हें थोड़ा घुड़की देकर
घरों में ही दुबका रहा है
पर खुले आसमान की गोद में
रहने वालों में से कइयों को
बिन बताये ही
परलोक भी पहुंचा रहा है
और वो जो अपना
सरकारी अलाव है न उसपर तो
मौसम विभाग बड़े मिलीभगत से
लिट्टी-चोखा पका रहा है......

मेरी मैडम अभिव्यक्ति जी
कोट-जैकेट , मोजा-मफलर
सर से पाँव तक लपेट कर
रजाई और कम्बल के अंदर भी
दांत पर दांत किटकिटा रही है
और अपनी मेड सी
मुझसे चाय पर चाय
कॉफी पर कॉफी बनवा रही है....
नरम-गरम खाना की तो
बात ही मत पूछिए
कैसे झपट्टा मार आंत तक
सड़ाक से सरका रही है
और मैं
एक गरम रचना के लिए
गिड़गिड़ा रही हूँ तो
कोरा आश्वासन दे देकर
बस मुझे तरसा रही है.....

और तो और
बड़े मजे से अपने चारों तरफ
हीटर , ब्लोअर लगातार चलवा कर
मुझ आम आदमी का
बिजली बिल बढ़वा रही है
यदि मैं
अति आम आदमी बनकर
अलाव जलाऊं तो मुझे ही
पर्यावरण का भाषण पिला रही है....
जानती है वह कि उसके
पापा जी का क्या जाता है
और इस ठिठुरन भरी ठण्ड में तो
उसका लॉटरी ही लग जाता है.....

ओ! मेरी मैडम अभिव्यक्ति जी
इस रिकार्डतोडू ठण्ड का
वास्ता देकर कहती हूँ कि
मुझ गरीबन पर
आप अब थोड़ा रहम कीजिये
और जिससे आपको गरम सुख मिले
वही-वही करम बस खुद से कीजिये
और ये जो आपका
सब हुकुम बजा रही हूँ वह तो
मेरी नजाकत की नफासत है
वरना मुझे तो
इस ठण्ड और आप
दोनों से ही
विशेष सावधानी बरतने की
बहुत विशेष जरुरत है .

Wednesday, January 8, 2014

मैं बंदिनी .....

मैं बंदिनी
जंजीरों में जकड़े
बोझिल जीवन को लेकर
पथ के अंगारों को
अपने आलिंगन में लेकर
इक परिशेषी प्यास
परखते नयन में लेकर
और बिखरे सूनेपन को
मोही मन में लेकर
सुनसान दिशाओं में
शिथिल चरणों से
चले जा रही हूँ
चले जा रही हूँ......

मैं अंगारिणी
अपने ही अस्ताचल की ओर
इस तरह से बढ़ते हुए
अपने ही ह्रदय की
अबूझ कठोरता से
लड़े जा रही हूँ
लड़े जा रही हूँ
कहीं इस कठोरता में
मेरा ही भाव सूख न जाए
व थम-थम कर बहता सा
कहीं बहाव सूख न जाए
और अतरल होकर कहीं
सारा पिघलाव सूख न जाए......

मैं बंधकी
अपने रपटीले आकर्षण की
फिसला-फिसला कर भी
कोई तो अब बांधे
ज्वाला सा मेरे इस यौवन को
और यौवन के मूर्च्छित स्खलन को
और स्खलन के हर अवसादन को
और अवसादन के हर क्रंदन को....

सच! अहोभागी हैं वे
जिनके आंसुओं में भी
प्रमुद फूल खिलते हैं
और गंधी का सागर
उनके काँटों से भी
लिपट कर गले मिलते हैं
पर इस मरू के मग में
कोई प्राण-घन कहाँ घिरते हैं
और अज्ञात पीड़ा के होंठों पर
बरबस अतिप्रश्न ही फिरते हैं....

मैं कंटकिनी
काँटों सी ही
उलझते अतिउत्तरों में
क्यों ऐसे अटक रही हूँ
और अटक-अटक कर भी
भटके जा रही हूँ
भटके जा रही हूँ
अपने प्रसुप्ति के
हर परदेशी क्षण में
और उन अंगारों के ही
सुदृढ़ आलिंगन में
अपनी मूकता के सारे
मुरमुराते से विचेतन में
और उन अनुस्मृति के
उसी रपटीले आकर्षण में......

मैं क्षुब्धिनी
अपने क्षोभ से
अब बस यही कहती हूँ कि वह
मेरे आकर्षण को ही विकर्षित कर दे
और विकर्षण से मुझे दिग्दर्शित कर दे
और दिग्दर्शन से मुझे आत्म-संवेदित कर दे
और आत्म-संवेदन से बस मुझे परिशोधित कर दे

मैं बंदिनी .....

Saturday, January 4, 2014

जहरमोहरा ....

शून्य को खाते-पीते हुए
शून्य को ही मरते-जीते हुए
हम जैसे शून्यवादी लोग
अंकों के गणित पर
या गणित के अंकों पर
आदतन आशिक-मिज़ाजी से
किसकदर ऐतबार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
कौन पूछता है हमसे कि
हम क्यों अंकों के
आगे लगने के बजाय
हमेशा पीछे ही लगते है
या फिर हमें बेहद खास से
उन तीन और छह को
अपने हिसाब से आगे-पीछे
या ऊपर-नीचे करते रहना
औरों की तरह क्यों नहीं आता है ?
जबकि तीन और छह अंकों की
फिदाई समझौतापरस्ती में
नफा-नुकसान के हर
समर्थन व शर्तों के
इम्तिहान में किये गये
हिमायती हिमाकतों का हम भी
अपनी तरह से मुशार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
हमसे कौन पूछता है कि
आंकड़ों की राजनीति से
हमारा दिल क्यों भर गया है ?
या हमें चुनने के लिए
सिर्फ दो ही क्यों नहीं मिलता है ?
जाहिर है तीन और छह के
रणनीतिक और प्रशासनिक कौशल की
कड़ी-से-कड़ी जांच करना
हमारे वश की तो बात नहीं
और तो उनके बीच के
प्यार-तकरार को किसी कटघरे में
खड़ा कराने वाले हम कौन ?
या उनके हासिल किये गये
विश्वास मत के लचीलापन पर
अन्य अंकों की पाक-साफ़ गवाही भी
लेने-देने वाले हम कौन ?
हम जैसे शून्यवादी लोग
आज की ईमानदारी के
हावी लटकों-झटकों पर
अपनी शुतुरदिली का मुलम्मा चढ़ा
अपनी फीसदी नुमा फीलपांव को
हिलाने का जुर्रत या जहमत करके भी
घटते हुए और भी शून्य हो जाते हैं
फिर तो अंकों के जहरदार जाल में
और उन्हीं की जल्लादी चाल में
उलझ-उलझ कर
जहरमोहरा होना ही है
और अपने शून्य में ही
किसी का भी नारा लगा कर
किसी के लिए भी ताली बजाकर
या किसी का भी टोपी पहन कर
ज़िंदादिली से जीतने का
या फिर जीते रहने का
जश्न भी मनाना ही है .