आज चट्टानों में मैं घिरी हूँ
धार ही से कट कर फिरी हूँ
गति से यूँ हुआ है अलगाव
बेचैन है बस व्यथा का भाव
एक अलग धार में फूटकर
अपनी सहज गति से टूटकर
चलती नहीं , रुक जाती नहीं
या किनारे से लग जाती नहीं
कोई शाप अथवा नियति नहीं ये
क्षणभंगुर सी परिस्थिति नहीं ये
झूला रही है बस मायावी पलना
सूझता कहीं भी कोई हल ना
पतवारों से निकलती है अंधड़
फड़फड़ाता है यूँ मौन का बीहड़
उफन कर सीमाएं टूटती नहीं है
क्षुद्र अपनी बनावट मिटती नहीं है
किनारे छिन गए पर तूफ़ान न मिला
किरण तक पहुँचने का वरदान न मिला
पीड़ा जाती नहीं , दुःख जाता नहीं
ज्वर टूटता नहीं , ज्वार आता नहीं
सागर तक का कोई राह नहीं है
पाषाण-कारा का भी थाह नहीं है
निज जल-बेड़ियों के भीतर कहीं
कोई आधार या मूलाधार नहीं है
स्वयं से ही हारा मन माँग रहा है
धीरज विकलता को लाँघ रहा है
मधु सागर ! मुझे पुकार तो दो
इस शिथिल गति को धार तो दो
मेरे ग्रीष्म ! लौट कर तो आओ
मेघों में मुझे पुनः उड़ा ले जाओ
मिट-मिटकर मैं मेघा बन घूमूँ
हिम-श्रृंग को जी भर कर चूमूँ
इस मिटने को वरदान कहूँ मैं
मधु-सागर तक अविराम बहूँ मैं
उसकी बाहों में मैं यूँ भर जाऊँ
कि भर-भरकर मैं वही हो जाऊँ .
धार ही से कट कर फिरी हूँ
गति से यूँ हुआ है अलगाव
बेचैन है बस व्यथा का भाव
एक अलग धार में फूटकर
अपनी सहज गति से टूटकर
चलती नहीं , रुक जाती नहीं
या किनारे से लग जाती नहीं
कोई शाप अथवा नियति नहीं ये
क्षणभंगुर सी परिस्थिति नहीं ये
झूला रही है बस मायावी पलना
सूझता कहीं भी कोई हल ना
पतवारों से निकलती है अंधड़
फड़फड़ाता है यूँ मौन का बीहड़
उफन कर सीमाएं टूटती नहीं है
क्षुद्र अपनी बनावट मिटती नहीं है
किनारे छिन गए पर तूफ़ान न मिला
किरण तक पहुँचने का वरदान न मिला
पीड़ा जाती नहीं , दुःख जाता नहीं
ज्वर टूटता नहीं , ज्वार आता नहीं
सागर तक का कोई राह नहीं है
पाषाण-कारा का भी थाह नहीं है
निज जल-बेड़ियों के भीतर कहीं
कोई आधार या मूलाधार नहीं है
स्वयं से ही हारा मन माँग रहा है
धीरज विकलता को लाँघ रहा है
मधु सागर ! मुझे पुकार तो दो
इस शिथिल गति को धार तो दो
मेरे ग्रीष्म ! लौट कर तो आओ
मेघों में मुझे पुनः उड़ा ले जाओ
मिट-मिटकर मैं मेघा बन घूमूँ
हिम-श्रृंग को जी भर कर चूमूँ
इस मिटने को वरदान कहूँ मैं
मधु-सागर तक अविराम बहूँ मैं
उसकी बाहों में मैं यूँ भर जाऊँ
कि भर-भरकर मैं वही हो जाऊँ .
भावनाओं के कारा में बन्दिनी की मेघ पुकार जहां पहुंचनी चाहिए वहां अवश्य पहुंचेगी, महीनों की प्यास बुझ गई है।
ReplyDeleteकुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।
ReplyDeleteस्वयं से ही हारा मन माँग रहा है
ReplyDeleteधीरज विकलता को लाँघ रहा है
मधु सागर ! मुझे पुकार तो दो
इस शिथिल गति को धार तो दो
बहुत सुन्दर प्रार्थना
अद्भुत रचना , वाह
ReplyDeleteस्वयं को इस बंधन से मुक्त करना होगा ... फिर सागर तक मिलना होगा ...
ReplyDeleteमेघों का सहारा, तेज़ धरा ... तैयार हैं धार देने को ...
बारिश की बूँदों के समंदर में मिलने की दास्तां भी
ReplyDeleteअमृता के 'अमृता' से मिल जाने जैसी ही लगती है
एक लंबे अंतराल के बाद पुनः स्वागत अमृता जी !!अप्रतिम .... बहुत सुंदर रचना !!हृदय से निकला सार्थक आह्वान !!
ReplyDeleteआशा है अब निरंतर काव्य प्रवाह बना रहेगा !!
प्यास बुझी समुंद्र के पानी से
ReplyDeleteआपकी रचना आपकी कहानी से
कविता सर्द शिखर से उतर कर आई है.
ReplyDeleteआपका स्वास्थ्य कैसा है.
सुंदर प्रवाहमयी रचना...बधाई....
ReplyDeleteमेरे ग्रीष्म ! लौट कर तो आओ
ReplyDeleteमेघों में मुझे पुनः उड़ा ले जाओ
मिट-मिटकर मैं मेघा बन घूमूँ
हिम-श्रृंग को जी भर कर चूमूँ
....लाज़वाब...अंतस के अहसासों की बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ने का अवसर मिला...
वाकई में गजब की रचना है । हम सभी पाठक जन की शुभकामनाएँ स्वीकार करें ।
ReplyDeleteसुँदर रचना
ReplyDeleteसमय के हाथ ही फूल है, समय के हाथ ही शूल है और समय ही पहुँचाता कूल है. हम तो ज्यों हवा के सहारे किसी नाव में बैठे हैं.
ReplyDeleteवाह , बहुत खूब।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना!
ReplyDeleteअब एक रचना पर रुक न जाइए ... लिखने का सिलसिला बनाए रखिये ...
ReplyDeleteहमेशा की तरह अनुपम रचना … अब ना रुकिए अविराम बहने दीजिये शब्द सरिता … शुभकामनाएं
ReplyDeleteमिट-मिटकर मैं मेघा बन घूमूँ
ReplyDeleteहिम-श्रृंग को जी भर कर चूमूँ
.............. बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
शीत के कोहरे में चमका ग्रीष्म का सूर्य...........
ReplyDeleteVery profound and intense-an excellent poem! Der aayad durust aayad. Overwhelming.
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