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Thursday, April 14, 2022

तुम्हें अमिरस पिलाना है .........

जब-जब तेरे, सारे दुख कल्पित हो जाए

जाने-अनजाने में ही, मन निर्मित हो जाए

उसमें स्थायी सुख भी, सम्मिलित हो जाए

तब-तब मुझे, तेरे विवश प्राणों तक आना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो

जो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो

जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो

तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


यदि मार्ग के ही मोह में, कभी भटक जाओ

या अपने ही सूनेपन में, यूँ ही अटक जाओ

या दूषित दृष्टियों में, जो कभी खटक जाओ

आकर तेरे अंतर्तम में, मधुमास खिलाना है

तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है


देखो न हर बूँद में ही, ऐसे अमृत टपक रहा है

देखो तो जो चातक है, उसे कैसे लपक रहा है

कहाँ खोकर बस तू, क्यों पलकें झपक रहा है

आओ! अंजुरी भर के, तुम्हें अमिरस पिलाना है

हाँ! तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है ।

Wednesday, January 20, 2021

अवशेष .....

मानसिक विलासिता के 

सोने के जंजीरों से 

सिर से पांव तक बंधे हुए 

अमरत्व को ओढ़कर

मरे हुए इतिहास के पन्नों पर 

अपने नाम के अवशेष से

चिपकने की बेचैनी

खुद को मुख्य धारा में

लाने की छटपटाहट

चाय की चुस्कियां

आराम कुर्सियां

वैचारिक उल्टियां

प्रायोजित संगोष्ठियां

मुक्ति की बातें

विद्रुप ठहाके

इन सबमें

एक दबी हुई हँसी 

मेरी भी है .

Wednesday, October 18, 2017

मन रे !

मन रे , भीतर कोई दीवाली पैदा कर !
अँधेरा तो केवल
उजाला न होने का नाम है
उससे मत लड़
बस उजाला पैदा कर !

कभी दीया मत बुझा
हर क्षण जगमगा कर
आँखों को सुझा !
जो दिखता है
कम - से - कम उतना तो देख
और मत पढ़ अँधेरे का लेख !

कर हर क्षण उमंग घना
बसंत सा - ही उत्सव मना !
मत रुक - क्योंकि तू तो
गति के लिए ही है बना !

मत देख - आगत या विगत
तू ही है संपूर्ण जगत !
जगत यानी जो गत है
जो जा रहा है
जो भागा जा रहा है
उत्सव मना , उत्सव मना
अर्थ अनूठा बतलाये जा रहा है !

हर क्षण बसंत हो !
हर क्षण दीवाली हो !
मंद - मंद ही मगर
हर क्षण , हर क्षण
तेरी लौ में लाली हो !

अँधेरा तो केवल
उजाला न होने का नाम है
मन रे , भीतर कोई दीवाली पैदा कर !


*** दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

Monday, February 24, 2014

उसकी मुक्ति तो...

वह प्रकृति के
ज्यादा करीब है
थोड़ी प्राकृतिक है...
शास्त्रों/सिद्धांतों से
थोड़ी दूर है
कम शिक्षित है...
बुद्धि की भाषा
पढ़ना नहीं चाहती
कम बौद्धिक है...
तर्को/झंझटों से
भागती रहती है
कम सभ्य है...
इसलिए उसे
रोना होता है
तो रो लेती है
हॅंसना होता है
तो हँस लेती है
थोड़ी जंगली है...
बोलना होता है
तो बोल देती है
चुप रहना होता है
तो चुप रहती है
थोड़ी मूर्ख है...
सामाजिकता के हर
कठोर नियम को
बार-बार तोड़कर
वह मुक्त होती है
व अप्राकृतिक सभ्यता को
बार-बार अंगूठा दिखा
सबको मुक्त करती है
क्योंकि वह मुक्त है ...
जो बँधे हैं
बाँधते रहे उसे
अपने किसी भी
सही-गलत उपाय से
पर उसकी मुक्ति तो...

Wednesday, February 19, 2014

तो क्या हुआ ?

अगर तेरे बहते पवन से
थोड़ा आगे उड़ लेती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे जलते अगन से
थोड़ा ज्यादा दहक जाती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे उठते लहर से
थोड़ा ऊपर उछल लेती हूँ तो क्या हुआ ?

तुम उन्मादिनी कहो
या उद्रिकत मर्दिनी कहो मुझको
मदमादिनी कहो
या तारुण्य की तरंगिनी कहो मुझको
कम्पित विडम्बिनी कहो
या विच्युत पंकिनी कहो मुझको
निर्विशंक लुंठिनी कहो
या विधि-वंचिनी कहो मुझको
निर्हेतु नहीं है तेरा कुछ भी कहना
और निर्वाक होकर
तेरे उत्तापित स्वरों को मुझे है सहना
पर तेरे अदेह की विभा में मुझे
बस औचक झलक बन है रहना
क्योंकि आज मिट्टी में गड़ी हुई
मैं तुम्हारी ही मूल हूँ
ओ! मेरे आकाश-फूल
तुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....

सोचती हूँ
जो-जो मैं तुमसे कह नहीं पाती
या कहना ही नहीं चाहती
वह मेरा रहकर रहस्य हो जाता है
अपने इस संकल्प या संयम से
मेरी निगूढ़ निधि बढ़कर
निरतिशय विकल्प बन जाता है
पर तुम तो अपने
उन अरक्षित क्षणों में ही
मुझसे वो-वो कहला लेते हो
मैं गहराई से अपनी मिट्टी को
पकड़ी रहूँ तो भी मुझे
इधर-उधर टहला देते हो
और मुझमें क्षण-सा झलक कर
मुझे ही ऐसे बहला देते हो.......

तब तो बड़ा कठिन है
तेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना.....

जब तेरी एक किरण को पकड़ कर
मैं तुझ तक कैसे भी आ सकती हूँ
उन्मादिनी , मदमादिनी , मर्दिनी होकर भी
तुझे मैं कैसे भी गा सकती हूँ
तो उलझाये रहो अपने बादलों से
या भागते रहों चाहे दूर-दूर
तुझे पाना है तो पाना है
और मुझे पता है
मैं पंकिनी , वंचिनी या लुंठिनी होकर भी
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ .


Sunday, October 10, 2010

चाहत

कुछ अलग की चाहत होती तो
बस जाती किसी दूसरे ग्रह पर
जहाँ जीवन असंभव है और
रह लेती हवा पानी भोजन के बिना 
साबित करती अपनी अलग पहचान 
रोज सुबह घंटे भर के लिए 
यहाँ टहलने को आती
दो चार चक्कर लगाकर फिर 
लौट जाती अपने ठिकाने 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
बन जाती दंतकथाओं की पात्र
आवश्यकता और इक्षानुसार 
रूप बदल सबों को करती अचंभित 
या फिर जादू की छड़ी लिए 
करती रहती चमत्कार पर चमत्कार 
क्रीडा कौतुक हेतु अपने श्राप से 
लोगों को बना देती तोता मेमना 
मेरी उँगलियों पर ही नाचते सभी 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
किसी क्लिष्ट या अस्पष्ट लिपि को 
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती
और बन जाती मैं रहस्यमयी 
पर मैं तो वही हूँ जो सबमें है 
वही  कहती हूँ जो सबका ह्रदय कहता है 
हाँ  मैं एक पुकार हूँ चेतना की 
अस्तित्व की आवाज हूँ मैं 
मैं गूंजती रहूंगी सभ्यता के बाद भी .

Thursday, April 8, 2010

कोई फर्क नहीं पड़ता

कोई फर्क नहीं पड़ता
कि हम कहाँ हैं
हो सकता है हम
आँकड़े इक्कठा करने वाले
तथाकथित मापदंड पर
ठोक-पीट कर
निष्कर्ष जारी करने वाले
बुद्धिजीवियों के
सरसरी नज़रों से होकर
गुजर सकते हैं
हो सकता है कुछ क्षण के लिए
उनकी संवेदना  तीक्ष्ण जो जाये
ये भी हो सकता है कि
उससे संबंधित कुछ नए विचार
कौंध उठे उनके दिमाग में
समाधान या उसके समतुल्य
ये भी हो सकता है कि
बहुतों का कलम उठ जाये
पक्ष -विपक्ष में लिखने को
अपनी कीमती राय
कर्ण की भांति दान देते हुए
पर जिसका चक्रव्यूह
उसमें फंसा अभिमन्यु वो ही
महारथियों से घिरा
अपना अस्तित्व बचाने को
पल प्रतिपल संघर्षरत
आखिरी साँस टूटते हुए उसे
दिख जाता है
विजय कलयुग का .