अगर तेरे बहते पवन से
थोड़ा आगे उड़ लेती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे जलते अगन से
थोड़ा ज्यादा दहक जाती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे उठते लहर से
थोड़ा ऊपर उछल लेती हूँ तो क्या हुआ ?
तुम उन्मादिनी कहो
या उद्रिकत मर्दिनी कहो मुझको
मदमादिनी कहो
या तारुण्य की तरंगिनी कहो मुझको
कम्पित विडम्बिनी कहो
या विच्युत पंकिनी कहो मुझको
निर्विशंक लुंठिनी कहो
या विधि-वंचिनी कहो मुझको
निर्हेतु नहीं है तेरा कुछ भी कहना
और निर्वाक होकर
तेरे उत्तापित स्वरों को मुझे है सहना
पर तेरे अदेह की विभा में मुझे
बस औचक झलक बन है रहना
क्योंकि आज मिट्टी में गड़ी हुई
मैं तुम्हारी ही मूल हूँ
ओ! मेरे आकाश-फूल
तुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....
सोचती हूँ
जो-जो मैं तुमसे कह नहीं पाती
या कहना ही नहीं चाहती
वह मेरा रहकर रहस्य हो जाता है
अपने इस संकल्प या संयम से
मेरी निगूढ़ निधि बढ़कर
निरतिशय विकल्प बन जाता है
पर तुम तो अपने
उन अरक्षित क्षणों में ही
मुझसे वो-वो कहला लेते हो
मैं गहराई से अपनी मिट्टी को
पकड़ी रहूँ तो भी मुझे
इधर-उधर टहला देते हो
और मुझमें क्षण-सा झलक कर
मुझे ही ऐसे बहला देते हो.......
तब तो बड़ा कठिन है
तेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना.....
जब तेरी एक किरण को पकड़ कर
मैं तुझ तक कैसे भी आ सकती हूँ
उन्मादिनी , मदमादिनी , मर्दिनी होकर भी
तुझे मैं कैसे भी गा सकती हूँ
तो उलझाये रहो अपने बादलों से
या भागते रहों चाहे दूर-दूर
तुझे पाना है तो पाना है
और मुझे पता है
मैं पंकिनी , वंचिनी या लुंठिनी होकर भी
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ .
थोड़ा आगे उड़ लेती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे जलते अगन से
थोड़ा ज्यादा दहक जाती हूँ तो क्या हुआ ?
या तेरे उठते लहर से
थोड़ा ऊपर उछल लेती हूँ तो क्या हुआ ?
तुम उन्मादिनी कहो
या उद्रिकत मर्दिनी कहो मुझको
मदमादिनी कहो
या तारुण्य की तरंगिनी कहो मुझको
कम्पित विडम्बिनी कहो
या विच्युत पंकिनी कहो मुझको
निर्विशंक लुंठिनी कहो
या विधि-वंचिनी कहो मुझको
निर्हेतु नहीं है तेरा कुछ भी कहना
और निर्वाक होकर
तेरे उत्तापित स्वरों को मुझे है सहना
पर तेरे अदेह की विभा में मुझे
बस औचक झलक बन है रहना
क्योंकि आज मिट्टी में गड़ी हुई
मैं तुम्हारी ही मूल हूँ
ओ! मेरे आकाश-फूल
तुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....
सोचती हूँ
जो-जो मैं तुमसे कह नहीं पाती
या कहना ही नहीं चाहती
वह मेरा रहकर रहस्य हो जाता है
अपने इस संकल्प या संयम से
मेरी निगूढ़ निधि बढ़कर
निरतिशय विकल्प बन जाता है
पर तुम तो अपने
उन अरक्षित क्षणों में ही
मुझसे वो-वो कहला लेते हो
मैं गहराई से अपनी मिट्टी को
पकड़ी रहूँ तो भी मुझे
इधर-उधर टहला देते हो
और मुझमें क्षण-सा झलक कर
मुझे ही ऐसे बहला देते हो.......
तब तो बड़ा कठिन है
तेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना.....
जब तेरी एक किरण को पकड़ कर
मैं तुझ तक कैसे भी आ सकती हूँ
उन्मादिनी , मदमादिनी , मर्दिनी होकर भी
तुझे मैं कैसे भी गा सकती हूँ
तो उलझाये रहो अपने बादलों से
या भागते रहों चाहे दूर-दूर
तुझे पाना है तो पाना है
और मुझे पता है
मैं पंकिनी , वंचिनी या लुंठिनी होकर भी
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ .
लेखिका और 'तुझे' के बीच कितना कुछ है! बहुत कुछ-बहुत कुछ।
ReplyDeleteऔर अपने चरम अवस्था में उनके बीच कुछ भी नहीं है । दोनों एक हैं।
ReplyDeleteमन को उसके तथ्य मिले,
ReplyDeleteव्यक्तित्वों को सत्य मिले।
ओह....कैसा द्वंद्व .... सशक्त रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20-02-2014 को चर्चा मंच पर प्रस्तुत किया गया है
ReplyDeleteआभार
तब तो बड़ा कठिन है
ReplyDeleteतेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना.....
वाह बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...!
RECENT POST - आँसुओं की कीमत.
मन के द्वन्द खूबसूरती से उभर आए हैं.
ReplyDeleteखूबसूरत अर्थो से सजी ससक्त रचना .....!
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteमौन के कथन को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूं।
ReplyDeleteमन के रहस्यलोक की मनोहर झाँकी !
ReplyDeleteऔर निर्वाक होकर
ReplyDeleteतेरे उत्तापित स्वरों को मुझे है सहना
पर तेरे अदेह की विभा में मुझे
बस औचक झलक बन है रहना
....और मुझे पता है
मैं पंकिनी , वंचिनी या लुंठिनी होकर भी
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ ..... दृढ विश्वास की अभिव्यक्ति
ओ! मेरे आकाश-फूल
ReplyDeleteतुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....
निहायत ही खूबसूरत और सशक्त, शुभकामनाएं.
रामराम.
लहर और सागर का खेल, मन और साक्षी का खेल यूँही चलता रहता है
ReplyDeleteतब तक जब तक लहर सागर में न खो जाय, मन साक्षी में न खो जाय !
आश्चर्य इस प्रकार की रचनाएं ब्लॉग जगत में पहली बार पढ़ रही हूँ :)
विलक्षण संघर्षमयी यात्रा और अनूठे संकल्प और लक्ष्य संधान की कथा है यह अनूठी रचना ! बहुत ही सुंदर ! आपको बहुत-बहुत शुभकामनायें अमृता जी !
ReplyDeleteगज़ब का प्रावह है इस रचना में समर्पण की ज़िद है सर्वस्व तेरा ही तो है हवा पानी नदी सब।
ReplyDeleteकभी-कभी कोई शब्द ऐसे मिलता है, जैसे भटके मुसाफिर को खुदा मिलता है...
ReplyDeleteकितना कठिन है शब्दों की उपासना....?
...उससे जोड़ने वाला एक किरण मिल जाए तो ...दिनकर की भाषा में कहें तो मानो दिनमान मिल गया हो....आराध्य के प्रति सतत समर्पण और सान्निध्य में जीवन व्यतीत हो जाए जो जीवन सफल हो जाए.. अति सुन्दर रचना.
ReplyDeleteइधर-उधर टहला देते हो
ReplyDeleteऔर मुझमें क्षण-सा झलक कर
मुझे ही ऐसे बहला देते हो.......
कब तक बहलाएगा...एक दिन तो बस में आ ही जायेगा...सुंदर भाव !
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteकितना कुछ कहती रही ये रचना..
ReplyDeleteहर शब्द में गाथा पिरोती ये रचना..
जब-जब पढ़ा..अंतस तक..
बहुत दूर..बह निकली ये रचना..!!
बहुत सुन्दर रचना..
तब तो बड़ा कठिन है
ReplyDeleteतेरे मौन से साक्षात्कार करना
उससे भी कठिन है
तेरे निराकार निशब्दों में
अपने शब्दों का आकार देना
और अत्यंत कठिन है
अपनी क्षुद्र सुखों में रहकर
तुझे अपना ही विकार देना...
बेहद गहरी भावनात्मक अभिव्यक्ति।।।
तुझे पाना है तो पाना है
ReplyDeleteऔर मुझे पता है
मैं कैसी भी हूँ तो क्या हुआ?
सिर्फ और सिर्फ मैं ही
तुझे बस तुझे पा सकती हूँ … अद्भुत भाव
खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteकिंकर्तव्यविमूढ़
ReplyDeleteजीवन संघर्ष ही है ... भावों में व्यक्त करना आसान तो नहीं होता ...
ReplyDeleteओ! मेरे आकाश-फूल
ReplyDeleteतुम कहीं भी खिले रहो
पर तेरे सौरभ की ही तो मैं
वही सुकुमार भूल हूँ.....
इन पंक्तियों ने कविता के भाव को बहुगुणित कर दिया है।
आपकी रचना बेमिशाल है.
ReplyDeleteतन्मय औ र निशब्द कर रही है.
आभार.