जो कभी
अपनी विस्मरणशीलता को
स्मृत करके
और अपने दीया-स्वरुप से
क्षीण ज्योति ले करके
चलना चाहती हूँ तो
नींद से उठकर मेरी ही सक्रियता
मुझे ही कभी तेज चलाकर
या बंद आँखों में ही भगाकर
अपने स्वभावगत सहजता को
गहरे नशे में खोती है....
तब मुझे अहसास होता है कि
वो दीया या ज्योति
वास्तविक नहीं बल्कि आभासी है
और सुनी-सुनाई या रटी-रटाई
आप्त-ज्ञान की बातें
एकदम से विपर्यासी(झूठा ज्ञान) है ....
इसलिए मैं
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
फिर तो दिन क्या रात क्या
सपनों के साम्राज्य में भी हर समय
जागकर देखना पड़ता है
कि मेरे किये से कुछ नहीं होता है
और तो और मैं
बस करवट पर करवट ही बदलती हूँ....
जब उतेजना की हालत में
चारों ओर की स्थितियों को
चुपचाप सहने में
बिलकुल समर्थ नहीं होती हूँ
या प्रशंसा से अपमान तक के
हर छोर पर विक्षिप्त होकर
उग्र प्रतिक्रया करने लगती हूँ तो
साकार होकर मेरा अन्धेरा
थोड़ा सा मेरा प्रकाश बन जाता है
और सम्भव होकर
मुझसे उघड़ता हुआ मेरा अन्धेरा
मुझे ही ऐसे उघाड़ देता है कि
तत्क्षण ही खुद को ढ़कने का
मेरा छोटा सा ही प्रयास ही
अपना छोटा सा ही प्रकाश का
बड़ा आड़ देता है.....
इसलिए तो
वो अन्धेरा भी मेरा है
और वो उजाला भी मेरा ही है....
तब तो
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
और सहज रूप से उसे ही
पलट कर अपना प्रकाश भी
बना लेती हूँ .
अपनी विस्मरणशीलता को
स्मृत करके
और अपने दीया-स्वरुप से
क्षीण ज्योति ले करके
चलना चाहती हूँ तो
नींद से उठकर मेरी ही सक्रियता
मुझे ही कभी तेज चलाकर
या बंद आँखों में ही भगाकर
अपने स्वभावगत सहजता को
गहरे नशे में खोती है....
तब मुझे अहसास होता है कि
वो दीया या ज्योति
वास्तविक नहीं बल्कि आभासी है
और सुनी-सुनाई या रटी-रटाई
आप्त-ज्ञान की बातें
एकदम से विपर्यासी(झूठा ज्ञान) है ....
इसलिए मैं
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
फिर तो दिन क्या रात क्या
सपनों के साम्राज्य में भी हर समय
जागकर देखना पड़ता है
कि मेरे किये से कुछ नहीं होता है
और तो और मैं
बस करवट पर करवट ही बदलती हूँ....
जब उतेजना की हालत में
चारों ओर की स्थितियों को
चुपचाप सहने में
बिलकुल समर्थ नहीं होती हूँ
या प्रशंसा से अपमान तक के
हर छोर पर विक्षिप्त होकर
उग्र प्रतिक्रया करने लगती हूँ तो
साकार होकर मेरा अन्धेरा
थोड़ा सा मेरा प्रकाश बन जाता है
और सम्भव होकर
मुझसे उघड़ता हुआ मेरा अन्धेरा
मुझे ही ऐसे उघाड़ देता है कि
तत्क्षण ही खुद को ढ़कने का
मेरा छोटा सा ही प्रयास ही
अपना छोटा सा ही प्रकाश का
बड़ा आड़ देता है.....
इसलिए तो
वो अन्धेरा भी मेरा है
और वो उजाला भी मेरा ही है....
तब तो
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
और सहज रूप से उसे ही
पलट कर अपना प्रकाश भी
बना लेती हूँ .
सच कहा आपने
ReplyDeleteवो अन्धेरा भी मेरा है
और वो उजाला भी मेरा ही है....
एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है.. अतुलनीय रचना
साकार होकर मेरा अन्धेरा
ReplyDeleteथोड़ा सा मेरा प्रकाश बन जाता है
और सम्भव होकर
मुझसे उघड़ता हुआ मेरा अन्धेरा
मुझे ही ऐसे उघाड़ देता है कि
तत्क्षण ही खुद को ढ़कने का
मेरा छोटा सा ही प्रयास ही
अपना छोटा सा ही प्रकाश का
बड़ा आड़ देता है.....
....बहुत गहन अभिव्यक्ति...सच में कभी अपने मन के किसी कोने का अँधेरा ही बन जाता है मार्गदर्शक जीवन का...बहुत उत्कृष्ट...
खूबसूरत कथ्य...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता |आभार अमृता जी |
ReplyDeleteसही कहा आपने हमारे ही भीतर है अँधेरे उजाले का खेल और अपनी ही मन:स्थिति से हम इन्हें तय करते हैं
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने अपने मन के अँधेरे उजाले हम अपनी ही मन:स्थिति से तय करते हैं
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteभावपूर्ण!
ReplyDeleteअँधेरा कुछ और नहीं प्रकाश का अभाव ही तो है...यानि सिक्के का दूसरा पहलू...बस पलटने की देर है और प्रकाश हाजिर...और एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रकाश स्वभाव ही बन जाता है तब भी कभी कभी स्वाद बदलने क लिए अँधेरे से मुलाकात कर सकते हैं ...गर इच्छा हो तो..
ReplyDeleteप्रभावी ...... यह उधेड़बुन सबके मन का हिस्सा है ....
ReplyDeleteचाहा-अनचाहा बहुत कुछ स्मृत करने के चक्कर में सम्पूर्ण स्मृति-विस्मृति किसी की नहीं हो पाती। तब अंतस्थल में अन्धेरा उपजना स्वाभाविक है, और इसी अन्ध्ोरे में से प्रकाश की किरणें भी दिखाई देने लगती हैं।
ReplyDeleteउसी एक टुकड़े अँधेरे में रोशनी भी ..... मन को झकझोरती रचना बहुत सुंदर....!
ReplyDeleteयदि अँधेरे का टुकड़ा साथ न होता तो पता नहीं जीवन को उतना समझ न पाते।
ReplyDeleteगहन-गंभीर अभिव्यक्ति.....सभी अंदर एक अँधेरा होता है पर उसे उजाले में बदलना अपने स्वयं पर है......
ReplyDeleteयह मन के अंदर का अंधेरा कोना ही तो इंसान के जीवन की परिधि है जो उसे जीवन को समझने पाने में सक्षम बनाती है। नहीं ? बहुत ही सुंदर गहन भाव अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteगहन-गंभीर अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteउसी ह्रदय में छिपे अँधेरे के टुकड़े से जीवन के यथार्थ का सौंदर्य चमकता है.. दरअसल दुःख, वेदना और कचोटती स्मृतियों की लकीरें कभी मिटती भी नहीं... वे तो आत्मिक प्रकाश पुंज को लम्बी लकीर खींचने के लिए सम्बल देती है.... साहस देती है... ये स्वतः स्फूर्त होता है....
ReplyDeleteदुख में ही कहीं होती ज़रूर है उससे उबरने की विधि ......गहन अंधकार के बाद की प्रकाश आता है ...!!
ReplyDeleteगहन रचना ....!!
जीवन की सम्पूर्णता भी तो इसी अँधेरे से हैं. प्रकाश ही प्रकाश हो तब भी कई व्याधियाँ जन्म लेने लगती है. कहीं न कहीं, इसी अँधेरे और प्रकाश के अनुभवों से परिमार्जित जीवनधारा शायद जीवन का सही स्वाद दे पाती है. बहुत पसंद आई रचना.
ReplyDeleteअँधेरा और उजाला दोनों मैं ही तो हूँ दोनों एक दुसरे के पर्याय |
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteप्रत्युत्तर देंहटाएं
bahut gahan sundar rachna hardik badhai
ReplyDeleteकविता में गहन चिंतन प्रतिबिम्बित है।
ReplyDeleteअंधेरे के अनुभव के पश्चात ही हम उजाले का महत्व समझ पाते हैं।
रहस्यवाद से ओतप्रोत रचना ।
ReplyDeleteआपके जीवन-दर्शन का आधार काफ़ी ठोस है - अँधेरा और उजाला इतने घुले मिले हैं कि अलगाना बहुत कठिन है !
ReplyDeleteवो अन्धेरा भी मेरा है
ReplyDeleteऔर वो उजाला भी मेरा ही है....
तब तो
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ gahan chintan ke sath behad sarthakta se ot prot rachana padhane ko mili .....bahut bahut aabhar Amrita ji .
गहरे भावों से युक्त सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDelete@ तब मुझे अहसास होता है कि
ReplyDeleteवो दीया या ज्योति
वास्तविक नहीं बल्कि आभासी है
और सुनी-सुनाई या रटी-रटाई
आप्त-ज्ञान की बातें
एकदम से विपर्यासी(झूठा ज्ञान) है ....
ज्ञान झूठा नहीं हो सकता लेकिन हमारा अपना अनुभव नहीं है किसी और का है, उधार का है इसलिए दूसरों की सुनी सुनाई बाते, प्राप्त ज्ञान केवल जानकारी है हमारा अपना अनुभव नहीं है, कागज के दिये को यदि घर में रखे तो घर प्रकाशित होगा क्या ?? नहीं न , बस अँधेरा प्रकाश और कुछ नहीं दोनों हमारे मन की ही अवस्थाएं है, अपना अनुभव अल्प प्रकाश ही सही इस प्रकाश का उपयोग जितना हो सके अँधेरे को उघाड़ने में करना होगा !
माया है ये .. प्रकाश शाश्वत है या अंधेरा ... कौन किसको लीलता है ...
ReplyDeleteशायद खुद से होते हैं ये दोनों ... इक दूजे की आड़ लिए ... अपने अपने साम्राज्य में ...
वो अन्धेरा भी मेरा है
ReplyDeleteऔर वो उजाला भी मेरा ही है....
तब तो
अपने ह्रदय में
अँधेरे का एक टुकड़ा
सदा साथ लिए चलती हूँ
और सहज रूप से उसे ही
पलट कर अपना प्रकाश भी
बना लेती हूँ .
मन की रचना का एक अद्भुत नमूना जहाँ अंधेरा भी प्रकाश रूप हो जाता है. बहुत खूब.