जबसे प्रिय प्यारे के
तीखे नयन ने कुछ यूँ छुआ
मुझ रूप-गर्विता को
न जाने क्या और कुछ क्यूँ हुआ ?
अपने रूप पर ही
और इतना इतराने लगी हूँ
लुटे तन-मन की
निधि सहसा ही बिखराने लगी हूँ...
आज बस में नहीं कुछ
खो गया है सारा नियंत्रण
पा प्रिय का
पल-प्रतिपल मोहक नेह निमंत्रण...
मैं किरण-किरण भेद
कुटिल कुतूहल जगाने लगी हूँ
बड़े भोलेपन से ही
बजर बिजलियाँ गिराने लगी हूँ...
गगन को ही छुपा कर
बिरंगी बदरिया बन घिर रही हूँ
उस गंध की गंगा सी
हवाओं के संग मैं फिर रही हूँ...
जैसे कोई क्वांरी कली
प्रथम आलिंगन से खुद को छुड़ा रही हो
उस प्रणय ज्वाला को
हर पात से लजा कर बता रही हो...
और दे भी क्या सकती हूँ
हवाला या प्रमाण अपनी बात का
बस छलिया का
छुअन ही सब हाल कहे मेरे गात का...
मैं मनचली ,मचल-मचल
अपने प्रिय को ऐसे लुभाने लगी हूँ
और मचलते प्राण से
बस प्रिय! प्रिय! प्रिय! गुनगुनाने लगी हूँ .
तीखे नयन ने कुछ यूँ छुआ
मुझ रूप-गर्विता को
न जाने क्या और कुछ क्यूँ हुआ ?
अपने रूप पर ही
और इतना इतराने लगी हूँ
लुटे तन-मन की
निधि सहसा ही बिखराने लगी हूँ...
आज बस में नहीं कुछ
खो गया है सारा नियंत्रण
पा प्रिय का
पल-प्रतिपल मोहक नेह निमंत्रण...
मैं किरण-किरण भेद
कुटिल कुतूहल जगाने लगी हूँ
बड़े भोलेपन से ही
बजर बिजलियाँ गिराने लगी हूँ...
गगन को ही छुपा कर
बिरंगी बदरिया बन घिर रही हूँ
उस गंध की गंगा सी
हवाओं के संग मैं फिर रही हूँ...
जैसे कोई क्वांरी कली
प्रथम आलिंगन से खुद को छुड़ा रही हो
उस प्रणय ज्वाला को
हर पात से लजा कर बता रही हो...
और दे भी क्या सकती हूँ
हवाला या प्रमाण अपनी बात का
बस छलिया का
छुअन ही सब हाल कहे मेरे गात का...
मैं मनचली ,मचल-मचल
अपने प्रिय को ऐसे लुभाने लगी हूँ
और मचलते प्राण से
बस प्रिय! प्रिय! प्रिय! गुनगुनाने लगी हूँ .