इतना भी
घुप्प अँधेरा न करो
कि तड़ातड़ तड़कती
तड़ित-सी विघातक
व्यथा-वेदना में
तुम भी न दिखो...
इस दिए का क्या ?
तेल चूक गया है
बाती भी जल गयी है
बची हुई
चिनकती चिनगारी में
इतना धुआँ भी नहीं
कि भर दे जलन
तुम्हारी आँखों में...
क्या कहूँ ?
बस इतना ही
कि
तुम्हारी मर्जी को
स्वीकारते रहना
इतना आसान नहीं
और मर्जी से
मुकरते जाना
और भी कठिन है...
नहीं तो
पूरी ताकत से
एक धाँस धधकाकर
मिट जाती
वो चिनगारी भी...
ताकि
तुम्हारा अँधेरा
और गहरा जाता
पर तुम्हारे खाँसने की
आवाज भी
पूरी तरह खो जाती
उसी अँधेरी खनखनाहट में .