साँझ के
धुंधलके में
हम तुम
जब मिलते हैं
कोई
गद्गद गीत
उभरता है ...
गा-गा कर
अक्षत अम्बर को
थिरकाता है
तर्षित तारों को
झिलमिलाता है
बातुल बिजुरी को
मचलाता है
और
चंचल चाँद को
और अधिक
दमकाता है ...
साँझ के
धुंधलके में
मंदिम-मंदिम
कहीं दीपक
जल सिहरता है
मंजिम-मंजिम
लौ झुक कर
ऐसे लिपटता है
जैसे
विकल विरह
मानो पिघलता है ...
साँझ के
धुंधलके में
क्षण-क्षण
संकोचित संगम
होता है
और सागर
सागर को ही
डूबोता है ...
प्राणों में
प्रतीक्षातुर
प्रीत लिए दिन
जैसे-जैसे
रात में
खोता है .
रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं .... !!
ReplyDeleteसाँझ के
ReplyDeleteधुंधलके में
जैसे
विकल विरह
मानो पिघलता है .....
..............
सांझ की देहरी पर..
पल..पल मन आँगन है....
चंचल चाँद के चित्त में
लौ सी रात कितनी मद्धिम है.......
अप्रतिम.. अप्रतिम..अप्रतिम............
और सागर
ReplyDeleteसागर को ही
डूबोता है ...
प्राणों में
प्रतीक्षातुर
प्रीत लिए दिन
जैसे-जैसे
रात में
खोता है .
वाह वाह अद्दभुत बिम्ब सुन्दर भाव बहुत बहुत बधाई
इस कविता में एक विशेषता है. चाहे इसे ऊपर से नीचे पढ़ें या नीचे से ऊपर को, पाठक एक ही भाव को प्राप्त होता हैं. इसे व्यष्टि से समष्टि की ओर आना कहें या उसके विपरीत. भाव एक ही है. अभिव्यक्ति की सुंदरता कमाल है.
ReplyDeleteरक्षाबंधन की शुभकामनाएँ.
सही कहा भूषण जी आप ने लाजवाब..
Deleteवाह....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
भूषण की टिप्पणी देख कर फिर से पढ़ी....नीचे से...
वाकई..लाजवाब...
अनु
*आदरणीय भूषण सर ...
Deleteक्षमा चाहती हूँ....जाने कैसे जल्दी में लिख गयी.
सादर
खुबसूरत भाव में बहती
ReplyDeleteबहुत - बहुत सुन्दर रचना...
:-)
Amrita,
ReplyDeleteDO PREMIYON KAA SURAJ DHALNE PAR MILNE BAAD MANSIK KALPANAON KAA BAHUT SUNDER LIKHAA HAI.
Take care
साँझ के
ReplyDeleteधुंधलके में
क्षण-क्षण
संकोचित संगम
होता है,,,,,,,,,,
भाव लिए सुन्दर प्रस्तुति,,,,,बधाई
रक्षाबँधन की हार्दिक शुभकामनाए,,,
RECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,
संयोग आनंदिता या मिलन मुदिता के गहन अभिसार के उदभाव
ReplyDeleteतन से आगे भाग रहा मन मनमोहन में रम जाने को ...
ऐसा तो कभी-कभी ही होता है जबकि मन अक्सर तुम्हारे पास ही भागता है
ReplyDeleteबहुत ही कोमल भाव छलकायें हैं आपने इतने कम शब्दों से..
ReplyDeleteअमृता,
ReplyDeleteकविता के भाव अच्छे हैं, शिल्प भी।
***
आपसे इतनी तुकबंदी की ज़रूरत नहीं समझता।
अति सुंदर कविता ...शुभकामनायें
ReplyDeleteअमृता जी इतना ही कहूँगा- अद्भुत... ह्रदय के तार झनझना उठे
ReplyDeleteजैसे धरती और क्षितिज ,सागर और क्षितिज का मिलन,ऐसे हो इस विरहणी का प्रेमी से मिलन ,अभिसार का रस लिए ,चंदा का अर्क लिए .ज़मी से अर्श पल्लवन ले निशि बासर .बढ़िया भाव स्तुति ,राग स्तुति प्रेम अग्नि शिखा में निखरे रूप की स्वरूप की ..शुक्रिया इस प्रस्तुति के लिए .भाव मार्जन के लिए .
ReplyDeleteहाँ "मद्धिम -मद्धिम"कर लें.
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteआपको पढना वाकई अच्छा लगता है
बहुत बढिया
कल 03/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
अनुपम भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteसाँझ के
ReplyDeleteधुंधलके में
जैसे
विकल विरह
मानो पिघलता है
बेहतरीन भावों की अभिव्यक्ति जहाँ सिर्फ प्रेम समर्पण और निष्ठां के भाव परिलक्षित होते हैं ....
विशिष्ट शैली, 'विशेषण' के अद्भुत प्रयोग ने रचना के सौंदर्य में कई गुना वृद्धि कर दी.
ReplyDeleteभावमय सुन्दर रचना।
ReplyDeleteइस प्यार को कोई नाम नहीं दे सकते
ReplyDeleteसाँझ के धुंधलके में मिलन होने पर कितना कुछ होता है सुंदर उपमाओं से सजाया है रचना को
ReplyDeleteबहुत ही कोमल भाव लिए सुन्दर रचना..
ReplyDeleteकोमल रचना , सुंदर अभिव्यक्ति !:)
ReplyDeleteकविता या बहती नदी.... अद्भुत...
ReplyDeleteसादर।
ऐसे ही सिमट जाती है मन सामने कविता कोई.....!!
ReplyDeleteसुन्दर प्रेमगीत ! पढ़ कर जी करता है ऐसे ही किसी शाम के धुंधलके में गम हो जाने का !
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं.
Awesome concept.. Thanks for sharing.. keep writing.
ReplyDeleteसुंदर चित्र खींचा है आपने।
ReplyDeleteकाबिल-ए-तारीफ पंक्तियों का अद्भुत प्रयोग। स्वागत है।
ReplyDeleteसाँझ के
ReplyDeleteधुंधलके में
क्षण-क्षण
संकोचित संगम
होता है
और सागर
सागर को ही
डूबोता है ...lajabab rachna sunder bhav..aapkee rachnaaon ko padhkar lagta hai jaise aap chitrakaar hain aaur shabdon se panting kartee hain..is rachna ke liye bhee mere shabd hain,,,behtarin
मदिर मदिर प्राणवायु बह रही है . अति सुँदर .
ReplyDeleteसुंदर शब्दावली...गहरे भाव और आपकी कलम फिर क्या कहने...
ReplyDeleteरूहानी प्रेम की श्रृंगारमय अभिव्यक्ति....सुन्दर कल्पनाओं से सुसज्जित
ReplyDeleteकोमल भाव प्रेम और समर्पण की भावनात्मक अनुभूति.
ReplyDeleteDevine...
ReplyDeleteसाँझ का जादू जब सारे आकाश और धरती छा जाता है ,तब अंतर में उठती भावनायें एक निराला लोक रच देती हैं -बहुत गहन अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteमिलन और समर्पण .........जैसे जीवन्तं हो गए
ReplyDeleteप्राणों में
ReplyDeleteप्रतीक्षातुर
प्रीत लिए दिन
जैसे-जैसे
रात में
खोता है .
....बहुत सुन्दर भावपूर्ण शब्द चित्र...
साँझ के धुंधलके में हम तुम मिलते हैं तो रहस्यमय रोमांचक मधुरिम स्वप्न साकार होता है ...
ReplyDeleteशब्दों की जादूगरी दृश्य को जैसे साकार कर रही है !
मनभावन !
बहुत ही सुन्दर समां बाँधा है.....शानदार......जज़्बात पर कुदरत के नज़ारे भी देखें।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता अमृता जी |
ReplyDeleteऔर सागर
ReplyDeleteसागर को ही
डुबोता है...
वाह!
अदभुत अनुपम प्रस्तुति.
भौतिक द्वंद्व क्या होता है यह आपने ठीक से समझा दिया है .कवियित्री अमृता तन्मय भाव बोध और शब्द सामर्थ्य बड़ा व्यापक है ,नए शब्द लातीं हैं आप .आप की कृति की "चर्चा" समीक्षा बड़ी सटीक रही .डॉ राम विलास शर्मा जी ने हिंदी में इक प्रत्यय लगाकर शब्द टकसाल गढ़ी थी जैसे इतिहास से इतिहासिक ,समाज से समाजिक ,विज्ञानी ,शब्द का इस्तेमाल भी आपने ही सबसे पहले किया था .साइंटिफिक के लिए वैज्ञानिक (विज्ञानिक भी हो सकता है इस तरह ),भाषा को सीमा बद्ध क्यों कीजिएगा विकसित होने दो बढ़ने दो अंग्रेजी की तरह जिसके आज अनेक संस्करण चल पड़े हैं ,ब्रितानी अंग्रेजी अलग है अमरीकी अलग .हिन्दुस्तानी हिंगलिश अलग है .
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