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Monday, August 13, 2012

कुछ न बोलूँ रे!


कभी  निज  संचय न  खोलूँ  रे
और  मुख  से  कुछ न  बोलूँ  रे
लंतरानियों  को  बस   तौलूँ  रे
और   भीतर - भीतर   खौलूँ  रे!

लकड़ी  को चूम  रहा  कुल्हाड़ी
सन्यासी बनकर फिरे  है आड़ी
अकड़ा  लकड़ा  यूँ   गुर्राया करे
हरियाली को  ही धमकाया करे
दांतों  से  ऊँगली  मैं  चबाऊँ  रे
और  पुतली   को  सिकड़ाऊँ  रे!

भेड़ -शेर  में  है गजब की यारी
गड़ागड़  पीकर  मस्त शिकारी
औ ठूँठा बीड़िया बन जाया करे
जंगल को अंगूठा  दिखाया करे
ऐसे ढंढोरियो  से  मैं घबराऊँ रे
भाग डबरा में  उब-डूब  जाऊँ रे!

स्वारथ की  प्रीती  बड़ी नियारी
छतीसा मिलाप की करे तैयारी
ग्रह -नक्षत्तर  सध  जाया  करे
जादुई आँकड़ा यूँ उकसाया करे
चुपचाप सब तमाशा  मैं  देखूँ रे
गठरी में भर- भर  आशा टेकूँ रे!

गड़बड़  गरदन  पर  मौर   भारी
बिदक - बिदक  कर  घोड़ी हारी
निगोड़ा  गद्दी  पर  इतराया करे
गठजोड़ा  सरकार  चलाया  करे
बस  आँख   मैं  अपनी  सेंकूं  रे
दरिया  में   हैरानी  को   फेंकूं रे!

पर  मुख  से कुछ  न ही  बोलूँ रे !
न ही  निज  संचय  को  खोलूँ रे !


34 comments:

  1. पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे
    न ही निज संचय को खोलूँ रे,,,,,

    बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,
    स्वतंत्रता दिवस बहुत२ बधाई,एवं शुभकामनाए,,,,,
    RECENT POST ...: पांच सौ के नोट में.....

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  2. गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
    बिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
    निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
    गठजोड़ा सरकार चलाया करे
    बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
    दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!

    कविता के कथ्य और शिल्प में नयापन अच्छा लगा।

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  3. भेड़ -शेर में है गजब की यारी
    गड़ागड़ पीकर मस्त शिकारी
    औ ठूँठा बीड़िया बन जाया करे
    जंगल को अंगूठा दिखाया करे
    ऐसे ढंढोरियो से मैं घबराऊँ रे
    भाग डबरा में उब-डूब जाऊँ रे!

    गूढ़ भाव लिए सुंदर रचना !

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  4. चुपचाप सब तमाशा मैं देखूँ रे
    गठरी में भर- भर आशा टेकूँ रे! सुन्दर पंग्तियाँ

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  5. जो बहता है, वह बहने दो..

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  6. लगता है रामलीला से आम्बेदकर स्टेडियम तक की हलचल समा गई है इस रचना में।
    बेहतरीन, लाजवाब!!

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  7. भेड़ शेर की गज़ब यारी ...यारी बदलते देर कहा लगती है , सुना हाथी , लोमड़ी भी दोस्ती को लपक रहे थे :)
    बहुत बढ़िया !

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  8. पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
    न ही निज संचय को खोलूँ रे !
    और कुछ भी बाकी रह गया है ....
    मैं इन्तजार करूँ .... !!

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  9. पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
    न ही निज संचय को खोलूँ रे !
    वाह ... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  10. गहन भाव लिए सुन्दर रचना..

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  11. गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
    बिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
    निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
    गठजोड़ा सरकार चलाया करे
    बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
    दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!
    भाव अभिव्यक्ति का निराला अंदाज़... बहुत सुन्दर अमृता जी

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  12. गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
    बिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
    निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
    गठजोड़ा सरकार चलाया करे ..

    नवीनता लिए रचना का शिल्प ... गहन बात को नए शब्दों के साथ रक्खा है ... लाजवाब ..
    १५ अगस्त की शुभकामनायें ...

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  13. पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
    न ही निज संचय को खोलूँ रे !
    और कुछ भी बाकी रह गया है .

    मैं इन्तजार करूँ .... !!

    लाजवाब
    १५ अगस्त की शुभकामनायें

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  14. वाह...कुछ न बोलकर भी सब कुछ तो कह दिया आपकी इस अनोखी रचना ने..आजादी की सालगिरह से पहले हुई हलचल देशवासियों को कुछ तो जगा गयी है...

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  15. दिखता तो है ....
    पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
    न ही निज संचय को खोलूँ रे !

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  16. Amrita,

    APNE AAS PAAS SAB KUCHH GALAT DEKH KAR BHI CHUP RAHNE KAA KASHT SAHI BATAAYAA.

    Take care

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  17. कभी कभी चुप रहना भी जरुरी होता हैं >>>

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  18. बहुत बढ़िया...वन्दे मातरम...

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  19. बहुत बढ़िया...वन्दे मातरम...

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  20. हमारे पास कहने को बहुत कुछ होता है
    तो हम खामोश रहते हैं अगर हमें लगता है
    कि बोलने से यथास्थिति की नियति में
    कोई खास बदलाव नहीं आने वाली है....
    लेकिन आपकी कविता खामोशी के वादे भी करती है
    और सलीके से बोलती है............स्वागत है।
    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना।

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  21. अभिनव एकदम अलग हटकर

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  22. अनोखी सी कबीर की उलटबासी सी सधुक्कड़ी भाषा की कविता

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  23. आज 16/08/2012 को आपकी यह पोस्ट (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  24. ....मुख से कुछ न बोलूँ रे
    और भीतर - भीतर खौलूँ रे!
    ................
    क्या बात है..... ?
    बहुत कुछ----बहुत खूब.................

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  25. पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
    न ही निज संचय को खोलूँ रे !
    वाह ........... सुन्दर रचना.............

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  26. निशब्द करती ये लाजवाब पोस्ट।

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  27. सब कुछ तो कह दिया फिर भी मुंह से ना बोलूँ रे ...बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  28. न बोलते हुए भी सब कुछ बोल गई आप.

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  29. ये...ये...ये...सब नया सा है.

    गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
    बिदक-बिदक कर घोड़ी हारी
    निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
    गठजोड़ा सरकार चलाया करे
    बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
    दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!

    संचित को मंचित होते देख रहा हूँ.

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