कभी निज संचय न खोलूँ रे
और मुख से कुछ न बोलूँ रे
लंतरानियों को बस तौलूँ रे
और भीतर - भीतर खौलूँ रे!
लकड़ी को चूम रहा कुल्हाड़ी
सन्यासी बनकर फिरे है आड़ी
अकड़ा लकड़ा यूँ गुर्राया करे
हरियाली को ही धमकाया करे
दांतों से ऊँगली मैं चबाऊँ रे
और पुतली को सिकड़ाऊँ रे!
भेड़ -शेर में है गजब की यारी
गड़ागड़ पीकर मस्त शिकारी
औ ठूँठा बीड़िया बन जाया करे
जंगल को अंगूठा दिखाया करे
ऐसे ढंढोरियो से मैं घबराऊँ रे
भाग डबरा में उब-डूब जाऊँ रे!
स्वारथ की प्रीती बड़ी नियारी
छतीसा मिलाप की करे तैयारी
ग्रह -नक्षत्तर सध जाया करे
जादुई आँकड़ा यूँ उकसाया करे
चुपचाप सब तमाशा मैं देखूँ रे
गठरी में भर- भर आशा टेकूँ रे!
गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
बिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
गठजोड़ा सरकार चलाया करे
बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
न ही निज संचय को खोलूँ रे !
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे
ReplyDeleteन ही निज संचय को खोलूँ रे,,,,,
बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,
स्वतंत्रता दिवस बहुत२ बधाई,एवं शुभकामनाए,,,,,
RECENT POST ...: पांच सौ के नोट में.....
गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
ReplyDeleteबिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
गठजोड़ा सरकार चलाया करे
बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!
कविता के कथ्य और शिल्प में नयापन अच्छा लगा।
भेड़ -शेर में है गजब की यारी
ReplyDeleteगड़ागड़ पीकर मस्त शिकारी
औ ठूँठा बीड़िया बन जाया करे
जंगल को अंगूठा दिखाया करे
ऐसे ढंढोरियो से मैं घबराऊँ रे
भाग डबरा में उब-डूब जाऊँ रे!
गूढ़ भाव लिए सुंदर रचना !
चुपचाप सब तमाशा मैं देखूँ रे
ReplyDeleteगठरी में भर- भर आशा टेकूँ रे! सुन्दर पंग्तियाँ
जो बहता है, वह बहने दो..
ReplyDeleteलगता है रामलीला से आम्बेदकर स्टेडियम तक की हलचल समा गई है इस रचना में।
ReplyDeleteबेहतरीन, लाजवाब!!
sundar kavita hai di :)
ReplyDeleteभेड़ शेर की गज़ब यारी ...यारी बदलते देर कहा लगती है , सुना हाथी , लोमड़ी भी दोस्ती को लपक रहे थे :)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
ReplyDeleteन ही निज संचय को खोलूँ रे !
और कुछ भी बाकी रह गया है ....
मैं इन्तजार करूँ .... !!
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
ReplyDeleteन ही निज संचय को खोलूँ रे !
वाह ... बेहतरीन प्रस्तुति
गहन भाव लिए सुन्दर रचना..
ReplyDeleteगड़बड़ गरदन पर मौर भारी
ReplyDeleteबिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
गठजोड़ा सरकार चलाया करे
बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!
भाव अभिव्यक्ति का निराला अंदाज़... बहुत सुन्दर अमृता जी
गड़बड़ गरदन पर मौर भारी
ReplyDeleteबिदक - बिदक कर घोड़ी हारी
निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
गठजोड़ा सरकार चलाया करे ..
नवीनता लिए रचना का शिल्प ... गहन बात को नए शब्दों के साथ रक्खा है ... लाजवाब ..
१५ अगस्त की शुभकामनायें ...
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
ReplyDeleteन ही निज संचय को खोलूँ रे !
और कुछ भी बाकी रह गया है .
मैं इन्तजार करूँ .... !!
लाजवाब
१५ अगस्त की शुभकामनायें
वाह...कुछ न बोलकर भी सब कुछ तो कह दिया आपकी इस अनोखी रचना ने..आजादी की सालगिरह से पहले हुई हलचल देशवासियों को कुछ तो जगा गयी है...
ReplyDeleteदिखता तो है ....
ReplyDeleteपर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
न ही निज संचय को खोलूँ रे !
Amrita,
ReplyDeleteAPNE AAS PAAS SAB KUCHH GALAT DEKH KAR BHI CHUP RAHNE KAA KASHT SAHI BATAAYAA.
Take care
कभी कभी चुप रहना भी जरुरी होता हैं >>>
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...वन्दे मातरम...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...वन्दे मातरम...
ReplyDeleteअच्छी लगी यह कविता।
ReplyDeleteहमारे पास कहने को बहुत कुछ होता है
ReplyDeleteतो हम खामोश रहते हैं अगर हमें लगता है
कि बोलने से यथास्थिति की नियति में
कोई खास बदलाव नहीं आने वाली है....
लेकिन आपकी कविता खामोशी के वादे भी करती है
और सलीके से बोलती है............स्वागत है।
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना।
अभिनव एकदम अलग हटकर
ReplyDeleteअनोखी सी कबीर की उलटबासी सी सधुक्कड़ी भाषा की कविता
ReplyDeleteआज 16/08/2012 को आपकी यह पोस्ट (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
ReplyDelete....मुख से कुछ न बोलूँ रे
ReplyDeleteऔर भीतर - भीतर खौलूँ रे!
................
क्या बात है..... ?
बहुत कुछ----बहुत खूब.................
पर मुख से कुछ न ही बोलूँ रे !
ReplyDeleteन ही निज संचय को खोलूँ रे !
वाह ........... सुन्दर रचना.............
निशब्द करती ये लाजवाब पोस्ट।
ReplyDeleteसब कुछ तो कह दिया फिर भी मुंह से ना बोलूँ रे ...बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteउम्दा गीत
ReplyDeleteन बोलते हुए भी सब कुछ बोल गई आप.
ReplyDeleteachcha bolin.....
ReplyDeleteबेहतरीन... सादर।
ReplyDeleteये...ये...ये...सब नया सा है.
ReplyDeleteगड़बड़ गरदन पर मौर भारी
बिदक-बिदक कर घोड़ी हारी
निगोड़ा गद्दी पर इतराया करे
गठजोड़ा सरकार चलाया करे
बस आँख मैं अपनी सेंकूं रे
दरिया में हैरानी को फेंकूं रे!
संचित को मंचित होते देख रहा हूँ.