कोई फर्क नहीं पड़ता
कि हम कहाँ हैं
हो सकता है हम
आँकड़े इक्कठा करने वाले
तथाकथित मापदंड पर
ठोक-पीट कर
निष्कर्ष जारी करने वाले
बुद्धिजीवियों के
सरसरी नज़रों से होकर
गुजर सकते हैं
हो सकता है कुछ क्षण के लिए
उनकी संवेदना तीक्ष्ण जो जाये
ये भी हो सकता है कि
उससे संबंधित कुछ नए विचार
कौंध उठे उनके दिमाग में
समाधान या उसके समतुल्य
ये भी हो सकता है कि
बहुतों का कलम उठ जाये
पक्ष -विपक्ष में लिखने को
अपनी कीमती राय
कर्ण की भांति दान देते हुए
पर जिसका चक्रव्यूह
उसमें फंसा अभिमन्यु वो ही
महारथियों से घिरा
अपना अस्तित्व बचाने को
पल प्रतिपल संघर्षरत
आखिरी साँस टूटते हुए उसे
दिख जाता है
विजय कलयुग का .