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Saturday, December 29, 2018

संतों ! संत हुई मैं .......

रोआँ - रोआँ हुआ कवि
साँस - साँस कविता
अब तुझको कैसे मैं कहूँ ?
आखिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !

ये विवशता भी बड़ी निराली है
जिसको जी कर , जीती ये शिवाली है
चाहो तो , मौन से आखर महकाओ
या आखर को मूक बनाओ
ये समरसता तुझपर बलिहारी है !

बना कर अपनी पोगड़िया
ले लिया सब लकुटी - कमरिया
धड़कन के मँजीरा पर अब
नचाओ , मुझे खूब नचाओ
पहना अपनी धानी लहरिया !

चतुर हुई , निश्चिंत हुई मैं
ना डोलूँ अब , संत हुई मैं
संतो ! समझ सको तो समझ लो
मेरे अकिंचन आखर की विवशता
कह कर , ना कह कर भी अनंत हुई मैं !

संतों ! संत हुई मैं .