Social:

Friday, May 14, 2021

एक और इतिहास ......

यह युग 

बीत ही जाएगा

और

एक और युग भी आएगा

जो बीत रहा है वह भी

इतिहास बन जाएगा

पर दोनों कल के

पलड़ों के बीच

शीतयुद्ध जैसा फिर से

कुछ ठन जाएगा

और

ऊँघते काल के प्रवाह में

उबाल और उलार को

नापने के लिए

अनगिनत आँख जड़ा 

असंख्य चँदोवा 

तन कर, तन जाएगा

तब फिर से

सहमतियों की

आँखों की कृपा पर

हर अगले पन्ने की छपाई

निर्भर करेगा

उनका रंगाई-पुताई

बीते हुए सारे

कानाफूसियों का रहना

दूभर करेगा

और फिर सबमें

एक चुपचाप

शब्दयुद्ध ठन जाएगा 

भूलाने लायक

बहुत सारी बातें

कहीं हाशिए में

नामोनिशान मिटा कर

दफन कर दिया जाएगा

कुछ बातों को

सौंदर्य प्रसाधनों से

लीपा-पोती करके

और भी आकर्षक

बना दिया जाएगा

फिर से

इस युग के भी बीतने पर

वही गड्ड-मड्ड सा 

एक और

इतिहास बन जाएगा 

जिसमें ढूंढने पर भी

इस आज की सच्चाई

कभी नहीं मिलेगी . 


Saturday, May 8, 2021

कठपुतली होने की विवशता .........

                  जीवन को कुछ अलग हटकर देखने से यही लगता है कि यह आजीवन केवल सहन करने का ही काम है । जैसे बोझ ढोने वाले जानवरों पर उनसे पूछे बिना किसी भी तरह का और कितना भी वजन का बोझ डाल दिया जाता है । फिर पीछे से हुड़का कर, डरा कर या डंडा मार-मारकर बिना रूके हुए चलाया जाता है, ठीक ऐसा ही जीवन है । यदि वह जानवर रूकना चाहे या बोझ उतारना चाहे या कुछ और करना चाहे,  तो भी कर नहीं सकता है या कर नहीं पाता है । कारण उसे लगता है कि उसपर डाला गया बोझ और वह एक ही है और यही उसका जीवन भी है । कभी-कभार उस जानवर को ये बात समझ में आ भी जाती है तो भी वह उस बोझ को हटा नहीं पाता है क्योंकि उसे उसकी आदत हो गई होती है । वह स्वयं भी खाली होने की कल्पना मात्र से ही डर जाता है । उसे लगता है कि उसका जीवन भी खो जायेगा और वह मर जाएगा । 

                           फिर से देखा जाए तो जीवन, जीवन पर्यन्त सब कुछ हमारे विपरीत होने का ही नाम है । हम पल-प्रतिपल अपनी सहनशीलता को अपनी ही कसौटी पर कसते रहते हैं । साथ ही उसके अनुरूप हो रहे सारे अनुकूल-प्रतिकूल बदलावों के अनुसार अपने-आपको ढालने के उबाऊ और थकाऊ प्रयासों के चक्रव्यूह में फँसते रहते हैं । पर उन विपरीतों में अचानक से कुछ ऐसा भी होता रहता है कि हम सहज भरोसा नहीं कर पाते हैं कि हमारे अनुकूल भी कुछ होता है । जो कि केवल संयोगावशात ही होता है । पर हम अति प्रसन्न होकर अपनी ही पीठ थपथपा लेते हैं । हम स्वयं को समझा लेते हैं कि हमारे करने से ही हुआ है पर उन असफलताओं को उस क्षण कैसे भूल जाते हैं जिसके लिए हमने कभी स्वयं को भी दांव पर लगा दिया था । लेकिन हमारा मन इतना चालाक होता है कि वो हमसे पहले ही अपने तर्कों को तैयार कर लेता है और अपने अनुसार हमसे मनवा भी लेता है ।

                                            हालांकि हमारे अनुरूप कुछ भी होने की मात्राओं में बड़ा अंतर हमें आशा-निराशा के द्वंद में उलझाता रहता है और हम स्वयं से ही प्रश्न पूछने पर विवश होते रहते हैं कि आखिर हमारा होना क्या है ? तब हमें थोड़ा-थोड़ा पता चलता है कि सच में हम मात्र एक कठपुतली ही हैं और हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, स्वयं को सहन करने के अतिरिक्त । पर हमारा अहंकार यह मानना नहीं चाहता है जबकि हम देखते रहते हैं कि हम जीवन में जो करना चाहते हैं वो कर नहीं पाते हैं । यदि कर भी पाते हैं तो वो आंशिक रूप में ही होता है । परन्तु जो हम कभी करना नहीं चाहते थे, वही सबकुछ हमें न चाहते हुए भी करते रहना पड़ता है । उन अनचाहे कर्मों को करते हुए हम इतने विवश होते हैं कि आत्म-विरोध के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते हैं । कारण हमें उन जानवरों की तरह ही सिखा-पढ़ाकर इतना अभ्यास करा दिया गया होता है कि हम अपने ही कोल्हू पर घुमते रहने के आदी हो जाते हैं । 

                                        फिर जीवन क्या है ? संभवतः अपने ही हवन-कुंड में अपनी ही समिधा को सुलगाना । या किसी ऐसे आत्म-संकल्प को अपने विचार-यज्ञ में स्वयं होता बनकर सतत आहुत करते रहना जिसको हम ही कभी नहीं जान पाते हैं । या अपनी ही बलि-वेदी पर अपने श्वास-श्वास को चढ़ाकर जीवन का प्रसाद पाना । या सुनी-सुनाई हुई, तथाकथित कर्म और मुक्ति के सिद्धांतों के जलेबी जैसी बातों से थोड़ा-थोड़ा रस चाट-चाटकर कर आत्म-संतोष के झूठे आश्वासन में तबतक श्वास लेते रहना जबतक वह स्वयं ही रूक नहीं जाए । 

                                  इस वर्तमान में प्रश्नों के अंबार हैं पर उत्तर की कोई भी चाह या आवश्यकता नहीं है । जो दिख रहा है वही इतना अधिक है कि बहुत सारी बातें  अपने-आप इस मूढ़ बुद्धि को बहुत-कुछ समझा रही है । चला-चली के इस बेला में अपनों से बिछुड़ते हुए आत्म-सांत्वना के शब्द या जीवन से पुनः जुड़ाव का कोई प्रयास करना,  छलावा मात्र लग रहा है । जो हो रहा है सो हो रहा है । जिसे देखता हुआ मूकदर्शक बहुत कुछ कहना चाहता है पर कहने मात्र से ही कुछ हो जाता तो वह अवश्य कहता रहता । वह अपने कठपुतली होने की विवशता को अच्छी तरह से जानता है । हाँ! वह भीतर-ही-भीतर दुखी हो सकता है, वह दहाड़े मारकर रो सकता है, वह छाती भी पीट सकता है,  किसी को जी भर कर कोस भी सकता है और जीवन से विमुख भी हो सकता है ।

                                   पर वह सामूहिक कल्याण के लिए अनवरत आर्त्त प्रार्थना ही करता रहता है । बाह्य रूप से वह इतना तो कर ही सकता है कि आशा का दीपक जलाकर औरौं को भी प्रदीप्त करता रहे , बिखर गए धीरज की पूंजी को दोनों हाथों से समेट कर लुटाता रहे ।  किसी को संबल का दृढ़ और स्नेह भरा हाथ बढ़ा सके । किसी को सिर रखने के लिए वह अपना मजबूत कंधा दे सके । वह दुःख के गीत को कम गाए और सुख के गीतों से कण-कण को गूंजा दे । वह सबके ओंठो पर उम्मीदों की हँसी न सही मुस्कान ही खिला दे । वह मानव जीजिविषा के हठ को पुनर्जीवित कर सके । करने को बहुत-कुछ है जिसे वह कर सकता है । पर यह कैसे कह सकता है कि ये समय भी बीत जाएगा और सबकुछ ठीक हो जाएगा । जबकि वह देख रहा है कि बहुत-कुछ ऐसा हो गया है कि वह कभी पूर्व गति को प्राप्त नहीं हो सकता है साथ ही वह भी स्वयं को उस बीत जाने वाली पंक्ति में ही पाता है ।