जब-जब तेरे, सारे दुख कल्पित हो जाए
जाने-अनजाने में ही, मन निर्मित हो जाए
उसमें स्थायी सुख भी, सम्मिलित हो जाए
तब-तब मुझे, तेरे विवश प्राणों तक आना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो
जो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो
जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो
तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
यदि मार्ग के ही मोह में, कभी भटक जाओ
या अपने ही सूनेपन में, यूँ ही अटक जाओ
या दूषित दृष्टियों में, जो कभी खटक जाओ
आकर तेरे अंतर्तम में, मधुमास खिलाना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
देखो न हर बूँद में ही, ऐसे अमृत टपक रहा है
देखो तो जो चातक है, उसे कैसे लपक रहा है
कहाँ खोकर बस तू, क्यों पलकें झपक रहा है
आओ! अंजुरी भर के, तुम्हें अमिरस पिलाना है
हाँ! तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है ।