जब-जब तेरे, सारे दुख कल्पित हो जाए
जाने-अनजाने में ही, मन निर्मित हो जाए
उसमें स्थायी सुख भी, सम्मिलित हो जाए
तब-तब मुझे, तेरे विवश प्राणों तक आना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो
जो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो
जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो
तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
यदि मार्ग के ही मोह में, कभी भटक जाओ
या अपने ही सूनेपन में, यूँ ही अटक जाओ
या दूषित दृष्टियों में, जो कभी खटक जाओ
आकर तेरे अंतर्तम में, मधुमास खिलाना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
देखो न हर बूँद में ही, ऐसे अमृत टपक रहा है
देखो तो जो चातक है, उसे कैसे लपक रहा है
कहाँ खोकर बस तू, क्यों पलकें झपक रहा है
आओ! अंजुरी भर के, तुम्हें अमिरस पिलाना है
हाँ! तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है ।
लाजवाब सृजन।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
यदि हृदय की धड़कनों से ही, कोई चूक हो
ReplyDeleteजो स्वर विहीन होकर, कभी भी मन मूक हो
जो उखड़ी-सी, साँस कोकिल की भी कूक हो
तो तेरे भग्न मंदिर का, कायाकल्प कराना है
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी सृजन ।आपके लेखन का रसास्वादन सुखद अनुभूति है ।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५-०४ -२०२२ ) को
'तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है'(चर्चा अंक -४४०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जय हो ,सादर नमन🙏🙏
ReplyDeleteअस्तित्व हमें हर पल चेताता है, प्रीत की डोर से बँधा गीतों की याद दिलाता है, मन जो बेवजह कभी मुखर कभी मौन होकर अपने होने का ढिंढोरा पीटता रहता है, उसे अपने ठिकाने पर बार-बार ले जाता है, अमिरस की इस धार को बहाने के लिए आभार!
ReplyDeleteदेखो न हर बूँद में ही, ऐसे अमृत टपक रहा है
ReplyDeleteदेखो तो जो चातक है, उसे कैसे लपक रहा है
कहाँ खोकर बस तू, क्यों पलकें झपक रहा है
आओ! अंजुरी भर के, तुम्हें अमिरस पिलाना है
ये अमिरस पान करवाने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं सादर अभिवादन 🙏
अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteसुंदर प्रतीकों से सजा मन की परतों को खोलता खूबसूरत गीत
ReplyDeleteबधाई
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ReplyDeleteगहन उदासी को दूर कर आशा के नव संचार को जगाता यह सृजन अमृत रसपान के समान ही है ।
ReplyDelete।
दिल को छूती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteजब-जब तेरे, सारे दुख कल्पित हो जाए
ReplyDeleteजाने-अनजाने में ही, मन निर्मित हो जाए
उसमें स्थायी सुख भी, सम्मिलित हो जाए
तब-तब मुझे, तेरे विवश प्राणों तक आना है
तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है
Bahut hi Shandar Rachna
nice sir ji
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आशा का संचार करती सुंदर रचना ,हमेशा की तरह !!
ReplyDeleteअमृता जी , आप ठीक तो हैं न ? आपकी अनुपस्थिति खटकती है ।
ReplyDeleteअनजाने ही आशा और उम्मीद के बीज बो दिए आपने ...
ReplyDeleteलाजवाब भावपूर्ण लेखन ...
कमाल है!
ReplyDeleteचुन-चुन कर शब्दों का आपने प्रयोग किया और क्या सुंदर संदेश देती रचना है यह!!
लाजवाब!!!
Very nice
ReplyDeletevery informative knowledge dear
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