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Sunday, January 30, 2022

सर्जक का श्राप ! .........

                   कभी-कभी इस सर्जक का क्रोध सातवें आसमान से भी बहुत-बहुत ऊपर चला जाता है। शायद बहुत-बहुत ऊपर ही कोई स्वर्ग या नर्क जैसी जगह है, बिल्कुल वहीं पर। हालाँकि उस जगह को यह सर्जक कभी यूँ ही तफरीह के लिए जाकर अपनी आँखों से नहीं देखा है। वह इसका कारण सोचता है तो उसके समझ में यही बात आती है कि वह दिन-रात अपने सृजन-साधना में इतना ज्यादा व्यस्त रहता है कि वहाँ जाने का समय ही नहीं निकाल पाया है। वर्ना वह भला रुकने वाला था। आये दिन वह बस यूँ ही मौज-मस्ती के लिए वहाँ जाता रहता और यहाँ आकर,  मजे से आपको आँखों देखा हाल लिख-लिख कर बताता। हाँ! उस जगह के बारे में उसने बहुत-कुछ पढ़ा-सुना जरूर है। जिसके आधार पर उसने खूब कल्पनाएँ की है, खूब कलम घसीटी है और खूब वाद-विवाद भी किया है। फिर अपनी बे-सिर-पैर वाली तर्को से सबसे जीता भी है। वैसे आप भी जान लें कि यह वही जगह है जहाँ हमारे देवताओं-अप्सराओं के साथ-साथ हमारी पूजनीय पृथ्वी-त्यक्ताएँ आत्माएँ भी रहती हैं। अब कौन-सी आत्मा कहाँ रहती है ये तो सर्जक को सही-सही पता नहीं है। इसलिए वह मान रहा है कि सारी विशिष्ट आत्माएँ स्वर्ग में ही रहती होंगी और सारी साधारण आत्माएँ  नर्क में होंगी। जैसी हमारी पृथ्वी की व्यवस्था है। अमीरों के लिए स्वर्ग और गरीबों के लिए नर्क।

                               अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस सर्जक को हमारे ऋषियों-मुनियों से भी बहुत ज्यादा क्रोध क्यों आता है? वैसे आप ये भी जान लें कि हमारे वही पूर्वपुरुष, श्रद्धेय ऋषि-मुनि जो प्रथम सर्जक भी हैं और जिनकी हम संतान हैं। तो उनका थोड़ा-बहुत गुण-दोष हममें रहेगा ही। साथ ही उनके बारे में ये भी पढ़ने-सुनने में आता है कि वे यदा-कदा, छोटी-छोटी बातों पर भी अत्यधिक रुष्ट हो कर बड़ा-बडा श्राप दे दिया करते थे। वो भी बिना सोचे-समझे कि ये हो जाओ, वो हो जाओ, ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा वगैरह-वगैरह। अब लो! क्षणिक क्रोध के आवेश में तो जन्म-जन्मान्तर का श्राप दे डाले और बाद में अपने किये पर बैठकर पछता रहे हैं। फिर तो श्रापित पात्र उनका पैर पकड़ कर, क्षमा याचना कर-कर के उन्हें मनाये जा रहा है, मनाये जा रहा है। तब थोड़ा-सा क्रोध कम करके, वे ही श्राप-शमन का उपाय भी बताए जा रहे हैं। हाँ तो! बिल्कुल वैसा ही क्रोध लिए यह सर्जक भी स्वर्ग पहुँच कर अपने क्षणिक नहीं वरन् दीर्घकालिक क्रोध-शमन हेतु कुछ विशिष्ट आत्माओं को कुछ ऐसा-वैसा श्राप दे ही देना चाहता है। जिससे उसकी भी अव्यक्त आत्मा को थोड़ी-बहुत शांति मिल सके।

                   अब अगला सवाल यह उठता है कि सर्जक आखिर श्राप क्यों देना चाहता है? तो इस सर्जक का जवाब यह है कि उन विशिष्ट आत्माओं में से जितनी भी अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माएंँ हैं, पूर्व नियोजित षड्यंत्र कर के इस सर्जक से शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहीं हैं। वो भी पिछले हजारों सालों से। या फिर ये कहा जाए कि जबसे लिपि अस्तित्व में आई है तबसे ही। वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे सारे महाग्रन्थों की रचना हों या उसके बाद की समस्त महानतम रचनाएँ हों। सब-के-सब में, वो सारी-की-सारी सर्वश्रेष्ठ बातें लिखी जा चुकी हैं, जिसे यह सर्जक भी आप्त-वाणी की तरह कहना चाहता था। वैसे अब भी कहना चाहता है पर कैसे कहे? अपने कहने में या तो वह चोरी कर सकता है, या तो नकल कर सकता है या फिर लाखों-करोड़ों बार कही गई बातों को ही दुहरा-तिहरा सकता है। या फिर कुछ नयापन लाने के लिए अपनी बलबलाती बुद्धि और कुड़कुड़ाती कल्पना को खुली छूट दे कर, थोड़ा-सा उलट-पलट कर सकता है। लेकिन मूल बातों से खुलेआम छेड़छाड़ तो नहीं कर सकता है। आखिर उसकी भी तो एक बोलती हुई आत्मा है जो निकल कर पूछेगी कि सृजन के नाम पर तुम क्या कर रहे हो? अब आप ही बताइए कि यह क्रोध से उबलता सर्जक कैसे उन सबसे भी महान ग्रन्थ की रचना करे? अब वह ऐसा क्या लिखे कि युगों-युगों तक अमर हो जाए? आपको भी कुछ सूझ नहीं रहा होगा, ठीक वैसे ही जब इसे भी कुछ नहीं सूझता है तो असीमित क्रोधित होता है। फिर अपने क्रोध के कारण के मूल में जाकर बस श्राप ही देना चाहता है।

                           इसलिए यह सर्जक सीधे स्वर्ग जाकर उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं को चुन-चुनकर, उनके मान-सम्मान के अनुरूप, श्राप देते हुए कहना चाहता है कि इस कलि-काल में उन सबों को पुनर्जन्म लेना होगा। कारण हममें से किसी ने उन पूर्वकालीन सृजन को देखा तो नहीं है इसलिए सबकी आँखों के सामने फिर से कोई महानतम ग्रन्थ को रचना होगा। साथ ही आज के स्थापित सर्जनात्मक धुरंधरों से साहित्यार्थ कर जीतना भी होगा। अर्थात उन्हें वो सबकुछ करना होगा जिससे उनकी महानतम अमरता की मान्यता फिर से प्रमाणित हो सके। यदि वें ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अर्थों का अनर्थ सदा होता रहेगा और उन्हें इस सर्जक के श्राप से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। 

                                 शायद तब उन्हें पता चले कि इस अराजक काल में बकवादियों से जीतने के लिए या सर्वश्रेष्ठ सृजन के लिए कैसा-कैसा और कितना पापड़ बेलना पड़ता है। या फिर वें ये समझ जाएंगे कि पापड़ बेलना ही साहित्य से ज्यादा अर्थपूर्ण है। शायद उन्हें ये भी पता चले कि "भूखे सृजन न होई कृपाला"। तब शायद वें अति खिन्नता में, साहित्य से ही विरक्त हो कर कलम रूपी कंठी माला का त्याग कर, पेट के लिए कोई और व्यवसाय ढूँढ़ने लगेंगे। फिर तो यह सर्जक, इस चिर-प्रतीक्षित सुअवसर का झट से लाभ उठा कर, वेद-उपनिषद से भी उत्कृष्ट कृति का, यूँ चुटकी बजाकर सृजन कर देगा। क्या बात है ! क्या बात है ! उसे यह सोच कर ही इतनी प्रसन्नता हो रही है कि वह बावला हो कर, खट्-से अपनी कलम को ही तोड़ डाला है। फिर भी सोचे ही जा रहा है कि उसका बस एक श्राप फलित होते ही, वह कम-से-कम एक सर्वोत्कृष्ट सृजन कर, युगों-युगांतर तक उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं से भी कुछ ज्यादा अमर हो जायेगा।

Thursday, January 27, 2022

शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम ! ........

शब्दों को मेरा प्रणाम !

उनके अर्थों को मेरा प्रणाम !


उनके भावों को मेरा प्रणाम !

उनके प्रभावों को मेरा प्रणाम !


उनके कथ्य को मेरा प्रणाम !

उनके शिल्प को मेरा प्रणाम !


उनके लक्षणों को मेरा प्रणाम !

उनके लक्ष्य को मेरा प्रणाम !


उनकी ध्वनि को मेरा प्रणाम !

उनके मौन को मेरा प्रणाम !


उनके गुणों को मेरा प्रणाम !

उनके रसों को मेरा प्रणाम !


उनके अलंकार को मेरा प्रणाम !

उनकी शोभा को मेरा प्रणाम !


उनकी रीति को मेरा प्रणाम !

उनकी वृत्ति को मेरा प्रणाम !


उनकी उपमा को मेरा प्रणाम !

उनके रूपक को मेरा प्रणाम !


उनके विधान को मेरा प्रणाम !

उनके संधान को मेरा प्रणाम !


शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !

उनको बारंबार मेरा प्रणाम !

                                      "ॐ शब्दाय नम:" शब्द ब्रह्म उस परम दशा का इंगित है जो निर्वचना है। हृदय काव्यसिक्त होकर ही उस ब्रह्म नाद में तन्मय होता है। तब "शब्द वाचक: प्रणव:" अर्थात शब्द उस परमेश्वर का वाचक होता है। उसी अहोभाव में हृदय प्रार्थना रत है और हर श्वास से ध्वनित हो रहा है- शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !


Thursday, January 20, 2022

कैसे भेंट करूँ? ........

गुलाब नहीं मिला 

तो पंँखरियाँ ही लाई हूँ !

बाँसुरी नहीं मिली

तो झंँखड़ियाँ ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

सुवासित हुई तो

सुगंधियाँ लाई हूँ !

गुनगुन उठा तो

ध्वनियाँ ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

देखो !

प्रेम प्रकट है

निज दर्श लाई हूँ !

तुम्हें छूने के लिए

कोमल से कोमलतम 

स्पर्श लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

संग-संग इक

झिझक भी लाई हूँ !

ये मत कहना कि

विरह जनित

मैं झक ही लाई हूँ !

कैसे भेंट करूँ ?

तुम ही कहो !

तुम्हें देने के लिए

बिन कुछ भेंट लिए

कैसे मैं चली आती ?

लाज के मारे ही

कहीं ये धड़कन 

धक् से रूक न जाती !

यूँ निष्प्राण हो कर भला

जो सर्वस्व देना है तुम्हें

कहो कैसे दे पाती ?

मेरे तेजस्व !

हाँ ! निज देवस्व

देना है तुम्हें

अब तो कहो !

कैसे भेंट करूँ ?

Sunday, January 16, 2022

स्नेह-शिशु ..........

                                       अविज्ञात, अविदित प्रसन्नता से प्रसवित स्नेह-शिशु हृदय के प्रांगण में किलकारी मारकर पुलकोत्कंपित हो रहा है। कभी वह निज आवृत्ति में घुटने टेक कर कुहनियों के बल, तो कभी अन्य भावावृत्तियों को पकड़-पकड़ कर चलना सीख रहा है। विभिन्न भावों से अठखेलियाँ करते हुए, गिरते-पड़ते, सम्भलते-उठते, स्वयं ही लगी चोटों-खरोंचों को बहलाते-सहलाते हुए, वह बलक कर बलवन्त हो रहा है। कभी वह हथेलियों पर ठोड़ी रख कर, किसी उपकल्पित उपद्रव के लिए, शांत-गंभीर होकर निरंकुश उदंडता का योजना बना रहा है। तो कभी अप्रत्याशित रूप से उदासी को, मृदु किन्तु कम्पित हाथों से गुदगुदा कर चौंका रहा है। कभी वह अपने छोटे-छोटे, मनमोही घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट से, पीड़ित हृदय के बोझिल वातावरण को, मधुर मनोलीला से मुग्ध कर रहा है । तो कभी इधर-उधर भाग-भाग कर, समस्त नैराश्य-जगत् को ही, अपने नटराज होने की नटखट नीति बता रहा है। 

                     स्नेह-शिशु कभी निश्छल कौतुकों से ठिठक कर, इस भर्राये कंठ में जमे सारे अवसाद को पिघलाने के लिए, प्रायोजित उपक्रम कर रहा है। तो कभी वह ओठों के स्वरहीन गति को, निर्बंध गीतों में तोतलाना सिखा रहा है। वह येन-केन-प्रकारेण हृदय को, अपने अनुरागी स्नेह-बूँदों की आर्द्रता देकर, नव रोमांच से अभिसिंचित करना चाह रहा है। उसके नन्हें-नन्हें हाथों का घेराव, उसका यह कोमल आग्रह बड़ी प्रगाढ़ता से, मनोद्वेगों को समेट रहा है। फिर आगे बढ़ कर उसे आगत-विगत के समस्त व्यथित-विचारों से, विलग कर अपने निकट खींच रहा है। संभवतः उसका यह भरपूर लेकिन गहरा स्पर्श, उस अर्थ तक पहुँचने का यत्न है, जो स्वयं ही अवगत होता है। जिसे नैराश्य-जगत् का झेंप और उकताहट, मुँह फेर कर अवहेलना कर रहा है। पर स्नेह-शिशु की प्रत्येक भग्नक्रमित भंगिमाएँ उसे भी सायास मुस्कान से भर रहा है। तब तो उदासी भी अपलक-सी, अवाक् होकर उसका मुँह ताक रही है। जिससे उसपर पड़ी हुई व्यथा की, चिन्ता की काली छाया, विस्मृति के अतल गर्त में उतरने लगी है। 

                             स्नेह-शिशु अयाचित-सा एक निर्दोष अँगराई लेते हुए, विस्तीर्ण आकाश को, बाँहों से फैला रहा है। वह मनोविनोदी होकर, छुपा-छुपाई खेलना चाह रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी दु:ख के पीछे, कभी संताप के पीछे छुप रहा है। तो कभी चुपके-से वह व्यथा का, तो कभी हताशा का आड़ ले रहा है। उसे पता है कि वह कितना भी छुपे, पर अब कहीं भी छुप नहीं सकता। फिर भी वह घोर निराशा के पीछे, स्वयं को छुपाने का अनथक प्रयास कर रहा है। पर उसका यह असफल प्रयास, हृदय को अंगन्यास-सा आमोदित कर रहा है। जिसे देखकर वह भी अपने स्वर्ण-दंत-पंक्तियों को निपोड़ते हुए, प्रमोद से खिलखिला रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी इधर से तो कभी उधर से, अपने सुन्दर-सलोने मुखड़े को आड़ा-तिरछा करके, उदासी को चिढ़ा रहा है। तो कभी प्रेम-हठ से उसका हाथ पकड़े, चारों ओर चकरघिन्नी की तरह घुमा रहा है। उदासी अपने घुमते सिर को पकड़कर, उसे कोमल किन्तु कृत्रिम क्रोध से देख रही है।

                    स्नेह-शिशु को यूँ ही उचटती दृष्टि से देखते हुए भी चाहना के विपरीत, बस एक अवश भाव से मन बँधा जा रहा है। वह भाव जो प्रसन्नता के भी पार जाना चाहता है। वह भाव जो उसके प्रेम में पड़कर उसी के गालों को, पलकों को, माथे को बंधरहित होकर चूमना चाह रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे वह भी प्रतिचुम्बन में उदासी के आँखों को, कपोलों को,  ग्रीवा को, कर्णमूल को, ओठों को एक अलक्षित चुम्बन से चूम रहा हो। जिससे अबतक हृदय में जमा हुआ सारा अवसाद द्रवित होकर द्रुत वेग से बहना चाह रहा है। फिर तो उसकी उँगलियाँ भी उदासी के माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श में खेलने लगी हैं। ऐसा अविश्वसनीय इन्द्रजाल! ऐसा संपृक्त सम्मोहन! ऐसा आलंबित आलोड़न! जिससे हृदय एक मीठी अवशता से अवलिप्त होकर सारे नकारात्मक भावों को यथोचित सत्कार के साथ विदा करना चाह रहा है। 

                                                 स्नेह-शिशु के लिए एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य-भरा स्पर्श से उफनता हुआ हृदय स्वयं को रोक नहीं पा रहा है। उसकी सम, कोमल थपकियों से, कभी बड़ी-बड़ी सिसकियों से अवरूद्ध हुआ स्वर, पुनः एकस्वर में लयबद्ध हो रहा है। फिर कानों में जीजिविषा की एक अदम्य फुसफुसाहट भी तो हो रही है। फिर से इन आँखों को भी सत्य-सौंदर्य की दामिनी-सी ही सही कुछ झलकियाँ दिख रही है। उदास विचार मन से असम्बद्ध-सा उसाँस लेकर क्षीणतर होने लगा है। अरे! ये क्या ? स्नेह-शिशु के पैरों का थाप चारों ओर तीव्र-से-तीव्रतर होता जा रहा है। मानो स्नेह-शिशु का इसतरह से ध्यानाकर्षण, सहसा स्मृति के बाढ़ को ही इस क्षण के बाँध से रोक दिया हो।

                                     स्नेह-शिशु के इस जीवन से भरपूर, ऐसा प्रगाढ़ चुम्बन और आलिंगन में हृदय हो तो किसी भी अवांछित उद्वेग को, मन मारकर, दबे पाँव ही सही अपने मूल में लौटना ही पड़ेगा। तब चिरकालिक शीत-प्रकोपित अलसाये उमंगों को भी मुक्त भाव से मन में फूटना ही पड़ेगा। मृत-गत विचारों के बाहु-लता की जकड़ को ढीली करके, आकाश के विस्तार में फिर से हृदय को ऊँची छलांग लगाना ही होगा। कोई भी टूटा स्वर ही क्यों न हो सही पर,जीवन-गीत को नित नए सुर से गाना ही होगा। साथ ही जीवन के सरल सूत्रों के सत्य से, आंतरिक सहजता को आदी होना ही होगा। जब क्षण-क्षण परिवर्तित होते भाव-जगत् में भी भावों का आना-जाना होता ही रहता है तो ये उदासी किसलिए ? स्नेह-शिशु भी तो यही कह रहा है कि जब कोई भी भाव स्थाई नहीं है तो उसे पकड़ कर रखना व्यर्थ है और आगे की ओर केवल सस्नेह बढ़ते रहने में ही जीवन का जीवितव्य अर्थ है। 

Monday, January 10, 2022

जात न पूछो लिखने वालों की .........

जात न पूछो

लिखने वालों की

ख्यात न पूछो

न दिखने वालों की


रचना को जानो

जितना मन माने

उतना ही मानो

पर रचनाकार को 

जान कर क्या होगा?

उसको पहचान कर क्या होगा?

परम रचयिता कौन है?

सब उत्तर क्यों मौन है?

प्रश्न तो करते हो पर

उस परम रचनाकार को

क्या तुमने जाना है?

जितना जाने

उतना ही माना है

न जाने तो

बस अनुमाना है


जात न पूछो

लिखने वालों की

मिथ्यात न पूछो

न दिखने वालों की


यदि रचना में

कोई त्रुटी हो तो

निर्भीक होकर कहो

पर नि:सृत रसधार में

रससिक्त होकर बहो

और यदि

स्वाग्रह वश

बहना नहीं चाहते 

तो बस दूर रहो

मन माने तो

रचना को मानो

न माने तो मत मानो

पर रचनाकार को

जान कर क्या होगा?

उसको पहचान कर क्या होगा?


जात न पूछो

लिखने वालों की

अखियात न पूछो

न दिखने वालों की .

                  " भाषा जब सांस्कृतिक अर्थ व्यंजनाओं से निरंतर जुड़ कर समाज को शब्दों के माध्यम से सम्प्रेषित करती है तो सर्जनात्मकता अपने शिखर को पाती है । तब लिखने वाले माध्यम भर ही रह जाते हैं और हमारी भाषा स्वाधीनता की ओर अग्रसर होती है । "

         *** विश्व हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

Wednesday, January 5, 2022

कह तो दे कि वो सुन रहा है .….….

                        नियति के आश्वासन जनित,  अपरिभाषित आत्मीय संबंधों के स्मरणाश्रित अतिरेकी बातें, अस्तित्व विहीन हो कर भी, अकल्पित अर्थों को अनवरत पाती रहतीं हैं । वें पल-पल पर-परिणति को पाते हुए भी बनीं रहतीं हैं एक अपरिचित एकालाप-सी । नितान्त एकाकी होकर भी एकाकार-सी । अन्य विकल्पों से एक निश्चित दूरी बनाए हुए पर समानांतर-सी ।  एक ऐसे प्रश्न की भांति जो प्रश्न होने में ही पूर्ण हो । जिसे सच में कभी भी किसी उत्तर की कोई आवश्यकता होती ही नहीं हो । बस उन आत्मीय संबंधों में स्वयं को असंख्य कणों के आकर्षणों में पाना अविश्वसनीय आश्चर्य ही है ।        

                                  उन संबंधों को जीते हुए किसी से समय रहते हुए वो सब-कुछ नहीं कह पाने का एक गहरा परिताप सदैव सालता रहता है । समय रहते यदि वो सबकुछ कह दिया जाता जो अवश्य कह देना चाहिए था तो ............... । तो क्या नहीं कह पाने के पश्चाताप को दुःख से बचाया जा सकता था ? संभवतः नहीं । कारण वो सबकुछ,  जो आज उसके न होने पर,  कुछ अधिक ही स्पष्ट हुई है,  उसे जीते हुए अस्पष्ट ही थी । तो क्या कह देना चाहिए था उससे ? वो जो उस समय उसे अपनी अस्फुट धुन बनाये हुए जी रहे थे या अब उस धुन के बोलों को समझने में उलझते हुए जो कहना चाहते हैं । हाँ! उस समय भी कह देना चाहिए था और आज भी कह देना चाहिए कि तुम मेरी नियति के आश्चर्य हो, मेरे अस्तित्व-सा ।

                                        सच में, कोई भी रागात्मक संबंध रूपाकार होकर जीवन-छंद-लय को समूचा घेर लेता है । पर जीवन राग का कोई विरागी सहचर,  उससे भी गहरा होकर एक अरूपाकार आवरण बनकर,  कवच की भांति अस्तित्व को ही घेरे रहता है । कोई कैसे सम्वेदना का अनकहा आश्वासन बनकर हमारे भावना-जगत् में हस्तक्षेप करने लगता है । वह हमारी उन मूक संभावनाओं को सतत् सबल बनाता रहता है जिनकी हमें पहचान तक नहीं होती है । हम ऐसा होने के क्रम में  इतने अनजान होते हैं कि इस सूक्ष्म बदलाव के प्रति हमें ही आश्चर्य तक नहीं होता है । जब कभी आँखें खुलती है तो अपने ही इस रूप पर हम अचंभित रह जाते हैं । लेकिन धीरे-धीरे वह निजी जीवन में भी एक निश्चयात्मक स्वर बन कर अस्फुट वार्तालाप करने लगता है । हमें भरोसा दिलाता रहता है कि वह हर क्षण हमें दृढ़ता से थामें है और हम सुरक्षित हैं । 

                                          अब उसके नहीं होने के दुःख के साथ प्रायश्चित का दुःख भी भावों को नम किये रहता है । अब किससे कहना और क्या कहना ? जिससे कुछ कहना था वो मौन हो गया तो अब मौन में ही सबकुछ कहा और सुना जा रहा है । यदि वो अज्ञात से ही सही सुन रहा है तो ये मौन के शब्द उसे अवश्य वो सबकुछ कहते होंगे, जो कभी शब्दों में नहीं कहे जा सकते हैं । पता है, इन भींगे हुए शब्दों में भी उस दुःख की कभी समाई नहीं हो पाएगी । जब हृदय कहना चाहता था तो मस्तिष्क जनित द्वंद्व उसे कहने नहीं दिया । अब वही मस्तिष्क हृदय की पीड़ा को प्रबलता से प्रभावित कर रहा है । अब एक अंतहीन प्रतीक्षा है और एक अनवरत पुकार है । जिसे वह भी चुपचाप अनदेखा तो नहीं कर सकता है । संभवतः वह भी बोल रहा है कि पुनः मिलना होगा, अवश्य मिलना होगा ।  अटूट आस्था तो यही कहती है ‌।  उसकी ओर ही यात्रा भी हो रही है । अब वो सारी बातें उसे समय से कही भी जा रही है । बस एक बार ही सही वह कह तो दे कि वो सुन रहा है .….…