कभी-कभी इस सर्जक का क्रोध सातवें आसमान से भी बहुत-बहुत ऊपर चला जाता है। शायद बहुत-बहुत ऊपर ही कोई स्वर्ग या नर्क जैसी जगह है, बिल्कुल वहीं पर। हालाँकि उस जगह को यह सर्जक कभी यूँ ही तफरीह के लिए जाकर अपनी आँखों से नहीं देखा है। वह इसका कारण सोचता है तो उसके समझ में यही बात आती है कि वह दिन-रात अपने सृजन-साधना में इतना ज्यादा व्यस्त रहता है कि वहाँ जाने का समय ही नहीं निकाल पाया है। वर्ना वह भला रुकने वाला था। आये दिन वह बस यूँ ही मौज-मस्ती के लिए वहाँ जाता रहता और यहाँ आकर, मजे से आपको आँखों देखा हाल लिख-लिख कर बताता। हाँ! उस जगह के बारे में उसने बहुत-कुछ पढ़ा-सुना जरूर है। जिसके आधार पर उसने खूब कल्पनाएँ की है, खूब कलम घसीटी है और खूब वाद-विवाद भी किया है। फिर अपनी बे-सिर-पैर वाली तर्को से सबसे जीता भी है। वैसे आप भी जान लें कि यह वही जगह है जहाँ हमारे देवताओं-अप्सराओं के साथ-साथ हमारी पूजनीय पृथ्वी-त्यक्ताएँ आत्माएँ भी रहती हैं। अब कौन-सी आत्मा कहाँ रहती है ये तो सर्जक को सही-सही पता नहीं है। इसलिए वह मान रहा है कि सारी विशिष्ट आत्माएँ स्वर्ग में ही रहती होंगी और सारी साधारण आत्माएँ नर्क में होंगी। जैसी हमारी पृथ्वी की व्यवस्था है। अमीरों के लिए स्वर्ग और गरीबों के लिए नर्क।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस सर्जक को हमारे ऋषियों-मुनियों से भी बहुत ज्यादा क्रोध क्यों आता है? वैसे आप ये भी जान लें कि हमारे वही पूर्वपुरुष, श्रद्धेय ऋषि-मुनि जो प्रथम सर्जक भी हैं और जिनकी हम संतान हैं। तो उनका थोड़ा-बहुत गुण-दोष हममें रहेगा ही। साथ ही उनके बारे में ये भी पढ़ने-सुनने में आता है कि वे यदा-कदा, छोटी-छोटी बातों पर भी अत्यधिक रुष्ट हो कर बड़ा-बडा श्राप दे दिया करते थे। वो भी बिना सोचे-समझे कि ये हो जाओ, वो हो जाओ, ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा वगैरह-वगैरह। अब लो! क्षणिक क्रोध के आवेश में तो जन्म-जन्मान्तर का श्राप दे डाले और बाद में अपने किये पर बैठकर पछता रहे हैं। फिर तो श्रापित पात्र उनका पैर पकड़ कर, क्षमा याचना कर-कर के उन्हें मनाये जा रहा है, मनाये जा रहा है। तब थोड़ा-सा क्रोध कम करके, वे ही श्राप-शमन का उपाय भी बताए जा रहे हैं। हाँ तो! बिल्कुल वैसा ही क्रोध लिए यह सर्जक भी स्वर्ग पहुँच कर अपने क्षणिक नहीं वरन् दीर्घकालिक क्रोध-शमन हेतु कुछ विशिष्ट आत्माओं को कुछ ऐसा-वैसा श्राप दे ही देना चाहता है। जिससे उसकी भी अव्यक्त आत्मा को थोड़ी-बहुत शांति मिल सके।
अब अगला सवाल यह उठता है कि सर्जक आखिर श्राप क्यों देना चाहता है? तो इस सर्जक का जवाब यह है कि उन विशिष्ट आत्माओं में से जितनी भी अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माएंँ हैं, पूर्व नियोजित षड्यंत्र कर के इस सर्जक से शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहीं हैं। वो भी पिछले हजारों सालों से। या फिर ये कहा जाए कि जबसे लिपि अस्तित्व में आई है तबसे ही। वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे सारे महाग्रन्थों की रचना हों या उसके बाद की समस्त महानतम रचनाएँ हों। सब-के-सब में, वो सारी-की-सारी सर्वश्रेष्ठ बातें लिखी जा चुकी हैं, जिसे यह सर्जक भी आप्त-वाणी की तरह कहना चाहता था। वैसे अब भी कहना चाहता है पर कैसे कहे? अपने कहने में या तो वह चोरी कर सकता है, या तो नकल कर सकता है या फिर लाखों-करोड़ों बार कही गई बातों को ही दुहरा-तिहरा सकता है। या फिर कुछ नयापन लाने के लिए अपनी बलबलाती बुद्धि और कुड़कुड़ाती कल्पना को खुली छूट दे कर, थोड़ा-सा उलट-पलट कर सकता है। लेकिन मूल बातों से खुलेआम छेड़छाड़ तो नहीं कर सकता है। आखिर उसकी भी तो एक बोलती हुई आत्मा है जो निकल कर पूछेगी कि सृजन के नाम पर तुम क्या कर रहे हो? अब आप ही बताइए कि यह क्रोध से उबलता सर्जक कैसे उन सबसे भी महान ग्रन्थ की रचना करे? अब वह ऐसा क्या लिखे कि युगों-युगों तक अमर हो जाए? आपको भी कुछ सूझ नहीं रहा होगा, ठीक वैसे ही जब इसे भी कुछ नहीं सूझता है तो असीमित क्रोधित होता है। फिर अपने क्रोध के कारण के मूल में जाकर बस श्राप ही देना चाहता है।
इसलिए यह सर्जक सीधे स्वर्ग जाकर उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं को चुन-चुनकर, उनके मान-सम्मान के अनुरूप, श्राप देते हुए कहना चाहता है कि इस कलि-काल में उन सबों को पुनर्जन्म लेना होगा। कारण हममें से किसी ने उन पूर्वकालीन सृजन को देखा तो नहीं है इसलिए सबकी आँखों के सामने फिर से कोई महानतम ग्रन्थ को रचना होगा। साथ ही आज के स्थापित सर्जनात्मक धुरंधरों से साहित्यार्थ कर जीतना भी होगा। अर्थात उन्हें वो सबकुछ करना होगा जिससे उनकी महानतम अमरता की मान्यता फिर से प्रमाणित हो सके। यदि वें ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अर्थों का अनर्थ सदा होता रहेगा और उन्हें इस सर्जक के श्राप से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी।
शायद तब उन्हें पता चले कि इस अराजक काल में बकवादियों से जीतने के लिए या सर्वश्रेष्ठ सृजन के लिए कैसा-कैसा और कितना पापड़ बेलना पड़ता है। या फिर वें ये समझ जाएंगे कि पापड़ बेलना ही साहित्य से ज्यादा अर्थपूर्ण है। शायद उन्हें ये भी पता चले कि "भूखे सृजन न होई कृपाला"। तब शायद वें अति खिन्नता में, साहित्य से ही विरक्त हो कर कलम रूपी कंठी माला का त्याग कर, पेट के लिए कोई और व्यवसाय ढूँढ़ने लगेंगे। फिर तो यह सर्जक, इस चिर-प्रतीक्षित सुअवसर का झट से लाभ उठा कर, वेद-उपनिषद से भी उत्कृष्ट कृति का, यूँ चुटकी बजाकर सृजन कर देगा। क्या बात है ! क्या बात है ! उसे यह सोच कर ही इतनी प्रसन्नता हो रही है कि वह बावला हो कर, खट्-से अपनी कलम को ही तोड़ डाला है। फिर भी सोचे ही जा रहा है कि उसका बस एक श्राप फलित होते ही, वह कम-से-कम एक सर्वोत्कृष्ट सृजन कर, युगों-युगांतर तक उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं से भी कुछ ज्यादा अमर हो जायेगा।
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ReplyDeleteआज तो सर्जक धरती की नहीं स्वर्ग नर्क की बात कर रहा है .... वैसे कहा गया है कि अब कोई नयी कहानी नहीं होती सब लिखी जा चुकी हैं ...बस अदल बदल कर ही लेखक लिखते हैं और वाहवाही ले लेते हैं . जिसकी गोटी फिट बैठ जाती है वो महान साहित्यकार हो जाता है .... तो हे सर्जक क्रोध को त्यागें और धरती पर ही रचना धर्म करें .... हमारे लिए आप ही विशिष्ट और अति विशिष्ट हो ... बस श्राप न दे देना .....
ReplyDeleteबिना नाम लिए न जाने किस किस को लपेट लिया ....
आपकी लिखी रचना सोमवार. 31 जनवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
हा हा गजब :)
ReplyDeleteवाह ! बहुत रोचक अंदाज, अमरता प्राप्त करने के लिए श्राप तक देने को तैयार हैं आप, सोच लीजिये, एक कवि की आत्मा क्या ऐसा करने देगी, यदि मौका मिला तो आपकी कलम से वरदान ही बरसेंगे। दूसरी बात, जब राम न जाने कितनी बार आ चुके तब ऋषि मुनि भी आते ही रहेंगे, और कौन जाने आपके रूप में कोई ऋषि आत्मा ही इस धरा पर आयी हो. तीसरी बात, यहाँ दो पत्ते भी एक जैसे नहीं होते फिर आप जो भी कहें, आपका अंदाज सबसे निराला ही रहेगा।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (31-01-2022 ) को 'लूट रहे भोली जनता को, बनकर जन-गण के रखवाले' (चर्चा अंक 4327) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
इस अराजक काल में बकवादियों से जीतने के लिए या सर्वश्रेष्ठ सृजन के लिए कैसा-कैसा और कितना पापड़ बेलना पड़ता है। या फिर वें ये समझ जाएंगे कि पापड़ बेलना ही साहित्य से ज्यादा अर्थपूर्ण है। शायद उन्हें ये भी पता चले कि "भूखे सृजन न होई कृपाला"।
ReplyDeleteसार्थक रचना..
एक बार और पढ़ूँगी डेस्कटॉप में
सादर नमन
वाह,आज के सर्जक की मनोवृत्ति का क्या विश्लेषण किया है!
ReplyDeleteधारदार लेखन , व्यंग्य के साथ तंज भी तेज है।
ReplyDeleteकहने का माध्यम कुछ भी हो पर सृजनकार की भटकती आत्मा को श्राप देने का अधिकार मिल जाए तो क्या ही अच्छा हो...
विस्तृत लेख में तथ्य जो आपने उठाते हैं अमृता जी सब टटके हैं कोई महान सृजक ये सब नहीं कहकर गया है।
लगता है पहले भटक कर श्राप दें आईं आप और लेखनी से ये अद्भुत अद्वितीय सृजन हो गया।
सस्नेह साधुवाद।
वाह ...
ReplyDeleteअभिव्यक्ति का ये भाव भी बेहद रोचक और लाजवाब है ...
"सारी-की-सारी सर्वश्रेष्ठ बातें लिखी जा चुकी हैं, जिसे यह सर्जक भी आप्त-वाणी की तरह कहना चाहता था।", अब इस दुनिया में सर्वश्रेष्ठ तो एक वही है, जो कल भी मौन था आज भी मौन है, तो सर्वश्रेष्ठ तो मौन ही हुआ, इस मौन को जो कोई कह सके तो वही अमर हो गये
ReplyDeleteवाह!वाह! लाज़वाब दी 👌
ReplyDeleteगज़ब करते हो यार कैसे लिख लेते हो मुझे तो लगता है आपके लेखन से प्रेम हो जायेगा।
सादर
कलि-काल में उन सबों को पुनर्जन्म लेना होगा। कारण हममें से किसी ने उन पूर्वकालीन सृजन को देखा तो नहीं है इसलिए सबकी आँखों के सामने फिर से कोई महानतम ग्रन्थ को रचना होगा। साथ ही आज के स्थापित सर्जनात्मक धुरंधरों से साहित्यार्थ कर जीतना भी होगा। अर्थात उन्हें वो सबकुछ करना होगा जिससे उनकी महानतम अमरता की मान्यता फिर से प्रमाणित हो सके। यदि वें ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अर्थों का अनर्थ सदा होता रहेगा और उन्हें इस सर्जक के श्राप से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी।"
ReplyDeleteइतना घोर शाप... ऋषि दुर्वासा भी नत मस्तक हो जाएंगे इस सर्जक के समक्ष । आपकी सृजनात्मक शैली को नमन अमृता जी ।
वाह!!!
ReplyDeleteसर्जक का श्राप!!!
बहुत ही धारदार , अद्भुत एवं विचारोत्तेजक
लाजवाब लेख।
"सृजक का श्राफ" बहुत खुब..जब सृजनकर्ता और सृजन भी श्राप देने लगें तो सृजन का स्तर ही गिर जाएगा। वाकई विचारणीय लेख,सादर नमन आपको
ReplyDelete😀😂😀😀👌👌 अब सर्जक से कौन कहे, कलयुग में शाप की परम्परा निरस्त हो गई। यहां पापी फूले-फले और धर्मी गले -- का नवविधान लागू हो गया है। जब ऋषि मेधाओं ने वेद रचे थे तब उनका मसला मात्र उदरपूर्ति थी। तब खाने के लिए विशुद्ध ऑर्गेनिक कंद मूल फल सुलभ थे, तो रहने को पर्णकुटी । आज तो रोटी,कपड़ा और मकान जेसे ढेरों मसले हैं। उसके बाद अपने लिए मौलिक विचार ढूंढने में चारों खाने चित्त !!मनुवा कहां से गढ़े कालजयी सृजन! सो, हे सर्जक शाप मुल्तवी कर चैन की बंशी बजा कर आनन्द मगन रहो। फेसबुक, ट्विटर और इंस्टा पर भ्रमण कर पल भर में विश्व यात्रा का आनन्द लो।
ReplyDeleteबेहतरीन शैली में अत्यन्त मनमोहक और शानदार व्यंग्यलेख अमृता जी।🙏🙏
काल कोई भी हो सर्वश्रेष्ठ कृति की लोलुपता ही तो सर्जक की लेखनी की जीवंतता है वरना कुछ अच्छी कृतियों पर मिली सराहना की चाशनी में डूबकर सर्जक की लेखनी फिर चलने के लायक ही न बचेगी है कि नहीं:))
ReplyDeleteअरे भई क्रोध में आकर श्राप देना पुराना ट्रेंड है लेटेस्ट ट्रेंड हैं ब्लॉक कर दो जो आपके मनलायक न कहे:))
आपकी लेखनी यूँ ही चलती रहे।
शुभकामनाएँ।
सस्नेह
बहुत बढियां सृजन
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteरोचक लगा
Seriously! So true! :)
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