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Sunday, June 30, 2013

आने वाला युग पढेगा हमें...

आने वाला युग भी पढ़ता रहेगा हमें
जैसा कि अबतक पढ़ते आ रहे हैं हम
प्रकारान्तर में हर पिछले युग को
या तो विरोधों पर आपत्तिजनक विरोध दर्ज करके
या फिर एक जटिल साम्य की खोज करके

उन अनपढ़ी लिपियों पर चिपके हुए
भुरभुरे भावाश्मों को खुरच-खुरच कर
एक संकीर्ण शोध की सतत प्रक्रिया से
अपने व्याख्यायों के परिणाम को
अपने ही तर्कों से प्रमाणित करते हुए
या फिर वतानुकूलीय विभिन्नताओं में पैदा होते
अनचीन्हे जीवाणुओं-विषाणुओं से उत्पन्न
प्रतिलिपियों के सूक्ष्म संक्रमण के
वस्तुनिष्ठ तथ्यों को यथासंभव प्रस्तुत करके
या फिर सांस्कृतिक गरिमा के प्रति
बहुआयामी भावनाओं को स्फुरित करने वाले
नई लिपियों के प्रतिरोधक तंत्रों को
अपनी गली उँगलियों पर ही सही
समय की स्याही से ठप्पा लगाते हुए

आने वाला युग भी पढ़ता रहेगा हमें
जैसा कि अबतक पढ़ते आ रहे हैं हम
एक विश्लेष्णात्मक औपचारिकता का निर्वाह करके
अनुकरण-पुनरावृत्तियों में घुले लवणों को
अपने बौद्धिकीय चुम्बक से सटाते हुए
संभवत: कुछ दूर तक ही सही
समकालीन नैतिकता को नई परिभाषा मिले
या फिर नियति के त्रासदी को कोई
प्रमाणिक हस्ताक्षर ही मिल जाए
और बुढ़ाई खांसियों का इतिहास
अपने गले के खरास से निजात पाए
व यहाँ-वहाँ फेंके अपने बलगम पर
सूखे हुए खून के धब्बों की गवाही में
हर अगला युग को वैसे ही खड़ा पाए
जैसे कि आज हम खड़े हैं .



Saturday, June 22, 2013

हे महाकाल !

ताण्डवमत्त हे महाकाल !
प्रत्येक शिरा को
चकित-कम्पित करता हुआ
तेरा ये कैसा अट्टहास है?
कि शत-शत योजनों तक
हिम पिघल कर तेरे चरणों पर ही
ऐसे लोट रहा है
देखो तो ! विध्वंस का उद्दाम लीला
हर व्याकुल-व्यथित ह्रदय को
स्मरण मात्र से ही कैसे कचोट रहा है....
तुम्हारा दिया ये घोर दु:ख
तुम्हारे ही प्रसन्न मुख को
इसतरह से क्लांत कर रहा है
कि प्रत्यक्ष महाविनाश
तेरे अप्रत्यक्ष महासृजन को ही
रौंदता- सा दिख रहा है
और समस्त अग-जग को
बड़ी वेदना में भरकर
तुमसे ही पूछने के लिए
विवश भी कर रहा है कि
तेरा ये कैसा उद्दत पौरुषबल है ?
जो अपने ही आश्रितों से ऐसा
अवांछनीय व्यवहार करता है....
क्यों निर्मम , निर्मोही-सा
क्षण भर में ही सबको
जिसतरह से नष्ट कर देता है कि
ठठरी कांपती रह जाती है
त्राहि-त्राहि करती रह जाती है....
एक तरफ तुम्हार कठोर चित्त
दूसरी तरफ सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का
केवल उद्भव और विनाश के लिए ही
विवशता और बाध्यता....
ओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
फिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
रुको महाकाल !
क्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !


  

Saturday, June 15, 2013

इसलिए मैं रुकी हूँ ...

इसलिए मैं रुकी हूँ
कि मुझे तेल से पोसा हुआ
एक मजबूत डंडा चाहिए
और शोर-विहीन
बड़ा सा डंका चाहिए...
अपना हुनर तो दिखा ही दूंगी
व बड़े-बड़े महारथियों को
धकिया कर धूल चटा ही दूंगी..
हाँ! अपनी हिम्मत को बटोरने में
बस थोड़ी हिम्मत ही जुटानी है
फिर तो
अपना और अपने बाप का
टैक्स चोरी करने के लिए
किसी से कुछ पूछना थोड़े ही है
इसके लिए अपने को
कोई कच्चा-पक्का सा
आश्वासन ही तो देना है
और दुनिया को दिखाने के लिए
किसी भी नकली कार्ड पर
लम्बी लाईन में लगकर
सड़ा हुआ राशन ही तो लेना है.....
साथ ही उन आयकर वालों को
भुना हुआ चना बनाकर चबाना है
और किसी विशेष श्रेणी की
सारी सुविधाओं को कैसे भी जुटा कर
अपना एक सुरक्षा घेरा बनाना है
ताकि मैं दम भर चोरी कर सकूँ
सबके हिस्से का भी मजा लूट सकूँ....
दिल की कहूँ तो
विशुद्ध ईमानदारी भी तो कोई चीज़ है
इसलिए एक-दूसरे को
उस कटघरे से भी बचाना है
फिर तो हमारी तिजोरी देखकर
सब ज्यादा से ज्यादा यही कहेंगे कि
अपने सीधे किये आँगन में
हम खूबसूरत पैर वाले
ठुमकते-मटकते मोर हैं
और हमें भी अपना सच कहने में
कोई शर्म नहीं है कि
अब अपने हयादार हमाम में
हम सब वैसे नंगे तो नहीं हैं
पर चिलमन पर चिलमन चढ़ाकर
खुले चरागार में चरते हुए
बड़े ही चालाक चोर हैं .


Monday, June 10, 2013

ऐसी की तैसी ....




उनकी प्रवीणता ही ऐसी है कि
जहाँ काँटा न भी हो
वहाँ भी तकनीक को घुसाकर
ऐसे गड़ा देते हैं कि
पैर तो आपस में उलझते ही हैं
साथ में अंग-प्रत्यंग भी
बहिष्कार का कोमल हथियार
हवा में यूँ ही लहरा लेते हैं

मुद्दे की तो ऐसी की तैसी
ये बहस ही है तो फिर सार्थक कैसी ?

उनकी कुशलता ही ऐसी है कि
मेजों-कुर्सियों को ऐसे सरका देते हैं
कि भारी बहुमत देखकर ही
कथ्य-प्रयोजन भी चुप्पी लगा जाते हैं
फिर तो अगल-बगल के सब
आत्मबलिदानी-सा आगे बढ़कर
अपने माथे पर कलंक-टीका
बड़े गर्व से सजा लेते हैं

विरोधों के नक्कारखाने की ऐसी की तैसी
जहाँ जूता-जूती हो वहाँ तूती कैसी ?

उनकी सफलता ही ऐसी है कि
मजाक में भी बेमेल तालमेल
मिल-बैठकर बिठा लेते हैं
और मजबूती से खड़े ढाँचे से
अपने हिसाब से ईंटों को खिसका देते हैं
जब बेचारी बेबस बुनियाद
बुबकार मारती है तो
नकली चाँद से भी बहला लेते हैं

बन्दरबाँट नियत की ऐसी की तैसी
फिर तो नक्कालों से उम्मीद ही कैसी ?

उनकी सरलता ही ऐसी है कि
संतगिरी के जूसी जुमले से भी
जेबकतरों को सहला देते हैं
जब गिट-पिट हद तोड़ने लगती है तो
जुलाब की गोलियाँ भी खुद ही
चुपके से चबा ऐसे लेते हैं
फिर तो गाली-गुफ़्ता थोक में मिले
या कि मिलती रहे तालियाँ
सबको ही ठिकाने लगा आते हैं

उन जीती मक्खी खाने वालों की ऐसी की तैसी
और उनके लिए तो ये है बस चंडूखाने की गप जैसी .



Wednesday, June 5, 2013

वह प्रसून-प्रसूता है ...




वह अकेली है
छबीली है
निगरी है
निबौरी है
जितनी कोमल
उतनी जटिल
जितनी सहज
उतनी कुटिल
तरल-सी है
पर जमी हुई
पिघला कर
बहा देती है
अपने किनारे
लगा लेती है
निचुड़ कर
निचोड़ लेती है
शब्द-सिन्धु में
अक्षर-हंस सा
छोड़ देती है...

वह अकेली है
हठीली है
निहत्थी है
निरंकुश है
विरोधी यथार्थ का
प्रतिरोध करती है
जोखिम उठाकर
शिकार बनाती है
मुटभेड़ से
कोहराम मचाती है
घमासान का
घाव सहलाती है
विवशताओं के बीच
जगह बनाती है
असहमत होकर
उम्मीद जगाती है
व्यवहार-आग्रह से
नया छंद खोजती है
घोर असंतोष में
संतोष-गीत गाती है
नितांत बंजर पर
अमरबेल उगाती है...

वह अकेली है
उर्वीली है
नियोगी है
निरति है
हर चिंता की
वह चुनौती है
हारे मन की
वह मनौती है
पर काँटों के लिए
वह करौती है
वह प्रसून-प्रसूता है
हाँ! वह कविता है .

Saturday, June 1, 2013

अँगारा को जगाना है ...




निरे पत्थर नहीं हो तुम
अतगत अचल , निष्ठुर , कठोर
आँखें मूंदे रहो , युग बीतता रहे
किसी सिद्धि की प्रतीक्षा में
या किसी पुक्कस पुजारी की दया-दृष्टि
तुम पर ऐसे पड़े कि तुम सहज ही
अवगति को उपलब्ध हो जाओ
और उसके ओट में अपने खोट का
खुलेआम बोली लगाओ
फिर उसके बाजारू वरदान से
उसके मंदिरों की शोभा बढ़ाओ
ताकि पत्थर ह्रदय जरूर खींचे आयें
फूलों से तुम्हें ही चोट दे जाए

या तुम वो पत्थर भी नहीं हो
जो अपना भविष्य , प्रतिभा और शक्ति लिए
किसी के चरण पर लोट जाए
उसकी अवांछित ठोकर से बस चोट खाए
वह तुम्हारा उपयोग करते हुए
अपने रास्ते पर सजा ले
व तुमपर मुधा मुक्ति का
चीवर चढ़ा कर खुद भोग का मजा ले
तुम उसकी भक्ति में सब भूलकर
उसकी मदारीगिरी की महिमा का गान करो
उसके बजाये डमरू पर खूब नाचो
और उसके फूंके मंत्र से राख समेटो

यदि सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण अभ्यास करके
आत्मपीड़न हेतु पत्थर ही होना चाहते हो तो
वो पारस पत्थर नहीं हो पाओ
तो कोई बात नहीं
खुद को परख लो तो हीरा हो जाओ
यदि नहीं तो अपने कोने-कातर में दबी
चिंगारियों को रगड़ तो सकते हो
एक आग तो पैदा कर सकते हो
और जड़ पत्थर के छाती को कुरेद कर
अपने धुंधकारी आँच से धधका तो सकते हो
या तो वह अपनी कुरूपताओं की अंगीठी में
अँधेरा समेत पूरी तरह से जल जाए
या फिर उल्कापाती अँगारा हो जाए

आज ही इस महाप्रलयी अँधेरा को हराना है
हाँ ! अँगारा होकर अँगारा को जगाना है .