ताण्डवमत्त हे महाकाल !
प्रत्येक शिरा को
चकित-कम्पित करता हुआ
तेरा ये कैसा अट्टहास है?
कि शत-शत योजनों तक
हिम पिघल कर तेरे चरणों पर ही
ऐसे लोट रहा है
देखो तो ! विध्वंस का उद्दाम लीला
हर व्याकुल-व्यथित ह्रदय को
स्मरण मात्र से ही कैसे कचोट रहा है....
तुम्हारा दिया ये घोर दु:ख
तुम्हारे ही प्रसन्न मुख को
इसतरह से क्लांत कर रहा है
कि प्रत्यक्ष महाविनाश
तेरे अप्रत्यक्ष महासृजन को ही
रौंदता- सा दिख रहा है
और समस्त अग-जग को
बड़ी वेदना में भरकर
तुमसे ही पूछने के लिए
विवश भी कर रहा है कि
तेरा ये कैसा उद्दत पौरुषबल है ?
जो अपने ही आश्रितों से ऐसा
अवांछनीय व्यवहार करता है....
क्यों निर्मम , निर्मोही-सा
क्षण भर में ही सबको
जिसतरह से नष्ट कर देता है कि
ठठरी कांपती रह जाती है
त्राहि-त्राहि करती रह जाती है....
एक तरफ तुम्हार कठोर चित्त
दूसरी तरफ सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का
केवल उद्भव और विनाश के लिए ही
विवशता और बाध्यता....
ओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
फिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
रुको महाकाल !
क्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !
प्रत्येक शिरा को
चकित-कम्पित करता हुआ
तेरा ये कैसा अट्टहास है?
कि शत-शत योजनों तक
हिम पिघल कर तेरे चरणों पर ही
ऐसे लोट रहा है
देखो तो ! विध्वंस का उद्दाम लीला
हर व्याकुल-व्यथित ह्रदय को
स्मरण मात्र से ही कैसे कचोट रहा है....
तुम्हारा दिया ये घोर दु:ख
तुम्हारे ही प्रसन्न मुख को
इसतरह से क्लांत कर रहा है
कि प्रत्यक्ष महाविनाश
तेरे अप्रत्यक्ष महासृजन को ही
रौंदता- सा दिख रहा है
और समस्त अग-जग को
बड़ी वेदना में भरकर
तुमसे ही पूछने के लिए
विवश भी कर रहा है कि
तेरा ये कैसा उद्दत पौरुषबल है ?
जो अपने ही आश्रितों से ऐसा
अवांछनीय व्यवहार करता है....
क्यों निर्मम , निर्मोही-सा
क्षण भर में ही सबको
जिसतरह से नष्ट कर देता है कि
ठठरी कांपती रह जाती है
त्राहि-त्राहि करती रह जाती है....
एक तरफ तुम्हार कठोर चित्त
दूसरी तरफ सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का
केवल उद्भव और विनाश के लिए ही
विवशता और बाध्यता....
ओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
फिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
रुको महाकाल !
क्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !
मत दो विनाश के कंप सतत,
ReplyDeleteमन हो जायेगा प्रकृति विरत।
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
ReplyDeleteउस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !
रुको महाकाल !
क्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !
घोर कष्ट का समय है ....करम गति टारे नाहीं टरी....अपनी किस्मत के साथ, अपने प्रारब्ध को सभी को जीना ही पड़ता है ...किन्तु ये समय का अंत तो नहीं ....हमारी सेना के वीर जवान देखिये कैसे बचाव कार्य में लगे हैं ....हम सभी आम मनुष्य बस प्रार्थना ही कर सकते हैं ....ईश्वर ऐसी आपदा से हर किसी को बचाए .....!!जो पीड़ा देता है ...वही पीड़ा हरने की शक्ति भी देता है इसीलिए उसी के शरण में जाना ही श्रेयस्कर है ....
बहुत सुंदर लिखा है ......!!
.
सुन्दर आह्वान. सर्जक खुद से हमें विसर्जित करना चाह रहा है और हम मूकदर्शिता के अलावा कर भी क्या सकते उसके बलिष्ट भुजाओं के आगे.
ReplyDeleteओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
फिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
सर्जक यह व्यवहार अतिविचलित करता है.
आपकी यह पोस्ट आज के (२२ जून, २०१३, शनिवार ) ब्लॉग बुलेटिन - मस्तिष्क के लिए हानि पहुचाने वाली आदतें पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
ReplyDeleteजैसे किसी कैनवास पर बने
ReplyDeleteनदी व आसपास के मकान
कोई उपर से थोड़़ा पानी बहा दें
जैसी दिखेगी वह पे-िन्टग
वैसा वृतचित्र आपकी कविता ने बनाया
"बहुत बढि़या"
बहुत सुन्दर........सृष्टा ही विनाश भी लाता है......परन्तु निसंदेह वो ही जानता है और हम नहीं जानते ।
ReplyDelete"बहुत बढि़या आपकी कविता"
ReplyDeleteसामयिक वंदना ..
ReplyDeleteआभार !
कुदरत की विनाशलीला के आगे इंसानों का वश कहां चलता है.....।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुतिकरण,आभार।
ReplyDeleteहे महाकाल !
ReplyDeleteतुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !
काश ऐसा ही हो जाये.
रामारम
सच्चाई को शब्दों में बखूबी उतारा है आपने .उम्दा प्रस्तुति आभार गरजकर ऐसे आदिल ने ,हमें गुस्सा दिखाया है . आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteअमीन ... हे महाकाल अब रक्षा करो ...
ReplyDeleteजहान इंसानी दाव बेकार हो जाते हैं वहां कुदरत का करिश्मा ही काम आता है ...
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-06-2013) के चर्चा मंच -1285 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत बढि़या .उम्दा प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteसर्वे भवनतु सुखिना ...
ReplyDeleteजब सृजन कर्ता ही विनाश पर उतार आए तो ऐसी ही विनाशलीला होती है ... शायद सबक सिखाने के लिए उसने यह सब किया हो ... आपकी प्रार्थना में हम भी शामिल हैं ।
ReplyDeleteशिव का तांडव ही शायद प्रकृति से छेड़छाड़ ना करने का सन्देश लोगों में पहुंचा सके.
ReplyDeleteसामयिक और सार्थक.
bahut sunder bhaktipurn prastuti.
ReplyDeleteबहुत बढि़या
ReplyDeleteउत्तराखंड की त्रासदी इस बात का संकेत है कि हम इंसान इन आपदाओं व विनाशलीलाओं के आगे कुछ नहीं कर सकते हैं... सिर्फ हाथ जोड़कर प्रार्थना के.... जीवन और मौत की डोर जिनके हाथ में है, उनके खेल बड़े निराले व क्रूर है.....अब सिर्फ अर्जी ये है कि हे महादेव, अब तो सहज हो जाओ.......
ReplyDeleteअनुपमाजी ने सही कहा कि-जो पीड़ा देता है ...वही पीड़ा हरने की शक्ति भी देता है इसीलिए उसी के शरण में जाना ही श्रेयस्कर है ....
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रुको महाकाल !
ReplyDeleteक्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
प्रकृति या ईश्वर , रहम करें !
ReplyDeleteप्रार्थना में शामिल है हम भी !
सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteसुन्दर और अर्थपूर्ण कविता |
ReplyDeleteप्रकृति के अपने रास्ते हैं
ReplyDeleteओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
ReplyDeleteफिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
रुको महाकाल !
बहुत बढि़या .उम्दा प्रस्तुति आभार
behtareen, bhavmayi rachna !
ReplyDeleteसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteसार्थक रचना !
ReplyDeleteमहाकाल को रूकने का आह्वान आपकी ताकत को प्रकट करता है। प्रकृति सबसे ताकतवर है महाकाल रूप में। शिव हो न हो पर प्रकृति जरूरी है। इंसान की सुन्न आंखें उसका रौद्र रूप केवल देख सकती है। जरूरत है मिन्नतों की अपेक्षा, ईश्वर भरौसे रहे बिना आंखें खोल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचने की। केदारनाथ आह्वान है और बिना सुरक्षा के इंतजाम किए भगवान भरौसे वहां या वैसी जगहों पर जाना खतरों से भरा है। हमारी सुरक्षा का ठेका महाकाल शिव या ईश्वर ने थोडे ही लिया है। हमारे देश में फैशन बन चुका है कि सबकुछ हम करते हैं और उंगली उठाते है ईश्वर पर। बेचारा मूर्ति से बाहर आकर जवाब नहीं दे सकता ना। अगर मूर्ति से बाहर आ जाता तो थप्पडों से हमारे गाल लाल करने में वह कोई कसर नहीं छोडता। सरकार को दोष देना, ईश्वर को दोष देना बडा आसान बन गया है। बेवजह की भीड, तीर्थ यात्राएं, मंदिरों के आसपास होम हवन से बचे सामान को फेंक गंदगी फैलाना, प्रकृति पर आक्रमण करना कोई इंसान से सीखे। खुद हजारों अपराध कर भगवान को कटघरे में खडा करना अन्यायकारक है। रक्षा का आह्वान किया जा सकता है पर वह महाकाल को नहीं तो भीतरी सजगता वाले शिव को। अमरिता जी आपकी कविता के माध्यम से जो मन में आया ईमानदारी से लिख डाला है। आपमें क्षमता है क्षमता है भीड को आह्वान करने की, जरूरत है बकरी बन खाई में अंधा बन अनुकरण करने वाली 'भीड'का आह्वान करने की, आप कर सकती है।
ReplyDeleteरक्षा का आह्वान किया जा सकता है पर वह महाकाल को नहीं तो भीतरी सजगता वाले शिव को। अमरिता जी आपकी कविता के माध्यम से जो मन में आया ईमानदारी से लिख डाला है। आपमें क्षमता है क्षमता है भीड को आह्वान करने की, जरूरत है बकरी बन खाई में अंधा बन अनुकरण करने वा ली 'भीड'का आह्वान करने की, आप कर सकती है। प्रिये महानुभाव ,आपके कॉमेंट्स को देख कर मै उत्साहित हुआ.धर्म के इस नकली पाखण्ड को झकझोरने की आवश्यकता है.आप जैसे प्रबुध लेखक इस जर जर समाज को जग सकते हैं.यथास्थिति की चर्चा तो समाचार पत्रों मेंअ होती ही है , n पर जगाया तो बिचारको ने ही है.माध्यम कविता हो या लेख बिचारोंअ की अभिब्यक्ति.आपने बहुत ही महत्वपूर्ण कोमेट किया है .अमृता जी को अपनी काब्य शक्ति का उपयोग भी इसी सन्दर्भ करना चाहिए.,मैंने इसलिए भी आपकी बहुमूल्य कोमेंट को उधृत कर दल है.
Deleteवीर सिन्हा जी आभार अमरिता जी की कविता के माध्यम से सार्थक संवाद करने के लिए। आशा है अमरिता जी के पाठक कविता के साथ कमेंट पर भी सोचे और अपनी अंतरात्मा को जगाए।
Deleteso nice post HAR HAR MAHADEW
ReplyDeleteमहाकाल श्रजन करता हैं वो कभी अपनी रचना को क्षति नहीं करते ,ये तो हम है जो मूक भगवान को अपने कर्मों का दोष देते है .डा विजय शिंदे का आवाहन स्वागत योग्य है और विच्र्नीय भी. कब तक हम भगवान को दोषी मानते रहेंगे ...
ReplyDeleteबहुत सार्थक अभिव्यक्ति .......!!दुःख होने पर तो भगवन को ही पुकारते है चाहे गलती हम इंसान से क्यों नहीं हुई हो .
ReplyDeleteहम गलत हैं, इसका दण्ड तो भुगतना ही पड़ेगा।
ReplyDeleteलाजवाब भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मानवता अब तार-तार है
क्यों निर्मम , निर्मोही-सा
ReplyDeleteक्षण भर में ही सबको
जिसतरह से नष्ट कर देता है कि
ठठरी कांपती रह जाती है
त्राहि-त्राहि करती रह जाती है....
सार्थक अभिव्यक्ति ...सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
यह कातरता क्यों ? वह ईश्वर भी कुछ नहीं कर सकता शायद। मिटना हमारी नियति है, हमें मिटते देखना उसकी। मिटेंगे भी पूरी गरिमा के साथ।
ReplyDeleteविध्वंस का उद्दाम लीला में का के स्थान पर की हो तो कोई समस्या? शेष आप जैसा उचित समझें। मुझे लगता है कि लीला को स्त्री लिंग ही माना जाय तो ज्यादा अच्छा रहे ।
ReplyDeleteरक्षा करो! निश्चित ही ऐसा आह्वान होना चाहिए। परन्तु प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते मनुष्य को प्रकृति की रक्षा का यज्ञ-यत्न भी सीखना पड़ेगा, अन्यथा ये आह्वान उस महाकाल से सुनी कैसे जाएगी!
ReplyDeleteरुको महाकाल !
ReplyDeleteक्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो
khoobsoorat rachana aur sundar bhav .....sadar aabhar .