आँधियाँ तो चल रही है
चुपचाप ही सही
बोझिल-सी , डगमगाती-सी
बिना सन सन सन के
तुम्हारे ही बंद दिशाओं में...
प्राणों में पुंजित पीर है
नयन में नेही नीर है
हिम-दंश सहता ये ह्रदय-हवि
अभी तक जमा नहीं है
साँसों का गीत भी थमा नहीं है...
जो तुम्हारे सागर पर
उत्पीड़ित धूप-सा जलता रहेगा
अपने काँधे पर तुम जाल फैलाए रहो
तो भी तुम्हारे सतह पर पिघलता रहेगा....
आँधियाँ कल जो इधर आ रही थी
अब भी उड़ती है , फड़फड़ाती है
तुम्हारे ही बंद आकाश में
कबतक रोके रहोगे उसे प्रस्तर-पाश में ?
चाहो तो मना कर दो
उन पत्तियों को कि चुटकियाँ न बजाये
उन डालियों को कि चुटकियाँ न ले
और उन तरु-वृंदों को कि चुटकियों में न उड़ाये
आँधियों के इंगित को
इंगित के उन अंत:स्वर को
जो मन्त्र-भेद करता है ...
आँधियाँ है बहती रहेंगी
चुपचाप ही सही
तुम्हारा दिया पीर भी सहती रहेंगी
चुपचाप ही सही
जिसकी पड़पड़ाहट सुन कर
चिड़ियों से चुक-चुक , चिक-चिक चहकेंगी ही
उन मुरझाई कलियों से
किलक कर कुसुमावलि फूटेंगी ही....
तुम लाख उन्हें रोकने की ठानो
या उनके इंगित को मानो न मानो
पर चुपचाप ही सही
आँधियों का धर्म ही है बहना
जो जानती नहीं है कभी थमना...
यदि थम गयी तो स्वयं ही हाँफने लगेंगी
और उस अंतगति की उपकल्पना मात्र से ही
ये पूरी सृष्टि कलप कर काँपने लगेगी .