'' सुमन-शय्या पर लेटे-लेटे
मालपुआ चाभने वालों के
श्री मुख से केवल
मेवा-मिष्ठान ही झड़ता है ''
भला बताइए तो
इसकी व्याख्या का प्रसंग निर्देश
अनिवार्य अंग है या नहीं ?
साथ ही इसके कार्य-कारण का
पुर्न-पुर्न व्याख्या करने हेतु
हममें-आपमें अब भी वो उमंग है या नहीं?
ये प्रश्न हमें हर प्रसंग में
स्वयं से करते रहना चाहिए
व सत्य से विमुख हुए बिना
स्वीकार भी करते रहना चाहिए कि
हमसे-आपसे समीक्षित
संदर्भगत संक्षिप्त भूमिका भी
उसके मूलभाव से कोसों दूर रहती है
और हम देखते रहते हैं कि
हमारी बेबस व्याख्या
सुमन-शय्या और मालपुए के
व्यूह में ही कैसे उलझती है ....
तब तो बस यही कहा जा सकता है कि
अपने कर्मक्षेत्र में बिन वंशी के हम
ता-ता थय्या करने वाले क्या जाने
वो सुमन-शय्या कैसे सजता है ?
और सिर के ऊपर बहते अभाव में
बस कलम चला-चला कर क्या माने
कि वो मालपुआ कैसा दिखता है ?
आइये ! हम इन बड़ी-बड़ी बातों में
अपने लिए छोटी बात छाँट लेते हैं
मज़बूरी का नाम कहीं शब्द न हो जाए
इसलिए ये छोटी बात यूँ ही बाँट लेते हैं-
कि हम अपना पसीना भी उनपर बहाए
और शब्दों को भी उनके लिए बरगलाये
पर वे खूब फले-फूले
व अपने आस-पास को भी फुलाए ...
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
कि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
वैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
उनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
हाँ! आप अपनी जाने
कि आपके अन्दर क्या-क्या चलता है
पर उन सुमन-शय्या और मालपुए को
सोच-सोच कर मेरे मुँह में तो
इस किल्लती-युग में भी
दस-बीस गैलन पानी आ भरता है .
मालपुआ चाभने वालों के
श्री मुख से केवल
मेवा-मिष्ठान ही झड़ता है ''
भला बताइए तो
इसकी व्याख्या का प्रसंग निर्देश
अनिवार्य अंग है या नहीं ?
साथ ही इसके कार्य-कारण का
पुर्न-पुर्न व्याख्या करने हेतु
हममें-आपमें अब भी वो उमंग है या नहीं?
ये प्रश्न हमें हर प्रसंग में
स्वयं से करते रहना चाहिए
व सत्य से विमुख हुए बिना
स्वीकार भी करते रहना चाहिए कि
हमसे-आपसे समीक्षित
संदर्भगत संक्षिप्त भूमिका भी
उसके मूलभाव से कोसों दूर रहती है
और हम देखते रहते हैं कि
हमारी बेबस व्याख्या
सुमन-शय्या और मालपुए के
व्यूह में ही कैसे उलझती है ....
तब तो बस यही कहा जा सकता है कि
अपने कर्मक्षेत्र में बिन वंशी के हम
ता-ता थय्या करने वाले क्या जाने
वो सुमन-शय्या कैसे सजता है ?
और सिर के ऊपर बहते अभाव में
बस कलम चला-चला कर क्या माने
कि वो मालपुआ कैसा दिखता है ?
आइये ! हम इन बड़ी-बड़ी बातों में
अपने लिए छोटी बात छाँट लेते हैं
मज़बूरी का नाम कहीं शब्द न हो जाए
इसलिए ये छोटी बात यूँ ही बाँट लेते हैं-
कि हम अपना पसीना भी उनपर बहाए
और शब्दों को भी उनके लिए बरगलाये
पर वे खूब फले-फूले
व अपने आस-पास को भी फुलाए ...
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
कि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
वैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
उनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
हाँ! आप अपनी जाने
कि आपके अन्दर क्या-क्या चलता है
पर उन सुमन-शय्या और मालपुए को
सोच-सोच कर मेरे मुँह में तो
इस किल्लती-युग में भी
दस-बीस गैलन पानी आ भरता है .
वैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
ReplyDeleteउनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
हाँ! आप अपनी जाने
कि आपके अन्दर क्या-क्या चलता है
पर उन सुमन-शय्या और मालपुए को
सोच-सोच कर मेरे मुँह में तो
इस किल्लती-युग में भी
दस-बीस गैलन पानी आ भरता है .
वाह, बहुत सटीक कहा आपने.
रामराम.
बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (10-07-2013) के .. !! निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....!१३०२ ,बुधवारीय चर्चा मंच अंक-१३०२ पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
ReplyDeleteकि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
विचारणीय बात .....
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
ReplyDeleteकि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
कमाल लिखा है...
अनु
शब्दों के प्रति संवेदनशील लोगों ने उनको महत्व को सामने रखा है. शब्दों के पीछे की राजनीति को गहराई से आपकी कविता बेधती है. सच को सामने रखती है. थोपने की बज़ाय चयन का विकल्प देती है कि कुछ तय करना चाहिए.....सुंदर कविता के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, आपकी लेखनी को बहुत बहुत बधाई , यहाँ भी पधारे
ReplyDeleteरिश्तों का खोखलापन
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत उम्दा कमाल की अभिव्यक्ति ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: गुजारिश,
शब्दों की अद्धभुत कला ...बहुत खूब
ReplyDeleteअब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
ReplyDeleteकि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
बहुत ही गहन बातें .......
वैचारिक भाव लिए अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteबेईमानी की पतवार से चलाओ झूठ की नैया
ReplyDeleteपेट-भर मिले मालपूआ, और मिले सुमन-शय्या
लेकिन इस तरह से प्राप्त मालपूआ उदर के व्याधिकर और सुमन-शय्या मेरुदंड के लिये अहितकर. कुल मिला के आत्मनाशी. बहुत ज़रूरी है मन की आँखें खुली रहे.
बिलकुल तय करना चाहिए कि अपने शब्द कहाँ खर्च करने चाहियें। सुन्दर काव्य में गहन और सार्थक विश्लेषण।
ReplyDeleteसादर
शुभकामनायें आदरेया-
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति-
शब्द के माध्यम से अभिव्यक्ति होने की प्रक्रिया में उचित और अनुचित या सीमाओं को बताती सार्थक कविता।
ReplyDeleteबहुत बढिया ..गहन और सार्थक विश्लेषण।
ReplyDeleteहमसे-आपसे समीक्षित
ReplyDeleteसंदर्भगत संक्षिप्त भूमिका भी
उसके मूलभाव से कोसों दूर रहती है
और हम देखते रहते हैं कि
हमारी बेबस व्याख्या
सुमन-शय्या और मालपुए के
व्यूह में ही कैसे उलझती है ....
....बहुत सार्थक और सटीक अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर...
निश्चित रुप से हमसे आपसे समीक्षित विसंगति की व्याख्याएं,सन्दर्भ सुमन-शैय्या और मालपुएवालों पर कोई असर नहीं डालती। अत्यन्त विचारणीय कविता।
ReplyDeleteबड़ा सटीक और गहरा लिखा है..
ReplyDeleteजबरदस्त..........हम क्यों व्यर्थ अपना समय और शब्द गवाएं......वाह अमृता जी.......शानदार ।
ReplyDeleteअब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
ReplyDeleteकि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
बहुत ही गहन :)
अद़भुत भाव...खूब
ReplyDeleteक्या बात है, ऐसे भाव आपकी ही रचना में मिल सकते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री असली चेहरा : पढिए रोजनामचा
http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/like.html#comment-form
वैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
ReplyDeleteउनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
बहुत खूबसूरत
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
ReplyDeleteकि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
कुछ तो हममें समझदारी होनी ही चाहिए .. वरना बयानबाजी और बहस तो हम कर ही लेते हैं।
सटीक, गहरी बात को अलग अंदाज़ में कहने की लाजवाब अदा है आपकी रचनाओं में ...
ReplyDeleteवैसे भी इस खण्डन-मण्डन से
ReplyDeleteउनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है
और हमपर भी छप्पड़ फाड़ कर
सुमन-शय्या और मालपुआ बरसता नहीं है...
सटीक कहा आपने.
कविता के माध्यम से की गंभीर बातें कह दी आपने..
ReplyDeleteकमाल का लिखा है दीदी!!आप सब से हटकर कवितायें लिखती हैं!!कविता के माध्यम से इतनी गंभीर और विचारनीय बात वो भी इतने सुन्दर तरीके से...सिर्फ आप ही कर सकती हैं!
ReplyDeleteहर शब्द की अपनी कीमत होती है ......
ReplyDeleteविचारणीय संदर्भगत व गहन भाव लिए बहुत ही सुन्दर रचना
साभार !
दस बीस गैलन पानी...बाप रे, पहले ही बाढ़ से भारत परेशान है अमृता जी, अपने मुंह की खैर मनाएं..वैसे बातें धारदार हैं..
ReplyDeleteहम अपना पसीना भी उनपर बहाए
ReplyDeleteऔर शब्दों को भी उनके लिए बरगलाये
पर वे खूब फले-फूले
व अपने आस-पास को भी फुलाए ...
अब तो हमें भी कुछ तय करना चाहिए
कि अपना शब्द किसपर खर्चना चाहिए ?
Very Nice
निहार रंजन ji
ReplyDeleteबेईमानी की पतवार से चलाओ झूठ की नैया
पेट-भर मिले मालपूआ और मिले सुमन-शय्या.
उत्तर में कविता लिखी
बहुत बढि़या
आपका लाईव परफार्मेन्स प्रशंसनीय है
मज़बूरी का नाम कहीं शब्द न हो जाए
ReplyDeleteइसलिए ये छोटी बात यूँ ही बाँट लेते हैं-
कि हम अपना पसीना भी उनपर बहाए
और शब्दों को भी उनके लिए बरगलाये....
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सच में.. बातों को कहने का आपका अंदाज कितना उत्कृष्ट है ? ये इस पोस्ट से पता चलता है....
बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteबेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteएकदम सटीक सार्थक बात कही आपने । इस पर सभी को गहराई से विचारना और कुछ करना चाहिए । बधाई । सस्नेह
ReplyDelete