तुम कुछ भी कहो या करो
मैंने अबतक बस इतना ही जाना है
कि अस्तित्व के दो छोर हैं हम
और तुम मुझे लुढ़का रहे हो
किसी ऐसे ढ़लान पर
जो कि अनजाना है....
हो न हो कहीं किसी घाटी तले
तुम्हारा ही कोई ठीकाना हो
जहाँ ले जाकर मुझे
मेरा ही शिखर दिखाना हो
ये मानकर मैं कितना भरूँ खुद को ?
मैं भी जानती हूँ कि
मेरा कितना ही खाली खाना है
हो सकता है कि
ये लालायित लालित्य का
कोई लोकातीत ताना-बना हो
पर ऐसे अतृप्त अदेखा सच को
मैंने अबतक नहीं माना है...
इसलिए रहने दो
अपने स्वर्गीय स्नेहित स्पर्शन को
रहने दो सारी दिव्य दृप्त दर्शन को
जो मेरी इस छोटी सी समझ से बाहर है..
मैं भी बस अपनी कहना चाहती हूँ
कि मेरे लिए तो प्रिय है
चौंधियाया हुआ सुखों का आकर्षण
मर्त्य इच्छाओं का घनिष्ठ घर्षण
और उससे उत्पन्न दुःख-ताल के
उन्माद की गतियों के बीच
मैं भी झूमकर नाचना चाहती हूँ...
ह्रदय पर हथौड़े सी पड़ती
हर चोटों पर मुस्कुराना चाहती हूँ...
हर छलनामय क्षितिज के छंदों पर
छुनन-मुनन कर गुनगुनाना चाहती हूँ
और आखिरी साँस तक
बिना रुके पन्ने-पन्ने पर खुद को
लिख जाना चाहती हूँ ....
और तुम !
तुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
सुन्दर भाव पूर्ण रचना....
ReplyDeleteहर शब्द के हजार मायने.....अंतर्मन जब पिघलता है तो दैवीय भावों से सजी पोस्ट पढ़ने को मिलती है......
ReplyDeleteतुम कुछ भी कहो या करो
ReplyDeleteमैंने अबतक बस इतना ही जाना है
कि अस्तित्व के दो छोर हैं हम
और तुम मुझे लुढ़का रहे हो
किसी ऐसे ढ़लान पर
जो कि अनजाना है....
शानदार रचना, बेहद खूबसूरत बिंब लिये हैं आपने. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत खूब,सुंदर अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी पहचान
आज तो कुछ उलझ गयी आपकी कविता में....
ReplyDeleteलगा कि स्कूल में जैसे टीचर समझाती थीं वैसे आप इसे समझा भी दें...
फिर भी जितना समझी उतना आनंद ले ही लिया.
अनु
ह्रदय पर हथौड़े सी पड़ती
ReplyDeleteहर चोटों पर मुस्कुराना चाहती हूँ...
हर छलनामय क्षितिज के छंदों पर
छुनन-मुनन कर गुनगुनाना चाहती हूँ
बहुत सुंदर भाव ... अविचलित हो कर अपनी ख़्वाहिशों के साथ ज़िंदगी गुज़रती जाये यही कामना है ।
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
ReplyDeleteतुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
बहुत ही सारगर्भित रचना ......
हम्म..
ReplyDeleteमैं भी बस अपनी कहना चाहती हूँ
ReplyDeleteकि मेरे लिए तो प्रिय है
चौंधियाया हुआ सुखों का आकर्षण
मर्त्य इच्छाओं का घनिष्ठ घर्षण
और उससे उत्पन्न दुःख-ताल के
उन्माद की गतियों के बीच
मैं भी झूमकर नाचना चाहती हूँ...
very nice
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत खूब,सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनश्वरता और संघर्ष के क्ल्ोशों के बीच जो गहन दर्शन उभरता है, उसकी अभीष्ट अभिव्यक्ति है यह कविता।
ReplyDeleteअमृता जी, बहुत सुंदर प्रार्थना है यह...पर विचलन ही तो शब्दों को जन्म देता है...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...भावों को बड़ी खूबसूरती से प्रकट कर दिया अमृता जी
ReplyDeleteआपने....साभार....
वाह!!
ReplyDeleteयूँ काँपते हुए जीने के भी अपने मायने हैं... फिर टूट कर गिर जाने के भी...
जीने,लिखने,मुस्कुराने और संघर्षों में अविचल बने रहने का निश्चय नदी के प्रवाह की तरह बहते चले जाने की कहानी कहता है. इसके साथ-साथ तमाम अनदेखे आकर्षणों से अपनी स्वस्थ असहमति जताते हुए, जीवन की तरफ झुकाव की बात भी कहता है. बहुत-बहुत शुक्रिया सुंदर कविता के लिए.
ReplyDeleteAtiutam-***
ReplyDeleteपर मैं भी
ReplyDeleteनश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .!!
वाह अमृता जी ....स्वयं पर अटल विश्वास से भरी ,प्रभावशाली सुन्दर रचना ....!!
और तुम !
ReplyDeleteतुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
आपकी रचना धर्मिता और भावों के सम्प्रेषण का कायल हूँ बेहतरीन
बहुत सुंदर रचना..
ReplyDeleteगहरे आत्म-संधान के बाद ही ऐसी कविता उपजती है. शायद वही सच्चा हौसला है जिसमे हम उन आकर्षण के सतत प्रघातों के बावजूद अपना संतुलन और अटूट आत्मविश्वास रख पाते हैं तथा अपने अपने कर्तव्यों का निर्बाध निर्वहन कर पाते हैं. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteप्रभावशाली सुन्दर रचना ................अमृता जी
ReplyDeleteपर इन ख्वाहिशों के होते हुए भी अविचलित रहना ... प्रेम होते हुए भी अविचलित रहना ... पर क्यों ...
ReplyDeleteअस्तित्व के दो छोर भले ही कभी न मिले पर एक दुसरे को नकार नहीं सकते.........अत्यंत सुन्दर ।
ReplyDeleteऔर तुम !
ReplyDeleteतुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
....बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...
जीवन में जब गहरी अनुभूतियों का असर सृजनशील होने लगे
ReplyDeleteतब ऐसी अदभुत रचना का लिखा जाना संभव होता है--------
गजब की कविता
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
हो न हो कहीं किसी घाटी तले
ReplyDeleteतुम्हारा ही कोई ठीकाना हो
जहाँ ले जाकर मुझे
मेरा ही शिखर दिखाना हो
ये मानकर मैं कितना भरूँ खुद को ?
.....
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी .
सन्देश भाषा सभी कुछ अद्वितीय !!!!
रहने दो सारी दिव्य दृप्त दर्शन को
ReplyDeletevery nice
वाह बहुत खूब ...शब्द रचना बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteबधाई अमृताजी, इतनी गहन चिन्तनपूर्ण भावों को लिये सुन्दर रचना के लिए । मन को छू गयी । शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteसंकल्प बना रहे , कवितायेँ रहेंगी और जीवन भी !
ReplyDeleteऔर तुम !
ReplyDeleteतुम्हें तो अविचिलित रहना है - रहो
मेरे आवेग और आक्रोश को
निरावृत निर्वात में
निखारते रहना है - निखारो
पर मैं भी
नश्वरता और संघर्ष के क्लेशों के बीच
तुम्हारी तरह ही अविचिलित रहूँगी
गहन भाव लिये अनुपम अभिव्यक्ति
इन पहाड़ के दो छोरों के बीच घाटी पल्लवित होती है।
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