अभी- अभी पूर्णिमा का चांद
आकर मुझसे मिला है
अभी- अभी मेरे भी मौन अँधियारे में
मेरा भी चांद खिला है
आज गगन में फूट रहा है कोई अमृत गागर
मेरे अंतर्गगन में भी फैल गया किरणों का सागर
मधुमयी चांदनी ज्यों बरस रही है
मुझसे भी मेरी ज्योति परस रही है
चकोर- चकोरी एकनिष्ठ हो छुप- छुपकर दहक रहे हैं
वहीं नीरंजन बादल कहीं- कहीं चुपचाप थिरक रहे हैं
मुखर हो रही है मन बांसुरी , शब्द- शब्द झरझरा रहे हैं
भाव- भाव अमर रस को पी- पीकर अनंत प्यास बुझा रहे हैं
सोलह कलाओं से सजी आसक्तियां निखरने लगी है
इच्छाऐं रससिक्त होकर जहां- तहां बिखरने लगी हैं
जैसे ये महत क्षण हो अपनापन खोने का
हर्षोन्माद में भींगने और भिंगोने का
जैसे शीतल सौंदर्य के सुगंध को पहली बार कोई मनुहारा हो
सारी रात सांस रोककर कोई चांद को निर्निमेष निहारा हो
जैसे अभी- अभी मिला कोई नवल वय है
लग रहा है कि मैं सबमें और सब मुझमें ही तन्मय है
बस उत्फुल्ल चांद है , उद्दीप्त चांदनी है , उद्भूत पूर्णिमा है
और अमृत में तन्मय हो रही बहिर्अंतस की उन्मत्त अमा है .
*** देव दीपावली एवं कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ ***