यह कैसी पीड़ा है
यह कैसा अनुत्ताप है
प्रिय-पाश में होकर भी
उग्रतर होता परिताप है
जाना था मिलन ही
प्रेम इति होता है
प्रिय को पाकर भी
संताप कहां खोता है
प्रेम के आगे भी
क्या कुछ होता है
प्रिय से कैसे पूछुँ
हृदय क्यों रोता है
यदि मधुर , रस डूबी
प्रेमपगी पीड़ा होती
तो प्रिय-मिलन ही
केलि- क्रीड़ा होती
अनजाना सा कोई है
जो खींचे अपनी ओर
तब तो इस पीड़ा का
न मिलता कोई छोर
मेरा कुछ दोष है या
शाश्र्वत अभिशाप है
प्रिय तो देव सदृश
निश्छल , निष्पाप है
पीड़ा मुझको ताके
और मैं पीड़ा को
कोई तो संबल दे
मुझ वीरा अधीरा को
अब तो प्रिय से ही
अपनी आँखें चुराती हूँ
हर क्षण उसको पी-पीकर
पीड़ा की प्यास बुझाती हूँ
बलवती होती जा रही
पीड़ा की छटपटाहट
अब तो मुक्ति का प्रभु
कुछ तो दो न आहट
आस की डोर को थामे
श्वास से तो पार पा जाऊँ
पर लगता है कि कहीं
पीड़ा से ही हार ना जाऊँ
प्रेम लगन को मेरे प्रभु
और अधिक न लजवाओ
प्रिय को पाया , पीड़ा पायी
बस पहेली को सुलझाओ .
अदभुद। कहां हो कृष्ण?
ReplyDeleteपुनः पुनः पढ़ने को प्रेरित करती है आपकी कविता अन्यतम है।
ReplyDeleteअति सुंदर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२८-११-२०२०) को 'दर्पण दर्शन'(चर्चा अंक- ३८९९ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
एक कदम रख लिया अब अगला ही बाकी है ... प्रिय को पाया भला हुआ पर जब तक खुद को न पाया पीड़ा सताती ही रहती है, जब तक दो हैं तब तक कहाँ निस्तार पीड़ा से, जब तक कि क्रीड़ा ही न बन जाये पीड़ा
ReplyDeleteअन्तस् के बहुत भीतर पल्लवित होने वाली मुखर रचना |बहुत सुन्दर |
ReplyDeleteअप्रतिम !! निशब्द और मंत्रमुग्ध करता सृजन ।
ReplyDeleteआस की डोर को थामे
ReplyDeleteश्वास से तो पार पा जाऊँ
पर लगता है कि कहीं
पीड़ा से ही हार ना जाऊँ
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुत सुंदर रचना...
ReplyDeleteअनजाना सा कोई है
ReplyDeleteजो खींचे अपनी ओर
तब तो इस पीड़ा का
न मिलता कोई छोर
वाह!!!
अद्भुत ...लाजवाब सृजन।
स्वभाविक है कि-
ReplyDelete'प्रिय को पाया, पीड़ा पायी'
सुंदर रचना.
बहुत सुंदर विरह गीत सी रचना अमृता जी। सस्नेह।
ReplyDeleteइस आस की डोर मिलेगी
ReplyDeleteइस पहेली का ठौर मिलेगा
क्या?
मन की परतों में दबा कोई भाव तो उद्वेलित कर रहा है,जो स्वयं को दोषी करार दे रहा है ।
ReplyDeleteसुंदर सृजन रहस्यमय सा।
प्रेम के आगे भी
ReplyDeleteक्या कुछ होता है
प्रिय से कैसे पूछुँ
हृदय क्यों रोता है....
आदरणीया अमृता जी, क्षमाप्रार्थी हूँ कि ब्लॉग जगत की आपकी इतनी सशक्त रचना को मैं विलम्ब से पढ़ पाया।
रचना में निहित भाव इतनी हृदयस्पर्शी है कि मैं अपनी प्रतिक्रिया को कम शब्दों में नहीं रोक पाया।
पीड़ा मुझको ताके
और मैं पीड़ा को
कोई तो संबल दे
मुझ वीरा अधीरा को...
लाजवाब है आपकी भावाभिव्यक्ति। बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ। ।।।।।।
ऐ वक़्त तू सुन आवाज़ कि ये परवाज़ गगन से दूर तलक। ...
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