मैं देखती रह गयी उन्हें
असीम फलक पर उड़ते हुए...
सपनों में रंग भरने लगे
मैं देखती रह गयी उन्हें
स्याह सिक्त होते हुए.......
आशाओं की कोख उजड़ गयी
मैं देखती रह गयी उन्हें
बेबस बाँझ होते हुए......
सोच को मार गया लकवा
मैं देखती रह गयी उन्हें
जब्रन जड़ होते हुए........
विचारों में युद्ध छिड़ गया
मैं देखती रह गयी उन्हें
धड़ा-धड़ धराशायी होते हुए...
मुझसे एक - एक कर
सब छुट रहे हैं या फिर
साज़िश तहत रूठ रहे हैं.....
अपने खालीपन को कैसे भरूँ
कुछ तो बहाना चाहिए
जिसमें मैं बहूँ .........
अब बिना बहाना किये
इस खालीपन के खज़ाने को
बाँटे जा रही हूँ
बस ...बाँटे ही जा रही हूँ...
मुआ कैसा ख़जाना है कि
खाली होने के बजाय
और भरता ही जा रहा है .