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Thursday, September 29, 2011

ख़जाना

कल्पनाओं के पंख लग गये
मैं देखती रह गयी उन्हें
असीम फलक पर उड़ते हुए...
सपनों में रंग भरने लगे
मैं देखती रह गयी उन्हें
स्याह सिक्त होते हुए.......
आशाओं की कोख उजड़ गयी
मैं देखती रह गयी उन्हें
बेबस बाँझ होते हुए......
सोच को मार गया लकवा
मैं देखती रह गयी उन्हें
जब्रन जड़ होते हुए........
विचारों में युद्ध छिड़ गया
मैं देखती रह गयी उन्हें
धड़ा-धड़ धराशायी होते हुए...
मुझसे एक - एक कर
सब छुट रहे हैं या फिर
साज़िश तहत रूठ रहे हैं.....
अपने खालीपन को कैसे भरूँ
कुछ तो बहाना चाहिए
जिसमें मैं बहूँ .........
अब बिना बहाना किये
इस खालीपन के खज़ाने को
बाँटे जा रही हूँ
बस ...बाँटे ही जा रही हूँ...
मुआ कैसा ख़जाना है कि
खाली होने के बजाय
और भरता ही जा रहा है .

Friday, September 23, 2011

क़िस्मत

जब गद्दाफी की गद्दी  लुट  गयी
तो आप किस खेत  की  मूली हैं

अपने भूलभुलैया में हमें भुला दें
ग्रह-नक्षत्र आपको नहीं  भूली है

तिरेसठ को जरा छतीस होने दें
आपका चुराया सुख  ही सूली है

महामाया  लक्ष्मी  रास   रचाए
एक ही बाँह में   कहाँ  झूली   है

आसमाँ  से जमीं  पर  गिराकर
नाज़ो-नख़रा  पर खूब  फूली है

कब किस माथे तिलक सजा है
कब वहीं कालिख  और धूलि है

दुनिया देख रही  उस  राजा  को
जो अब  मामूली से  मामूली  है

अपने हक़-हिस्सा से ज्यादा लेंगे
तो किस्मत भी कीमत वसूली है .




 

Monday, September 19, 2011

गवारा

काँपी धरती
ह्रदय भी काँपा
मौत के ख़तरे को
हम सभी ने भाँपा
तन-मन जोर से डोला
फिर सच ने
वही अपना राज़ खोला
जिस घर के लिए
दुश्मन हुए भाई
नाते-रिश्तों की
खूब कीमत लगाई
या आजीवन खर्च किया
खून-पसीने की
गाढ़ी कमाई
कौन सा किया नहीं
तेरी - मेरी
उसी घर को
छोड़ने में तनिक भी
लगाई नहीं देरी
जान बचा भाग चले
खड़े हो गए
आसमान तले
ओह ! कैसा उभरा
दृश्य निराला
उस अपने घर में
एक पल किसी को
रहना हुआ न गवारा .
 
 
 
भूकंप को मैंने इतनी अच्छी तरह महसूस किया कि पोस्ट डालने से खुद को रोक नहीं पायी .

Friday, September 16, 2011

बोलो हे !....

वाक् मेरे वाग्बद्ध हो

क्यूँ सुर में झंकृत होने लगा है

वेदना अब वंदना बन

क्यूँ अश्रु सा बहने लगा है

व्यथा भी वितृण वाट्य बन

क्यूँ पुष्प सा खिलने लगा है...


बोलो हे ! विधि के विधायक

सघन वीथिका में दृग हमारे

क्यूँ कर दिए वृहद् इतना

उभरती हैं जो वृत्तियाँ आज ये सहसा

उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है ....


बोलो हे ! सर्व सत्व के सर्जक

गहन संवेदना में संस्पर्श हमारे

क्यूँ कर दिए सूक्ष्म इतना

उमड़ती है जो अनुभूतियाँ आज ये सहसा

उन्हें कुछ भिन्न सा छूने लगा है....


बोलो हे ! प्रणय के प्रदीपक

प्रेम की कैसी ये धारा

बह रही है मुझमें अब

निज है जो मेरा आज ये सहसा

क्यूँ निज में ही खोने लगा है।

 

 

 

वाग्बद्ध -- मौन ,   वितृण --- तृष्णा रहित ,  विधायक -- नियम बनाने वाला ,
सत्व -- अस्तित्व  , प्रणय -- प्रेम    
प्रदीपक -- प्रकाश फैलानेवाला 

Sunday, September 11, 2011

हे ! त्रायमाण .

अब   तो   मनु    नहीं     नादान
सृष्टि-ध्वंस   का   है  उसे  ज्ञान
जब प्रकृति पर भारी   है विज्ञान
तब तो प्रलय की आहट पहचान
 
भय   भी   हो   रहा  है   भयभीत
किसकी   हार  है  किसकी  जीत
कौन किसका कर रहा है उपहास
या चेतना का हुआ अकल्प ह्रास
 
पुनः  चीख   रही   है     चीत्कार
वही मांसल-चीथड़ों का व्यापार
फैला   लहू  है   दृश्य   विकराल
बह रही  है  आँसुओं  की    धार
 
कैसा   मचा   हुआ  है  हाहाकार
स्नेही-जन   की   अधीर  पुकार
तेरे   विश्व   में   हे !    भगवान्
निज प्राणों का  शत्रु  हुआ  प्राण
 
क्या कलियुग का यही अभिशाप
हर  ह्रदय   कर  रहा   है   विलाप
कैसा घृणित, कुत्सित अभियान
मानवता  का   है   घोर   अपमान
 
वासना-लिप्सा पर लगाओ लगाम
आगामी विस्फोटों को  दो  विराम
शरणागत हैं तेरे करो सबका त्राण
त्राहि   -  त्राहि       हे !    त्रायमाण . 
  

Friday, September 2, 2011

पिया जो नहीं...

साँझ     फिर   उदास     है
जिया जो   नहीं   पास   है
सब   लौट   रहे   घर   को
कोई कह दे   बेखबर   को
राह कहीं   भटक न   जाए
या   वहीँ   अटक न    जाए


रात     फिर      बेआस       है
पिया    जो    नहीं   पास   है
सब रीझती औ रिझाती होंगी
पिया संग  हँसती- गाती  होंगी
मैं   अँखियों में   तारा भरती
और चंदा को   निहारा करती


प्रात:    पिघलता      आस   है
धुँधला - धुँधला   उजास   है
हाय ! कैसा    ये   खग्रास है
कबतक   का      वनवास    है
जिया    आये   न    रास   है
पिया     जो   नहीं   पास   है.